ख़ुफ़िया एजेंसियां पठानकोट हमले के बारे में बुनियादी जानकारी भी नहीं जुटा पाईं. वे यह भी ठीक से नहीं बता पाईं कि हमलावर चार थे या छह.
असल में भारत की सुरक्षा व्यवस्था में एक प्रभावशाली ख़ुफ़िया तंत्र की कमी हमेशा से एक समस्या रही है.
भारत पर चरमपंथी हमले जब जब हुए, ख़ुफ़िया तंत्र आलोचनाओं और प्रश्नों से घिरता रहा. ऐसा लगता है मानो हमने अपनी ग़लतियों से कुछ सीखा ही न हो.
करगिल युद्ध के बाद से ही भारतीय ख़ुफ़िया तंत्र में बदलाव की ज़रूरत को महसूस कर लिया गया था.
अगर करगिल रिव्यू कमेटी की रिपोर्ट्स पर नज़र डालें तो यह साफ़ हो जाता है कि पाकिस्तानी घुसपैठ के बारे में भारतीय ख़फ़िया एजेंसियों के पास महत्वपूर्ण जानकारी नहीं थी.
करगिल युद्ध के बाद उम्मीद जगी कि ख़ुफ़िया ढांचे को मज़बूत किया जाएगा.
इसी सिलसिले में एनटीआरओ (नेशनल टेक्निकल रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन) बनाया गया, लेकिन 2008 के मुंबई हमलों ने एक बार फिर भारतीय ख़ुफ़िया ढांचे की कमियां उजागर कर दीं.
मुंबई पर चरमपंथी हमले के बाद ख़ुफ़िया तंत्र में कुछ बदलाव लाए गए थे. चरमपंथ से लड़ने के लिए 2009 में एक केंद्रीय एजेंसी, एनआईए, बनाई गई.
इन बदलावों के बाद भी भारतीय ख़ुफ़िया तंत्र में सुधार की गंभीर ज़रूरत जस की तस बनी रहीं.
भारतीय ख़ुफ़िया तंत्र में सुधार की ज़रूरत की सिफारिशें लंबे समय से होती रही हैं.
रक्षा अध्ययन और विश्लेषण संस्थान (आईडीएसए) की साल 2012 की एक रिपोर्ट में भारत के ख़ुफ़िया रक्षा तंत्र की बड़े पैमाने पर आधुनिकीकरण की सिफारिश की गई थी.
कुछ इसी तरह की सिफारिशें इंटेलिजेंस एजेंसियों के रिटायर्ड आला अधिकारी भी समय-समय पर करते रहे हैं.
भारतीय ख़ुफ़िया तंत्र की नाकामी की बड़ी वजह है योग्य कर्मचारियों की कमी.
आज भारतीय ख़ुफ़िया विभागों में ज़्यादातर वो लोग काम कर रहे हैं जो विभिन्न रक्षा एजेंसियों से डेप्यूटेशन पर लिए जाते हैं.
ख़ुफ़िया जानकारी जुटाना और विश्लेषण करना एक जटिल काम है, जिसके लिए कुछ खास हुनरमंद लोगों की ज़रूरत होती है. डेप्यूटेशन पर लिया गया स्टाफ़ इस काम को बेहतर ढंग से करने में नाकाम ही होगा.
साल 2013 में तब के गृह राज्य मंत्री आरपीएन सिंह ने संसद में कहा था कि रॉ और आईबी में 30% से 40% कम स्टाफ़ हैं. इसमें विशेष रूप से महत्वपूर्ण मध्य स्तर के कर्मचारी शामिल है. वहीं रॉ में दूसरी भाषा के जानकारों की कमी है.
ख़ुफ़िया एजेंसियों में स्टाफ की चयन प्रक्रिया में भी सुधार की ज़रूरत है. मौजूदा चयन प्रक्रिया से ऐसे लोगों की भर्ती मुश्किल है, जिनमें इंटेलिजेंस एजेंसियों में काम करने का कौशल हो.
आज ज़रूरत इस बात की है कि भारत भी मोसाद, सीआईए, एमआई 6 और एसआईएस की तरह विश्वविद्यालयों और कॉलेजों से सीधी भर्ती करे.
कई विश्वविद्यालयों में सामरिक विषयों पर अध्ययन होता है. ऐसी जगहों से उचित स्टाफ़ की भर्ती की जा सकती है.
विभिन्न सुरक्षा एजेंसियों में तालमेल की कमी एक और बड़ी समस्या है. साल 2008 के मुंबई हमलों से लेकर पठानकोट एयर फ़ोर्स के बेस पर हमले तक हर बार एजेंसियों में तालमेल की कमी दिखाई दी.
अगर मुंबई हमले की ही बात करें तो ‘तहलका’ पत्रिका के अनुसार, हमले से पांच दिन पहले इंटेलीजेंस ब्यूरो के पास उन 35 मोबाइल नंबरों की जानकारी थी, जिनमें से कुछ को चरमपंथियों ने पाकिस्तान में बैठे अपने हैंडलर से बात करने के लिए इस्तेमाल किया था.
इसी तरह की कुछ जानकारी रॉ के पास भी थी. अगर इन दोनों सूचनाओं को जोड़ कर देखा जाता तो शायद सभी सुरक्षा एजेंसियों को एक प्रभावशाली चेतावनी भेजी जा सकती थी और नुक़सान कम किया जा सकता था.
रिटायर्ड रॉ अधिकारी विक्रम सूद के अनुसार, "बिना पुलिस सुधार के इंटेलीजेंस सुधार के लक्ष्य को हासिल करना मुश्किल है क्योंकि स्थानीय पुलिस के लोग ही सामरिक इंटेलिजेंस इकट्ठा करते हैं."
जो सुरक्षा चुनौतियाँ आज मौजूद हैं, वो भविष्य में और बढ़ जाएंगी. इसलिए हमेशा तैयार रहना ही एकमात्र समाधान है.
साफ़ है, भारतीय ख़ुफ़िया तंत्र में आधुनिकीकरण जितनी तेज़ी से हो, अच्छा है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
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