।। शशांक द्विवेदी ।।
(विज्ञान मामलों के लेखक)
दुनियाभर में जलवायु परिवर्तन के एक प्रमुख कारक कार्बन डाइ- ऑक्साइड के उत्सजर्न को कम करने के लिए हाल ही में 195 देशों ने पोलैंड की राजधानी वारसा में बैठक आयोजित की थी. एक समझौते के तहत सभी देशों ने अपनी ओर से इसमें योगदान दिये जाने पर सहमति जतायी. जलवायु परिवर्तन की समस्या से निबटने की दिशा में अब तक क्या प्रयास किये गये हैं और क्या है यह समझौता, इन तमाम मुद्दों पर चर्चा कर रहा है आज का नॉलेज ..
पृथ्वी के अस्तित्व पर मंडरा रहे संकट और जीवों के सतत विकास की चिंताओं से निबटने के लिए नब्बे के दशक में दुनियाभर में चिंता जतायी गयी थी. इसी कवायद के तहत 1992 में दुनियाभर के नेता ब्राजील के शहर रियो डि जेनेरियो में ‘‘अर्थ समिट ‘‘ यानी पृथ्वी सम्मेलन में एकत्र हुए थे. दुनिया के 172 देशों के प्रतिनिधियों ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा पर्यावरण और विकास के मुद्दों पर आयोजित इस वैश्विक सम्मेलन में शिरकत की थी. इस सम्मलेन में जमा हुए पूरी दुनिया के नेता पृथ्वी के अधिक सुरक्षित भविष्य के लिए जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिग जैसी समस्याओं से निपटने के लिए एक महत्वपूर्ण योजना पर सहमत हुए थे. इस सम्मेलन में यूएनएफसीसीसी- यूनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेटिक चेंज पर सहमति बनी. पर्यावरण को बचाने के लिए ‘‘क्योटो प्रोटोकॉल ‘‘ भी इसी सम्मेलन का परिणाम था. इसमें वे जबरदस्त आर्थिक विकास और बढ़ती जनसंख्या की जरूरतों के साथ हमारी धरती के सबसे मूल्यवान संसाधनों जमीन, हवा और पानी के संरक्षण का संतुलन बनाना चाहते थे. इस बात को लेकर सभी सहमत थे कि इसका एक ही रास्ता है- पुराना आर्थिक मॉडल तोड़कर नया मॉडल खोजा जाए. उन्होंने इसे टिकाऊ विकास का नाम दिया था.
दो दशक बाद हम फिर भविष्य के मोड़ पर खड़े हैं. मानवता के सामने आज भी वही चुनौतियां हैं. अब तो उनका आकार और भी बड़ा हो गया है. दो दशक बाद यह संकल्प पूरा नहीं हुआ. इस वजह से दुनिया के 195 देशों के प्रतिनिधियों ने 11 से 23 नवंबर तक पोलैंड की राजधानी वारसा में जलवायु परिवर्तन पर चल रहे अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन ‘‘कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज ‘‘ (कोप 19) में भागीदारी की. इस सम्मेलन में कोई बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं हुई, फिर भी विकसित और विकासशील देशों के बीच अगली वार्ता को लेकर एक समझौता हो गया है.
मतभेदों के बाद समझौता
वारसा जलवायु सम्मेलन में लंबे गतिरोध के बाद आखिरी क्षण में पेरिस 2015 के लिए मार्ग प्रशस्त करने वाली नयी विश्व जलवायु संधि पर सहमति बन पायी. इसके लिए सम्मेलन को एक दिन और आगे बढ़ाना पड़ा. अंतरराष्ट्रीय वार्ता के अंतिम दिन विकसित देशों की ओर से विकासशील देशों को ग्लोबल वार्मिग के असर से निपटने में आर्थिक मदद के मुद्दे को लेकर गतिरोध पैदा हो गया था. लेकिन बाद में विकसित और विकासशील देशों ने वैश्विक तापमान बढ़ने की रफ्तार कम करने के लिए मिलकर प्रयास करने पर एक समझौता कर लिया. इसके तहत सभी देशों के लिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की जरूरत तय होगी. वर्ष 2015 में यह समझौता होना है और वर्ष 2020 के बाद इसे लागू करना है. सारे वार्ताकार आखिरकार इस बात पर सहमत हुए कि सभी देशों को कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए काम करना चाहिए. कार्बन उत्सर्जन को ही गरमी बढ़ने, बाढ़, सूखा और समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी का कारण माना जा रहा है.
