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नयी तकनीक : माइक्रोब्स कोटिंग से बढ़ाया जा सकता है फसलों का उत्पादन
नॉलेज डेस्क फसलों की पैदावार बढ़ाने के लिए दुनियाभर में कई नये तरीकों से परीक्षण कार्य जारी है. हालांकि, केमिकल के इस्तेमाल से पैदावार में व्यापक वृद्धि हुई, लेकिन लंबी अवधि में इसके अनेक घातक असर की आशंका भी जतायी जा रही है. ऐसे में माइक्रोब्स के इस्तेमाल से वैज्ञानिकों को नये तरीके से पैदावार […]
नॉलेज डेस्क
फसलों की पैदावार बढ़ाने के लिए दुनियाभर में कई नये तरीकों से परीक्षण कार्य जारी है. हालांकि, केमिकल के इस्तेमाल से पैदावार में व्यापक वृद्धि हुई, लेकिन लंबी अवधि में इसके अनेक घातक असर की आशंका भी जतायी जा रही है.
ऐसे में माइक्रोब्स के इस्तेमाल से वैज्ञानिकों को नये तरीके से पैदावार बढ़ाने में आरंभिक सफलता हाथ लगी है, जिसे उत्साहजनक बताया गया है. क्या है यह सफलता और कैसे खेती के नये तरीके से पैदावार बढ़ाने में मिल सकती है कामयाबी आदि समेत इससे संबंधित महत्वपूर्ण पहलुओं के बारे में बता रहा है आज का नॉलेज…
अमेरिकी वैज्ञानिक नाथन क्यूड ने मिट्टी के परीक्षण के क्रम में जब एक दिन सफेद टपरवेयर कंटेनर से लेबल ‘क्यू8आर’ को हटा कर उसे खोला, तो उसके भीतर गहरे भूरे रंग की मिट्टी उन्हें बेजान सी लगी. दरअसल, मिट्टी का यह नमूना अमेरिका के एक निर्धारित खेतीवाले इलाके से लिया गया था. दरअसल, अमेरिका में मिट्टी की ताकत को पहचानने और उसे बढ़ाने के लिए नियमित रूप से उसका परीक्षण होता है.
पहली नजर में देखने पर भले ही मिट्टी का यह खास नमूना बेजान दिखा हो, लेकिन जब उसे एग्रीबिजनेस फर्म्स ‘नोवोजिम्स’ ले जाया गया, तो वहां माइक्रोबायोलॉजिस्ट उसे देख कर प्रफुल्लित हो उठे. उन्हें उस मिट्टी में वह ताकत दिखी, जिसमें दुनिया की भूख मिटाने की क्षमता है. आपको यह जान कर अचरज हो सकता है कि मिट्टी के उस कंटेनर में 10,000 भिन्न-भिन्न प्रजातियों के करीब 50 बिलियन माइक्रोब्स मौजूद थे. यानी उसमें मौजूद आॅर्गेनिज्म्स की संख्या इस धरती पर मौजूद इनसानों की संख्या से कई गुनाज्यादा थी.
माइक्रोब्स की तलाश
मिट्टी में रहनेवाले बैक्टीरिया और फंजाई यानी कवक पौधों के लिए बेहद अहम होते हैं. इन बेकार की चीजों से पौधों को पोषक तत्व और खनिज हासिल करने में मदद मिलती है. इतना ही नहीं, ये उन्हें जड़ों को विस्तार देने और उनके भोजन और पानी तक पहुंच बनाने में भी मददगार साबित होते हैं.
पौधों को भरपूर ग्रोथ मुहैया कराने और उनके इम्यून सिस्टम को मजबूती प्रदान करते हुए कीटाणुओं के आघात से बचाते हुए बीमारी की चपेट में आने से भी बचाते हैं. एग्रीकल्चर कंपनियों में कार्यरत वैज्ञानिक अब इन्हीं बेकार या गंदी चीजों में से ऐसे माइक्रोब्स की खोज कर रहे हैं, जो खास फसलों के उत्पादन को बढ़ाने में अपना योगदान दे सकते हैं.
