प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अफ़ग़ानिस्तान से लौटते हुए अचानक लाहौर में उतरकर कई भारतीयों को ही नहीं, बल्कि पाकिस्तानियों को भी सुखद आश्चर्य में डाल दिया.
हालांकि अभी ये कहना जल्दबाज़ी होगी कि उनकी इस यात्रा से भारत और पाकिस्तान के संबंधों में निर्णायक बदलाव होगा या नहीं, लेकिन यह एक समझदारी भरा क़दम था और भारत के पहले के रुख़ से अलग था.
इस यात्रा से मोदी ने गेंद को शरीफ़ के पाले में डाल कर उन पर ये ज़िम्मेदारी दे दी है कि वो अब मुंबई हमले जैसे मुद्दों पर कार्रवाई करें.
हालांकि हालिया शांति कोशिशों को लेकर भारत में कई लोग संशय में भी होंगे, उतना ही संशय पाकिस्तान में भी है क्योंकि ये मोदी ही थे, जिन्होंने कांग्रेस की आलोचना करते हुए कहा था कि ‘ये लोग पाकिस्तान को प्रेम पत्र लिखते रहे हैं.’
वहीं दूसरी ओर पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान भी नवाज़ शरीफ़ को ‘ऑटो पायलट मोड’ में मोदी के साथ रिश्ते क़ायम करने की इजाज़त नहीं देगा क्योंकि वे मोदी पर भरोसा नहीं करते हैं.
उन्हें लगता है कि मोदी भारत को ऐसी ताक़त के तौर पर स्थापित करना चाहते है जो आस पास के छोटे देशों के आंतरिक मामले में दख़ल दे सकें.
इस सिलसिले में नेपाल में हाल के घटनाक्रम और श्रीलंका में ऐतिहासिक दख़ल के उदाहरण दिए जाते हैं.
पाकिस्तान में भारत के प्रति शक रखने वाले लोगों को शायद मोदी ने और वजह दे दी थी जब उन्होंने बांग्लादेश में दिए अपने बयान में साल 1971 में पाकिस्तान से तोड़कर अलग देश बनाने में भारत की भूमिका का ज़िक्र किया था.
ढाका में उन्होंने कहा था कि मुक्तिवाहिनी के गठन और विद्रोह में भारत की अहम भूमिका थी. उनके इस बयान से पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान को एक तर्क मिल गया कि वे भारत सरकार पर भरोसा क्यों नहीं करेंगे, ख़ास तौर पर मोदी के नेतृत्व वाली सरकार पर.
मोदी के इस बयान से हो सकता है कि भारत- बांग्लादेश संबंध मज़बूत हुए हों लेकिन इसने पाकिस्तान के अंदर उस उदारवादी सोच को कमज़ोर किया है जो भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में सुधार की पैरोकार है.
यही तबका चरमपंथियों को पाकिस्तान सेना की मदद की आलोचना करता रहा है और भारत के साथ शांति चाहता है.
वैसे पाकिस्तान के इन उदारवादी लोगों की कोशिशों को भारत के वो लोग पसंद नहीं करते जो थोड़ा सख़्त रवैया रखते हैं. लेकिन हक़ीक़त यही है कि पाकिस्तान में अमन पसंद करने वाले लोगों का मज़बूत समूह नहीं हो तो हालात को बदलना नामुमकिन होता है.
लेकिन पाकिस्तान के केवल उदारवादी लोग ही दोनों देशों के बीच बेहतर रिश्ते नहीं चाहते, बल्कि कारोबारी और व्यापारी भी बेहतर संबंध चाहते हैं. ये लोग चाहते थे कि भारत में मोदी चुनाव जीतें.
पाकिस्तानी पंजाब ही नहीं बल्कि पूरे पाकिस्तान का कारोबारी जगत चाहता था कि मोदी चुनाव जीत कर भारत में एक मज़बूत सरकार बनाएं जो चीज़ों को तेज़ी से पटरी पर ला सके.
मैंने जब इस तबके के लोगों से बात की तो कई लोग कश्मीर के मुद्दे तक को पीछे रख कर कारोबार को बढ़ाने के ख़्वाहिशमंद दिखे. उन्हें इस बात की चिंता नहीं है कि मोदी भारतीय जनता पार्टी के अंदर कट्टर राय रखने वाले लोगों के प्रतिनिधि हैं.
वैसे भी पाकिस्तान का सैन्य प्रतिष्ठान अटल बिहारी वाजपेयी के दौर को याद करता है जब करगिल युद्ध के बावजूद उन्होंने बातचीत जारी रखने की इच्छा दिखाई थी.
लेकिन रावलपिंडी में पाकिस्तान का सैन्य मुख्यालय चाहता है कि मोदी मुंबई हमले के दोषियों पर कार्रवाई की ज़िद से आगे बढ़कर समग्र वार्ता की प्रक्रिया फिर शुरू करें.
मोदी के शपथ ग्रहण समारोह के बाद कई तरह की शंकाएं थीं. ये तब था जब उन्होंने शपथ ग्रहण समारोह में दक्षिण एशिया के सभी देशों के नेताओं को आमंत्रित किया था. हालांकि उस वक्त कुछ भारतीय पत्रकारों ने भी ये माना था कि यह ‘ताजपोशी’ पड़ोसियों को प्रभावित करने की कोशिश है.
