मसूद अज़हर पाकिस्तान के सबसे हिंसक चरमपंथी समूहों में से एक जैश-ए-मोहम्मद के प्रमुख हैं लेकिन एक समय वह ब्रिटेन के प्रमुख इस्लामिक विद्वानों के ख़ास मेहमान हुआ करते थे.
जब दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण जिहादी नेताओं में से एक ने 6 अगस्त, 1993 को हीथ्रो हवाई अड्डे पर क़दम रखा तो उनके स्वागत के लिए ब्रिटेन की सबसे बड़ी मस्जिद श्रृंखला के इस्लामिक विद्वानों का एक समूह मौजूद था.
पहुंचने के कुछ ही घंटों बाद वह पूर्वी लंदन में क्लैपटन की मदीना मस्जिद में जुमे की नमाज़ से पहले तक़रीर कर रहे थे. जिहाद की ज़रूरत पर दी गई उनकी तक़रीर सुनकर वहां मौजूद लोगों की आंखों में आंसू आ गए थे.
जिहादी नेता की अपनी मैग़ज़ीन के अनुसार – इसके बाद इस्लामिक विद्वानों के एक समूह के साथ मुलाक़ात में ‘जिहाद, इसकी ज़रूरत, प्रशिक्षण और इससे जुड़े दूसरे मुद्दों’ पर लंबी चर्चा हुई.
उस समय मेहमान के तौर पर ब्रिटेन आए धार्मिक उपदेशक मसूद अज़हर की तलाश भारत सरकार इस साल जनवरी में पठानकोट एयरफ़ोर्स बेस हमले के सिलसिले में कर रही है. 1993 में वह पाकिस्तान के जिहादी संगठन हरकत-उल-मुजाहिदीन के प्रमुख संगठनकर्ता थे.
चरमपंथी समूह की मैग़ज़ीन के पुराने संग्रहों में बीबीसी को उनके दौरों के बारे में पता चला है.
इसके तथ्यों से ये जानकारी मिलती है कि नब्बे के दशक में ब्रिटेन के मुख्यधारा की कुछ मस्जिदों में किस तरह कट्टर जिहादी विचारधारा को बढ़ावा दिया गया – और इसमें ब्रिटेन के कुछ सबसे बड़े इस्लामिक विद्वान भी शामिल थे. अज़हर का ब्रितानी दौरा क़रीब महीने भर चला और उसमें उन्होंने 40 तक़रीरें कीं.
इस ब्यौरे के अनुसार पूर्वी लंदन की मस्जिद में कई तक़रीरें करने के बाद अज़हर उत्तर की ओर बढ़ गए. ब्रिटेन में पहले 10 दिन के दौरान उनकी जिहादी तक़रीरों के ठिकाने थे ड्यूज़बरी में ज़करिया मस्जिद, बेटली में मदीना मस्जिद, ब्लैकबर्न में जामिया मस्जिद और बर्नले में जामिया मस्जिद.
उत्तर के क़स्बों में उनकी लोकप्रियता ऐसी थी कि बांसुरीवाले की तरह जहां भी वह गए उनके चाहने वालों की संख्या बढ़ती गई.
उनके दौरे में जो बात सबसे चौंकाने वाली थी वो थी ब्रिटेन की सबसे महत्वपूर्ण इस्लामिक संस्था मानी जाने वाले – लैंकशर के बोर्डिंग स्कूल और मदरसे दारुल उलूम बरी में दी गई तक़रीर. ब्रिटेन के सबसे महत्वपूर्ण इस्लामिक विद्वान, शेख़ यूसुफ़ मोटाला भी यहीं के थे.
इस दौरे की रिपोर्ट के अनुसार अज़हर ने विद्यार्थियों और शिक्षकों को संबोधित करते हुए कहा कि क़ुरान के एक महत्वपूर्ण हिस्से में ‘अल्लाह के लिए क़त्ल करने’ की बात है और पैग़ंबर मोहम्मद के प्रवचनों में अच्छा-ख़ासा हिस्सा जिहाद के मुद्दे पर है.
जब तक अज़हर दारुल उलूम बरी पहुंचे तब तक उनके एजेंडा को लेकर भ्रम बहुत कम रह गया था. कुछ दिन पहले ही मदरसे के कई छात्र प्लेसटो में जामिया इस्लामिया मस्जिद के उद्घाटन समारोह में शामिल हुए थे जहां अज़हर ने ‘जिहाद करने वालों की जीत के लिए ऊपरवाले के वायदे’ के बारे में बात की थी.
बीबीसी ने उस दौरे की कई रिकॉर्डिंग का पर्दाफ़ाश किया है, इनसे कुछ जगहों पर दिए जा रहे संदेशों के बारे में अंदाज़ लगता है.
‘जिहाद से जन्नत तक’ नाम की एक तक़रीर में अज़हर ने कहा था, "युवाओं को बग़ैर किसी देर के जिहाद के लिए तैयार हो जाना चाहिए. उन्हें चाहिए कि जहां से संभव हो जिहादी प्रशिक्षण हासिल करें. हम भी अपने सेवाएं देने को तैयार हैं."
लेकिन मसूद अज़हर के ब्रिटेन दौरे की कहानी उस ब्यौरे से मेल नहीं खाती जिसे मुस्लिम समुदाय के नेता और सुरक्षा विशेषज्ञ दोनों बढ़ावा देते हैं. उनके अनुसार ब्रिटेन में जिहादी मानसिकता का ब्रिटेन की दक्षिण एशियाई मस्जिदों से कोई लेना-देना नहीं है.