जैविक खेती
बायो-एग्रीकल्चर यानी जैविक खेती की अवधारणा कोई नयी नहीं है. वर्ष 1888 में डच माइक्रोबायोलॉजिस्ट मार्टिनस बेजेरिंक ने लेगुमिनस पौधों की जड़ों में इसकी खोज की थी. उन्होंने पाया कि लेगुमिनस पौधों की जड़ों में राइबोजियम नामक बैक्टीरिया का वास है, जो वायु से नाइट्रोजन ग्रहण करता है और उसे ऐसे प्रारूप में तब्दील करता है, जिसे पौधे अपने इस्तेमाल में लाते हैं.
किसानों ने सेम और मटर में राइजोबियम की ताकत को सबसे ज्यादा पाया और उसका इस्तेमाल किया. इसके बाद एक-एक करते हुए अन्य माइक्रोब्स बायोफंजीसाइड्स और बायोपेस्टीसाइड्स जैसे उत्पाद में ट्रांसफोर्म्ड होते हैं. हालांकि, इस नये डीएनए-सिक्वेंसिंग टूल्स से शोधकर्ताओं को राइजोस्फेयर के रूप में पौधों की जड़ों में पाये जानेवाले माइक्रोबायोम की जटिलताओं को समझने में कामयाबी नहीं मिली थी, लेकिन अब उन्होंने इसके अनेक अन्य गुणों को समझा है.
वर्ष 2012 में अमेरिकन एकेडमी आॅफ माइक्रोबायोलॉजी में ‘हाउ माइक्रोब्स कैन हेल्प फीड द वर्ल्ड’ शीर्षक से छपी रिपोर्ट में इन तथ्यों का विस्तार से जिक्र किया गया है कि इस संसाधन की परतों को खोलने पर कैसे फसलों की उत्पादकता बढ़ायी जा सकती है. इतना ही नहीं, इसका इस्तेमाल किसी भी प्रकार की पर्यावरणीय परिस्थितियों में किया जा सकता है और यह आर्थिक रूप से भी फायदेमंद है. रिपोर्ट के मुताबिक, इससे पारिस्थितिकी तंत्र के भी प्रभावित होने का कोई खतरा नहीं होगा.
नोवोजिम्स ने इसके परीक्षण के लिए व्यापक पैमाने पर निजी फार्म हाउसों और खेतों से मिट्टी के नमूने एकत्र किये और उन्हें कंपनी की प्रयोगशाला में शोध के लिए भेजा.
हालांकि, मिट्टी के इन नमूनों में शोधकर्ताओं ने करोड़ों-अरबों माइक्रोआॅर्गेनिज्म्स मौजूद होने की उम्मीद जतायी, लेकिन प्रयोगशाला में उनका महज एक फीसदी ही विकसित किया जा सकता है. प्रयोगशाला में प्रत्येक माइक्रोब्स के जीनोम को सिक्वेंस्ड यानी डीकोडेड किया गया और ज्ञात पैथोजेन्स के डाटाबेस के माध्यम से उनकी जांच की गयी. उनमें से जो आपस में मैच करते हुए पाये गये, उन्हें निकाल कर शेष को अगले चरण के लिए मूव कर दिया गया.
शोधकर्ताओं ने इसके शेष दावेदारों की भी जांच की, ताकि यह जाना जा सके कि पौधों को पोषकता प्रदान करने में उनकी कितनी भूमिका हो सकती है. इसमें एनोक्यूलेंट्स ऐसी चीज है, जो पौधों को बढ़ने में मदद करती है, या ऐसे बायो-कंट्रोल प्रोडक्ट भी हैं, जो उन्हें बीमारियों और कीटों के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करते हैं. इस दौरान एक परीक्षण में यह जांचा गया कि यदि माइक्रोब्स पौधों की जड़ों को नाइट्रोजन जैसे पोषक तत्व ग्रहण करने में मदद करते हैं, तो पौधे उसका इस्तेमाल अपने लिए बेहतर तरीके से कर सकते हैं.