पाकिस्तान की सेना ने उस समारोह में नवाज़ शरीफ़ के जाने का विरोध किया था लेकिन शरीफ़ उसमें शामिल हुए. क्योंकि शरीफ़ भी मुख्य धारा के नेताओं की तरह ही भारत से शांति चाहते हैं.
लेकिन पाकिस्तानी सरकार की शांति की कोशिशों को धक्का लगा क्योंकि भारत की नई सरकार ने भी आक्रामकता दिखाई. इससे लगा कि मोदी ने कांग्रेस पार्टी का मज़ाक उड़ाने के लिए ‘प्रेम पत्र’ की बात नहीं की थी, बल्कि यही उनकी नीयत है.
बहरहाल, पाकिस्तान में राजनीति और सैन्य प्रतिष्ठान भारत के आक्रामक रवैए से प्रभावित नहीं है क्योंकि भारत ने उतनी क्षमता नहीं दिखाई.
उदाहरण के लिए, पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग के एक वरिष्ठ सदस्य और जाने माने राजनीतिक कार्यकर्ता आईए रहमान का मानना है कि मोदी के सामने आंतरिक समस्याएं ज़्यादा हैं और उन्हें हल करने की ज़रूरत है.
अर्थव्यवस्था के हालात बदलने के लिए ढांचागत बदलाव की ज़रूरत होगी और यह इतना आसान नहीं होगा लिहाज़ा किसी समय मोदी पाकिस्तान कार्ड खेलना चाहेंगे. लेकिन इस्लामाबाद इस बात को लेकर निश्चिंत है कि भारत उनके साथ नेपाल या श्रीलंका जैसा बर्ताव नहीं कर सकता.
किसी भी सूरत में पाकिस्तान को ‘अनुशासित करना’ उतना आसान नहीं होगा जितना लगता है. पश्चिमी देशों से मंगाए बेहतर सैन्य उपकरण के बावजूद भारत की परंपरागत सैन्य क्षमता मुश्किलों से घिरी है. नए उपकरणों से तालमेल बिठाने में सेना को समय लगेगा.
इसके अलावा दोनों देश परमाणु क्षमता से लैस हैं और लगता है कि भारत ने अभी तक इस बारे में विस्तृत योजना नहीं बनाई है कि अगर वो पाकिस्तान के ख़िलाफ़ कोई सीमित सैन्य कार्रवाई करता है तो उसके बाद के हालात से किस तरह निपटेगा.
यह सही है कि परमाणु युद्ध होने की सूरत में भारत का ज़्यादा हिस्सा सुरक्षित रह सकता है लेकिन ऐसे विध्वंस के लिए किसी राज्य और समाज को बड़ी क़ीमत चुकानी होती है.
दुखद यह है कि आम लोगों में ये उम्मीद तो खूब जगाई जाती है कि अगर पाकिस्तानी हमला या कोई चरमपंथी हमला हुआ तो करारा जवाब दिया जाएगा लेकिन उन्हें ये नहीं बताया जाता कि उधर से जवाबी कार्रवाई का कितना जोखिम है.
वैसे ये भी दिलचस्प है कि राजनयिक तौर पर पाकिस्तान को अलग-थलग करना संभव नहीं है. दुनिया इस्लामाबाद के परमाणु हथियारों की तैनाती को लेकर फ़िक्रमंद है. हालांकि पाकिस्तान को अब भी एक बिगड़ैल मुल्क नहीं माना जा सकता.
यह तब है जब पाकिस्तान में लश्कर-ए-तैयबा का नेटवर्क खुलेआम काम कर रहा है. पाकिस्तान सरकार ने लश्कर की छवि को कमज़ोर करने की कोशिश की है लेकिन उसके ढांचे को समाप्त नहीं किया है.
अंतरराष्ट्रीय समुदाय पाकिस्तान के साथ संबंध बनाए हुए है और वो भारत के आक्रामक रुख़ का इसलिए समर्थन शायद न करे क्योंकि उससे पाकिस्तान के हाथ से निकलने का जोखिम है.
दुनिया ये भी चाहेगी कि भारत अपने पुराने प्रतिद्वंद्वी से मसलों का निपटारा दोस्ताना ढंग से करे और दक्षिण एशिया में तनाव कम करे.
इसका मतलब ये नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय को मुंबई हमले के दोषियों को सज़ा दिलाने को लेकर भारत से हमदर्दी नहीं है.
लेकिन दुनिया असल राजनीति से चलती है और उसे भारत के सख़्त रवैये को लेकर भी चिंता हो सकती है. पाकिस्तान लगातार ये आरोप लगाता रहा है कि भारत भी क्षेत्र में अस्थिरता के लिए बराबर का ज़िम्मेदार है.
पूर्वी पाकिस्तान को अलग करने को लेकर नरेंद्र मोदी के बयान ने पाकिस्तान के अंदर और अंतरराष्ट्रीय समुदाय में लोगों का इस बात से ध्यान हटा लिया है कि पाकिस्तानी सेना मुख्य दोषी है.
ऐसे में मोदी की यात्रा बातचीत के दरवाज़े खोलने की दिशा में अहम क़दम है. तुरत फुरत कुछ नाटकीय होगा ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती लेकिन बात तो शुरू हुई है जिससे दोनों पक्ष शायद अमन-चैन और उससे होने वाले फ़ायदों के बारे में सोचें.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)