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‘सेंसर बोर्ड की समाज को ज़रूरत नहीं’

चिरंतना भट्ट मुंबई से, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए समानांतर फ़िल्मों के निर्देशक श्याम बेनेगल का मानना है कि सेंसर बोर्ड या सेंसरशिप की समाज को ज़रूरत नहीं है. कोई संस्था अगर समाज को बताए कि क्या देखना सही है और क्या ग़लत, तो ऐसा करने में संस्था सक्षम नहीं है. कुछ दिन पहले […]

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समानांतर फ़िल्मों के निर्देशक श्याम बेनेगल का मानना है कि सेंसर बोर्ड या सेंसरशिप की समाज को ज़रूरत नहीं है. कोई संस्था अगर समाज को बताए कि क्या देखना सही है और क्या ग़लत, तो ऐसा करने में संस्था सक्षम नहीं है.

कुछ दिन पहले 81 साल के हुए श्याम बेनेगल ने बीबीसी से ख़ास बातचीत में सेंसर बोर्ड, अच्छा सिनेमा, उनकी पसंद के निर्देशकों पर अपने विचार साझा किए.

वे कहते हैं, "मैं पहले भी सेंसर विरोधी था. मेरा यह रवैया आज भी नहीं बदला है. मैं मानता हूँ कि हर समाज में ख़ुद की ग़लतियों को ठीक करने का तंत्र होता है. लोगों को पता है उन्हें क्या देखना चाहिए और क्या नहीं."

उन्होंने कहा, "फ़िल्म बनाने वाले अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी जानते हैं. फ़िल्मों के ग़लत प्रभाव की फ़िक्र करने वाले नहीं सोचते कि ज़िंदगी पर सबसे बड़ा प्रभाव ज़िंदगी का ही होता है."

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वह मानते हैं, "फ़िल्मी दुनिया में स्पर्धा भी बहुत है, तो ज़ाहिर है कि जब सेंसर अवरोध बनता है, तो लोग अपना उल्लू सीधा करने के लिए किसी न किसी तरीक़े से फ़िल्मों में मसाला डालेंगे."

वे कहते हैं, "मुझे लगता है कि दर्शकों को कोई फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन जब सेंसर की वजह से कोई गाना या फ़िल्म चर्चा में आती है, तो रुचि बढ़ जाती है. यह चूहे-बिल्ली का खेल है. सेंसर का कोई तुक नहीं है, बल्कि वह लोगों के विचारों को और वीभत्स बनाता है."

दिबाकर बनर्जी, अनुराग कश्यप, शूजीत सरकार जैसे निर्देशकों को पसंद करने वाले श्याम बेनेगल के मुताबिक़, "अच्छी फ़िल्म वो होती हैं, जो इंद्रियों, संवेदना और बुद्धि पर असर करें. कोई भी एक पहलू अगर बाक़ी बच गया तो मुझे वह फ़िल्म इंटरटेनमेंट का पूरा पैकेज नहीं लगेगी."

फ़िल्म निर्माण में बदलाव के बारे में उनका कहना था, "आज सबसे बड़ा फ़र्क फ़िल्म शिक्षा से पड़ा है. बेहतरीन टेक्नॉलॉजी से सीखे हुए निर्देशक को और आसानी हो जाती है. 50 साल पहले काम करने वाले सब कुछ थिएटर से सीखे थे."

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उनका मानना है, "जब आज कहानी बताने की तालीम के साथ फ़िल्ममेकर के पास आधुनिक तकनीकी सहयोग भी है, तो आज बिल्कुल नया निर्देशक भी कुछ हद तक मंझा हुआ होता है."

आज लोग निर्देशक के नाम से फ़िल्में देखने जाते हैं. अब फ़िल्मों में निर्देशक भी नायक बन रहे हैं.

इस पर श्याम बेनेगल कहते हैं, "यह बदलाव काफ़ी पहले होना चाहिए था पर देर से ही सही, यह अच्छी बात है. जैसे थिएटर अभिनेता का माध्यम है वैसे ही फ़िल्म निर्देशक का माध्यम है."

वे आगे कहते हैं, "कई बड़े स्टार के नाम से लोग फ़िल्म के प्रति आकर्षित होते हैं लेकिन अंत में वो जो देख रहे हैं, वो एक निर्देशक का विज़न है. फ़िल्म की गुणवत्ता निर्देशक की सर्जनात्मकता, क्षमता और सिनेमा माध्यम की समझ से तय होती है."

उनका कहना था, "एंटरटेनमेंट की सबकी अपनी-अपनी व्याख्या है. सिर्फ़ मनोरंजन के लिए बनाई गई फ़िल्में मुझे कतई पसंद नहीं आएंगी. सिनेमा एक कला है, सिर्फ़ मनोरंजन का जरिया नहीं."

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