अन्य परीक्षणों में यह मूल्यांकन किया गया कि बीमारियों और कीटों की चपेट में आने से माइक्रोब्स की मदद से पौधे खुद को कैसे बचा सकते हैं. उदाहरण के तौर पर पारासाइटिक नीमेटोड्स के कारण दुनियाभर में 120 मिलियन डॉलर से ज्यादा कीमत की अनाज को नुकसान पहुंचता है. नोवोजिम्स में जूलॉजिस्ट जेनिफर पेटेटी का कहना है कि माइक्रोब्स को ज्यादा उन्नत बनाते हुए इस नुकसान को रोका जा सकता है. उनका कहना है कि इन माइक्रोब्स में इतनी क्षमता है कि वे हानिकारक कीटों की पहचान करते हुए उसे मार सकते हैं या निष्क्रिय कर सकते हैं.
माइक्रोब्स का स्टोरेज
श्रेष्ठ माइक्रोबियल गुणों वाले वायल्स को नोवोजिम्स की एक अन्य प्रयोगशाला में ले जाया जाता है, जहां बड़े फ्लास्क्स में रखे हुए विभिन्न फॉर्मूलेशंस में इनकी गुणवत्ता बढ़ाई जाती है. नोवोजिम्स के एक माइक्रोबियल साइकोलॉजिस्ट बिल थ्रोंडसेट का कहना है कि फ्लास्क्स में रखे हुए हुए कंटेंट वास्तविक में एक ट्रेड सेक्रेट है, ठीक उसी तरह जो किसी पेय पदार्थ के नुस्खे के संबंध में होता है. यानी उस कंटेंट के बारे में नहीं बताया जा सकता.
उनका कहना है कि किसी भी माइक्रोआॅर्गेनिज्म्स को जेनेटिकली मोडिफाइड या इंजीनियर्ड नहीं किया जाता, बल्कि मिट्टी के नमूनों में से उन्हें निकाला और कल्चर्ड किया जाता है. प्रत्येक बैच को उसके संबंधित माध्यम में कल्चर्ड करने के बाद पानी के फ्रीजिंग प्वाइंट से भी कम ताप पर यानी अत्यंत शीतल अवस्था में प्रिजर्व्ड किया जाता है. यह प्रक्रिया ठीक उसी तरह होती है, जिस तरह खास बायोलॉजी बैंक में अंडों या स्पर्म को स्टोर किया जाता है.
दरअसल, फसलों की बीजाई के मौसम तक इन्हें जीवित और स्वस्थ बनाये रखना होता है, ताकि बीजों पर इन्हें समुचित रूप से आरोपित किया जा सके. ऐसे में जब ये बीज अंकुरित होंगे, तब वे पौधे की जड़ों के रूप में जल्द-से-जल्द राइजोस्फेयर का हिस्सा बन सकते हैं. थ्रोंडसेट का कहना है कि इस प्रक्रिया के पूरा होने में एक साल का समय लगता है, लिहाजा पूरे साल में एक ही परीक्षण कर पाते हैं. इसमें अभी बहुत सी चीजों को ठीक करना है.
इन फसलों को उगाने से कुछ दिनों पहले माइक्रोब्स को सेंट लूइस स्थित मोनसेंटो की प्रयोगशाला में भेज दिया जाता है, जहां स्टील के बडे कटोरों में बीजों पर इनका स्प्रे किया जाता है.
वर्ष 2014 में मोनसेंटो ने सैकड़ों विविध माइक्रोबियल स्ट्रेंस से कोटेड बीजों की 1,70,000 प्लाटों में बीजाई की. वर्ष 2015 में कंपनी ने इसका दायरा बढ़ाते हुए दो हजार से ज्यादा प्रकार के माइक्रोब्स पर पांच लाख खेतों में इसका ट्रायल किया. प्रत्येक टेस्ट प्लॉट के अलावा, कंपनी ने ऐसे खेतों को भी चिह्नित कर रखा है, जिनमें बिना माइक्रोब वाले बीजों से पौधे उगाये गये हैं, ताकि उसके असर की सटीक जांच की जा सके.
माइक्रोब्स के असर से प्रति एकड़ ज्यादा उपज
अक्तूबर और नवंबर, 2015 में फसलों की हारवेस्टिंग के दौरान शोधकर्ताओं ने अनाज की बालियों में दानों को गिना, ताकि माइक्रोब्स के असर को समझा जा सके. दो हजार से ज्यादा कोटिंग वाले बीजों का खास असर नहीं देखा गया. लेकिन मक्का के पांच प्रमुख किस्मों और सोयाबीन की पैदावार में इसका व्यापक असर देखा गया.