उनके अनुसार समस्या की जड़ अरब से निष्कासित अबू-हमज़ा और उमर बक्री मोहम्मद जैसे मुट्ठी भर इस्लवादी हैं.
इन वहाबी उपदेशकों ने यक़ीनन ब्रिटेन के कुछ युवा मुसलमानों को कट्टर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. लेकिन पाकिस्तानी धार्मिक नेता मसूद अज़हर ही वह पहले आदमी थे जिन्होंने ब्रिटेन में आधुनिक जिहादी चरमपंथ के बीज बोए- और देवबंदी धारा से जुड़ी दक्षिण एशियाई मस्जिदों की मार्फ़त उन्होंने यह काम किया.
ब्रिटेन की 40 फ़ीसदी मस्जिदों का नियंत्रण देवबंदियों के हाथ में है और ज़्यादातर इन्हीं मस्जिदों में इस्लामिक विद्वानों को प्रशिक्षण दिया जाता है. उनकी विचारधारा 19वीं सदी में भारत के देवबंद में स्थापित एक सुन्नी इस्लामिक संस्था दारूल उलूम देबबंद से मेल खाती है.
भारत में मौजूद दारूल उलूम देवबंद मदरसा तो हालांकि चरमपंथ के ख़िलाफ़ बाज़ाबता फ़तवा जारी कर चुका है – लेकिन पाकिस्तान में मौजूद कुछ देवबंदी मदरसे जिहादी विचारधारा का प्रचार करते हैं.
ब्रिटेन की कई देवबंदी मस्जिदों में आने वाले ज़्यादातर लोगों के बीच मसूद अज़हर का पैसा जुटाने और भर्ती करने का दौरा एक खुला रहस्य है. लेकिन इसके बारे में सार्वजनिक रूप से बात करने से लोग बचते हैं. इसलिए बाक़ी दुनिया के लिए यह ब्यौरा अब तक एक रहस्य बना रहा है.
अज़हर तब 25 साल के थे जब ब्रिटेन के कुछ देवबंदियों ने उनका भव्य स्वागत किया था. उस समय उनका मुद्दा कश्मीर का विवादित क्षेत्र था. अज़हर और अन्य चरमपंथियों ने पाकिस्तान-भारत के राष्ट्रवादी संघर्ष को हिंदुओं के ख़िलाफ़ मुसलमानों के जिहाद के रूप में बदल दिया.
1993 तक अल-क़ायदा ने अमरीका और इसके साथियों के ख़िलाफ़ जंग का ऐलान नहीं किया था, लेकिन जब इसने किया तो अज़हर का गुट उसका सहयोगी बन गया.
ब्रितानी देवबंदियों और मसूद अज़हर के संबंधों का असर 1999 में ज़्यादा साफ़ हो गया. एक भारतीय हवाई जहाज़ को हाईजैक कर लिया गया और अफ़ग़ानिस्तान के कंधार में उतारा गया.
यात्रियों को बंधक बनाया गया था कि मसूद अज़हर और उसके दो सहयोगियों – जिनमें से एक लंदन का 26 वर्षीय छात्र, अहमद उमर सईद शेख, था – को भारतीय जेल से छुड़वाया जा सके.
सईद को एक पश्चिमी नागरिक के अपहरण के आरोप में भारत में गिरफ़्तार किया गया था.
इन तीनों की रिहाई के बाद अज़हर ने अपना एक नया चरमपंथी समूह गठित कर लिया जिसका नाम रखा जैश-ए-मोहम्मद. सईद 2002 में पाकिस्तान में वॉल स्ट्रीट जनरल के रिपोर्टर डेनियल पर्ल के अपहरण और हत्या में शामिल था.
अज़हर के नए चरमपंथी समूह में सबसे पहले भर्ती होने वालों में से एक बर्मिंघम का मोहम्मद बिलाल था. बिलाल ने दिसंबर, 2000 में श्रीनगर में एक आर्मी बैरेक के बाहर ख़ुद को विस्फोट से उड़ा लिया था जिससे छह सैनिकों और तीन विद्यार्थियों की मौत हो गई थी.
लेकिन मसूद अज़हर के ब्रितानी संपर्क का एक और गंभीर परिणाम था – ब्रिटेन में हमले करने के इच्छुक ब्रितानी मुसलमानों को प्रशिक्षण और लॉजिस्टिक्स की सुविधा देना.
ब्रिटेन पर हमले की कई योजनाओं को – जिनमें 7/7, 21/7 और 2006 में अटलांटिक पार जाने वाले हवाई जहाज़ों में लिक्विड बम बनाने वाले पदार्थों को चोरी से ले जाने की कोशिश शामिल थी, अब रशीद राउफ़ से जोड़कर देखा जाने लगा है.
रशीद बर्मिंघम का रहने वाला था जिसकी शादी पाकिस्तान में मसूद अज़हर के परिवार में हुई थी.
बीबीसी ने जिन पुराने जिहादी प्रकाशनों का अध्ययन किया है उससे ये नहीं पता चलता है कि मसूद अज़हर के अल क़ायदा से जुड़ने के बाद ब्रिटेन के देवबंदी समूह के विचारों में क्या किसी तरह की तबदीली हुई थ?
या अज़हर को मिलने वाला ब्रितानी समर्थन महज़ अंडरग्राउंड हो गया था?
(इस रिपोर्ट का अगला हिस्सा, अगले दिन पढ़िए)
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