एक शब्द पर गतिरोध
क्योटो प्रोटोकाल के अंतर्गत केवल सर्वाधिक विकसित देशों को ही अपना उत्सर्जन कम करना था और यह एक मुख्य कारण था कि अमेरिका ने इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया था. अमेरिका कहना था कि चीन और भारत जैसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था वाले देश हर हाल में इसका हिस्सा बनें. विकासशील देशों का यह तर्क सही है कि जब वैश्विक भूमंडलीय तापवृद्धि (ग्लोबल वार्मिग) में ऐतिहासिक रूप से उनका योगदान पश्चिम के औद्योगिक तौर पर विकसित देशों के मुकाबले न के बराबर है, तो उन पर इसे कम करने की समान जवाबदेही कैसे डाली जा सकती है? जबकि वारसा में क्योटो प्रोटोकोल से उलट धनी देश सबकुछ सभी पर लागू करना चाहते थे, खासकर उभरते हुए विकासशील देशों पर. मतभेद की वजह सम्मेलन दस्तावेज में इकलौते शब्द पर केंद्रित रही. पैराग्राफ 2बी में मूलरूप से सभी देशों की जब ‘‘प्रतिबद्धता ‘‘ की बात की गयी, तो चीन और भारत के प्रतिनिधियों ने इसे तुरंत खारिज कर दिया. उन्होंने कहा कि वो इस भाषा को स्वीकार नहीं कर सकते. चीन के मुख्य समझौताकार सुवेई ने कहा, ‘‘प्रतिबद्धता केवल विकसित देशों की होनी चाहिए. उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं से केवल कार्रवाई में तेजी की अपेक्षा की जानी चाहिए. ‘‘ समय बीतता जा रहा था, निराश मंत्री और उनके सलाहकार किसी समझौते पर पहुंचने के लिए हॉल के कोने में इकट्ठा हो गये. कुछ समय बाद वे लोग ‘‘प्रतिबद्धता ‘‘ शब्द को बदलकर इसे ‘‘सहयोग ‘‘ करने पर राजी हो गये. इस लचीले शब्द पर सभी सहमत दिखे.
समझौते का मतलब
195 देशों के प्रतिनिधिमंडलों की भागीदारी में तकरीबन दो सप्ताह लंबे चले सम्मलेन का उद्देश्य एक नया जलवायु समझौता बनाने का था, जो वर्ष 2020 के बाद क्योटो प्रोटोकॉल की जगह ले सके. लेकिन सम्मलेन के प्रतिनिधिमंडलों ने इस मुद्दे पर काम शुरू तक नहीं किया. सिर्फ अगले वर्ष वार्ता जारी रखने पर सहमत दिखे. असल में इस सहमति में विवादास्पद मसलों को सुलझाने की जगह, उनकी जगह स्वीकार्य शब्दों के इस्तेमाल या उन मसलों को छोड़ने का रास्ता अपनाया गया है. 2013 से 2019 तक जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए विकसित देशों द्वारा दी जानेवाली वित्तीय मदद का कोई लक्ष्य न निर्धारित करना, इसका एक उदाहरण है.
शब्दों की इस बाजीगरी ने फौरी तौर पर थोड़ी राहत जरूर दी हो, लेकिन किसी अर्थवान समझौते तक पहुंचने में यह शायद ही मददगार हो.
