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देश के स्कूलों में ड्रापआउट बड़ी समस्या

।। श्रीश चौधरी ।। उपेक्षित रही है शिक्षा, बदलने होंगे हालात भारत की स्कूली शिक्षा में बहुत बड़ी समस्या ड्रॉप-आउट की है. जितने बच्चे गांव शहर समाज में हैं, एक तो सभी स्कूल आते नहीं हैं, उतने स्कूली शिक्षा समाप्त नहीं कर पाते हैं. अनेक कारणों से काफी बच्चे बीच में पढ़ाई छोड़ देते हैं. […]

।। श्रीश चौधरी ।।

उपेक्षित रही है शिक्षा, बदलने होंगे हालात

भारत की स्कूली शिक्षा में बहुत बड़ी समस्या ड्रॉप-आउट की है. जितने बच्चे गांव शहर समाज में हैं, एक तो सभी स्कूल आते नहीं हैं, उतने स्कूली शिक्षा समाप्त नहीं कर पाते हैं. अनेक कारणों से काफी बच्चे बीच में पढ़ाई छोड़ देते हैं. वे ड्रॉपआउट कर जाते हैं. इन ड्रॉप आउट करनेवाले बच्चों में लड़कियों की संख्या अनुपात से अधिक है व प्रगति की इच्छा रखनेवाले समाज के लिए चिंता का विषय है.

ड्रॉप आउट के अनेक कारण हैं. समाज व परिवार में चेतना का अभाव, परिवार की गरीबी, परिवार में पढ़ाई के लिए बुनियादी सुविधा जैसे स्थान व प्रकाश तथा पुस्तक-पेंसिलादि का अभाव. अत्यंत गरीब परिवारों के बच्चे स्कूल नहीं जाकर आर्थिक उद्यम में लग जाते हैं. लड़कियों को शिक्षा में और भी बाधाएं हैं. पढ़-लिख कर भी तो रोटियां ही पकाती हैं. बाकी, मानसिकता सबसे बड़ी बाधा है.

एक औसत परिवार में लड़कों की अपेक्षा लड़कियों को घर पर भी अधिक काम करना पड़ता है. उनकी शिक्षा में परिवार का अपेक्षाकृत उत्साह भी कम रहता है, पढ़ाई के लिए घर में सुविधाएं भी कम रहती हैं. ग्रामीण क्षेत्र में यह समस्या बहुत अधिक गंभीर है. निम्नांकित आंकड़े देखें.

ग्रामीण क्षेत्र में यह समस्या कुछ अधिक गंभीर है. यद्यपि 2009 में संसद द्वारा शिक्षा के अधिकार का कानून बनने के बाद इस स्थिति में अंतर आना चाहिए था. इस कानून के अनुसार छह से चौदह वर्ष तक के बच्चों के लिए नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा सरकार की जिम्मेदारी है. निजी स्कूलों को भी 25% सीट समाज के गरीब बच्चों के लिए आरक्षित करने का आदेश है.

वीपी मंडल विवि के समाजशास्त्र विभाग में प्रोफेसर तथा बाल अधिकार विषय के विशेषज्ञ डॉ विनय कुमार चौधरी के अनुसार देश में अभी भी ढाई करोड़ से अधिक बाल मजदूर हैं. डॉ चौधरी के आकलन के अनुसार स्वयं दिल्ली में विद्यालय वंचित बच्चों की संख्या 51 हजार से भी अधिक है. देहाती क्षेत्रों में स्थिति कितनी अधिक चिंताजनक होगी, इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है.

आंकड़ों से ऐसा लगता है लड़कियों की कुल संख्या का एक छोटा ही भाग स्कूल आता है और उस छोटे भाग का एक और छोटा अंश ही स्कूल की पढ़ाई पूरी कर पाता है. यह स्थिति अवश्य व शीघ्र बदलनी चाहिए.

ऐसी समस्या से निबटने के लिए देश में सर्वप्रथम 1970 के दशक में तमिलनाडु में तत्कालीन मुख्यमंत्री एमजी रामचंद्रन की सरकार ने पहल की. बच्चों को दिन का खाना स्कूल में ही खिलाने की व्यवस्था की गयी. धीरे-धीरे वहां से फैल कर अब इस प्रकार की व्यवस्था लगभग सारे देश में की जा रही है.

बिहार में लड़कियों को स्कूली कपड़े तथा स्कूल जाने के लिए साइकिल भी दिये जा रहे हैं और इन सारी बातों का शिक्षा पर अच्छा ही प्रभाव हुआ है. परंतु इन पैसों को और इन पैसों से लाये जा रहे भोजन, वस्त्र तथा साइकिलों को बच्चों तक पहुंचाने में काफी परेशानी हो रही है व पैसों का अनुकूलतम उपयोग नहीं हो पा रहा है.

इस विषय पर शेखर प्रकाशन पटना से छपी ‘संधान एवं समाधान’ नामक पुस्तक के एक लंबे लेख में डॉ विनय कुमार चौधरी कहते हैं कि ‘100 बच्चों की उपस्थिति में 1000 बच्चों के नाम पर मध्याह्न् भोजन के अनाज और राशि का उठाव कोई छिपी कहानी नहीं है.’ (पृ 155)

(जारी)

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