इनकी पैदावार में औसतन डेढ़ से लेकर पांच बुशेल तक की बढ़ोतरी देखी गयी. बुशेल अमेरिका में सूखे अनाजों को मापने का एक तरीका है, जिसके तहत करीब 35.2 लीटर की क्षमता वाले एक बड़े बर्तन का इस्तेमाल किया जाता है और उसमें सूखा अनाज भर कर मापा जाता है. चैपल हिल स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ कैरोलिना में प्लांट माइक्रोबायोम का अध्ययन कर रहे वैज्ञानिक जेफ डेंगल ने आरंभिक नतीजों को उत्साहजनक बताया है.
हालांकि, वे इस फील्ड ट्रायल से नहीं जुड़े हुए हैं, फिर भी उनका कहना है कि नियमित रूप से सात सालों तक इसका फील्ड ट्रायल होने और उनके आंकड़ों के विश्लेषण के पश्चात ही इसे भरोसेमंद समझा जायेगा. हमें लगातार कई सालों तक इसके आंकड़ों पर नजर रखना होगा, उसके बाद ही इसकी पूरी तस्वीर हमारे सामने आ सकती है और हम यह जान पायेंगे कि कौन-कौन से माइक्रोब्स हमारे लिए बेहतर हैं.
जानें क्या है बीजों की माइक्रोब्स कोटिंग
एग्रीबिजनेस फर्म्स नोवोजिम्स और मोनसेंटो माइक्रोब्स से बीजों की कोटिंग कर रहे हैं. इन कंपनियों ने अमेरिका के कई इलाकों में इन बीजों से खेती की है और फसल पकने पर ये उसके नतीजों का विश्लेषण करते हैं. अपने ‘बायो एज एलायंस’ के जरिये ये दोनों कंपनियां माइक्रोब्स कोटेड इन बीजों की दशा-दिशा को समझने के लिए दुनिया के सबसे बड़े फील्ड-टेस्ट प्रोग्राम को अंजाम दे रही हैं.
मौजूदा खेती के सीजन में इन कंपनियों ने अमेरिका में लूसियाना से लेकर मिनीसोटा तक 2,000 से ज्यादा किस्म के माइक्रोबियल कोटिंग बीजों से व्यापक पैमाने पर (पांच लाख टेस्ट प्लॉट) विविध फसलों की बुआई की है. अब वे इस समूची प्रक्रिया का मूल्यांकन और विश्लेषण कर रहे हैं. हालांकि, इनके प्राथमिक नतीजे हासिल कर लिये गये हैं, लेकिन व्यापक नतीजों के लिए कुछ इंतजार करना होगा.
प्रारंभिक विश्लेषण से यह तो साबित हुआ ही है कि माइक्रोबियल एग्रीकल्चर प्रोडक्ट्स ने खेती में इस्तेमाल होनेवाली रासायनिक खाद और पेस्टीसाइट की मात्रा को कम कर दिया है. इसने न केवल खेती पर होनेवाले आर्थिक भार को कम किया है, बल्कि पर्यावरण को स्वच्छ बनाये रखने में भी यह प्रभावी पाया गया है. इससे किसानों को फायदा हुआ है और खेती की लागत में कमी आयी है, जबकि फसलों का उत्पादन बढ़ाने में कामयाबी मिली है.
मंगल पर माइक्रोब्स
वैज्ञानिक जब किसी ग्रह पर जीवन के होने की संभावनाओं की बात करते हैं, तो वे वहां विज्ञान कथाओं में वर्णन किये गये परग्रहियों की नहीं, बल्कि माइक्रोब्स के होने की बात करते हैं. ‘नासा’ के वैज्ञानिकों ने हाल के वर्षों में मंगल की मिट्टी के नीचे विचित्र किस्म के माइक्रोब्स होेने की पुष्टि की है.
मंगल के चारों ओर पायी जाने वाली मीथेन की धुंध का कारण इन्हें ही बताया गया है. मंगल के नजदीक तक पहुंचे अंतरिक्ष यान ने यह पाया कि मीथेन गैस इस ग्रह के चारों ओर फैली हुई है. वैज्ञानिकों का मानना है कि यह खोज इस लिहाज से ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि मंगल पर पाये जाने वाले माइक्रोब्स अब भी जिंदा हैं.
हालांकि, कुछ वैज्ञानिकों का यह मानना है कि इस ग्रह पर बनने वाले मीथेन संभावित तौर पर पाये जाने वाले सक्रिय ज्वालामुखियों में होने वाली प्रक्रियाओं के कारण पैदा होती है, लेकिन मंगल पर अब तक कोई सक्रिय ज्वालामुखी देखा नहीं गया है. विशेषज्ञों का मानना है कि मंगल पर पायी जाने वाली मीथेन जमीन के नीचे पाये जाने वाले माइक्रोब्स का वेस्ट प्रोडक्ट हो सकते हैं. ये माइक्रोब्स अब तक जिंदा हैं, क्योंकि यदि ऐसा नहीं होता, तो मंगल के वायुमंडल में मीथेन इतने लंबे समय तक नहीं रह सकती थी.
वर्ष 2050 तक दुनिया की आबादी के नौ अरब तक पहुंच जाने का अनुमान है. इतने लोगों का पेट भरने के लिए हमें खेती की पैदावार को उस समय तक करीब दोगुना करना होगा. दोगुना इसलिए, क्योंकि उस समय तक खेती में क्लाइमेट चेंज जैसी बाधाएं भी आ सकती हैं. अकाल, बाढ़, मिट्टी में बढ़ रही लवणता और मिट्टी के क्षरण जैसी समस्याएं इस दिशा में नयी चिंता पैदा कर रही है. बहुत से कीटाणु और रोगाणु अनेक कीटानाशकों के खिलाफ अपनी प्रतिरोधी क्षमता को विकसित कर रहे हैं. केमिकल खाद इस समस्या से कुछ हद तक ही निबटने में सक्षम पाये गये हैं.
कुछ अध्ययनों में तो यहां तक दर्शाया गया है कि इनसानों में बढ़ रही बीमारियों के कारणों में प्रदूषित हो रहे भूजल का योगदान बढ़ता जा रहा है. साथ ही इसका असर नदियों और समुद्रों में भी देखा जा रहा है. ऐसे में वैज्ञानिकों को यह उम्मीद है कि माइक्रोब्स इनका बेहतर विकल्प बन सकते हैं.इससे बड़ी कंपनियों का अर्थशास्त्र भी बदल सकता है. नेचुरल पेस्ट कंट्रोल, प्लांट एक्सट्रेक्ट और फायदेमंद इनसेक्ट्स जैसी एग्रीकल्चरल बायोलॉजिकल्स चीजों का बाजार आज सालाना 2.9 बिलियन डॉलर तक पहुंच चुका है. मोनसेंटो का मानना है कि माइक्रोबियल मार्केट में तेजी से उभार आ सकता है. माइक्रोबियल्स के विकास का चक्र काफी तेज होता है और खेती के अन्य उत्पादों की भांति इसमें नियमित बाधाएं कम हैं. और यदि हम फर्टिलाइजर्स और पेस्टीसाइड्स पर निर्भरता को कम करते जायें, तो इसके अच्छे नतीजे सामने आ सकते हैं.
खेती में केमिस्ट्री की बजाय माइक्रोबायोलॉजी की भूमिका
इस शोध ने खेती में केमिस्ट्री की भूमिका की जगह माइक्रोबायोलॉजी के इस्तेमाल को प्रतिस्थापित करते हुए एक क्रांतिकारी शुरुआत की है. नोवोजिम्स के बायो-एज रिसर्च के वाइस प्रेसिडेंट थॉमस शेफर का कहना है कि इस संबंध में खेतों में किया गया परीक्षण बेहद अहम है.
थॉमस शेफर के मुताबिक, ‘खेतों में किये गये परीक्षण ग्रीनहाउस में किये गये परीक्षण से ज्यादा व्यापक होते हैं और इनसे बेहतर नतीजे हासिल किये जा सकते हैं. चूंकि खेतों में विविधता और जटिलता ज्यादा होती है, इसलिए हमें इन बीजों का परीक्षण खेतों में ही करना होता है.’
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