जलवायु परिवर्तन पर ठोस कदमों की दरकार
पिछले दिनों जलवायु परिवर्तन पर गठित अंतर-सरकारी पैनल (आइपीसीसी) ने एक रिपोर्ट में कहा था कि अगर वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सजर्न मौजूदा दर से जारी रहा तो अगले दो-तीन दशकों में दुनिया का तापमान दो डिग्री सेल्सियस से ज्यादा तक बढ़ जायेगा. यह स्थिति प्रलय से कम खतरनाक नहीं होगी. ग्लोबल वार्मिग के दुष्प्रभावों को नियंत्रित करने के लिए जरूरी है कि कार्बन उत्सर्जन में आशातीत कमी हो. धरती का तापमान नियंत्रित हो इसके लिए जरूरी है कि वातावरण में कार्बन की मात्र में 250 अरब टन या 2.5 लाख मेगाटन से ज्यादा की वृद्धि न हो. 2.5 लाख मेगाटन कार्बन करीब नौ लाख मेगाटन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर होता है.
वैज्ञानिकों ने अलग-अलग ढंग से गणना करके यह निष्कर्ष निकाला है कि वातावरण में कार्बन की मात्र को 7.5 लाख मेगाटन तक सीमित रखा जाए, तो इस बात की 75 फीसदी संभावना है कि ग्लोबल वार्मिग को दो डिग्री सेल्सियस के दायरे में समेटा जा सकेगा. इस 7.5 लाख मेगाटन कार्बन में से पांच लाख मेगाटन कार्बन मानवीय गतिविधियों, मुख्यत: जैव ईंधन को जलाने और जंगलों को काटने के कारण, पहले ही वायुमंडल में प्रवेश कर चुका है. यानी गुंजाइश सिर्फ 2.5 लाख मेगाटन अतिरिक्त कार्बन उत्सर्जन की रह जाती है. इसके लिए जरूरी है कि वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में भारी कमी की जाए, जंगलों की कटाई कम की जाए और ऊर्जा के स्वच्छ स्नेतों को बढ़ावा दिया जाए. लेकिन पर्यावरण संरक्षण के नाम पर अब तक हम कुछ सकारात्मक नहीं कर पाये हैं. पिछले दो दशकों से वैश्विक स्तर पर कई महत्वपूर्ण सम्मेलन हुए, कई ड्राफ्ट बने, घोषणाएं हुई, लेकिन वास्तविक धरातल पर कुछ खास नहीं हुआ. पर्यावरण और कार्बन उत्सर्जन में कटौती के मुद्दे पर विकसित और विकासशील देशों के बीच आज तक कोई आम सहमति नहीं बन पायी.
असली बात यह है कि अमेरिका सहित कई विकसित
देश चाहते हैं कि विकासशील देश अपने उद्योग-धंधों की रफ्तार कम करें और कार्बन उत्सर्जन के स्तर को तेजी से नीचे लेकर आएं; जबकि विकसित देश कार्बन उत्सर्जन कटौती के मामले में अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रहें हैं. मौजूदा आर्थिक नीतियों ने विश्व की जनसंख्या के साथ मिलकर पृथ्वी की नाजुक पारिस्थितिकी पर अभूतपूर्व दबाव डाला है. इसकी वजह से अब हमें यह मानना ही होगा कि सब कुछ जलाकर और खपाकर हम संपन्नता के रास्ते पर नहीं बढ़ते रह सकते. इसके बावजूद हमने उस सहज समाधान को अपनाया नहीं है. टिकाऊ विकास का यह अकेला रास्ता आज भी उतना ही अपरिहार्य है, जितना 21 वर्ष पहले था. आज विश्व की सात अरब से अधिक हो गयी है. ग्लोबल वार्मिग और तापमान में वृद्धि लगातार जारी है. जनसंख्या बढ़ने से प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ता जा रहा है और प्राकृतिक संसाधनों के स्नेत सीमित होने के कारण भविष्य को लेकर चिंताएं बढ़ रही हैं. इसके बावजूद हमने कथित विकास की जगह वैकल्पिक समाधान को नहीं अपनाया है.
अधूरे लक्ष्य
भारत सीबीडीआर यानी कॉमन बट डिफरेंशिएटेड रेसपांसिबिलिटी का भी समर्थन करता है. यह स्थायी विकास का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो 1992 के रियो पृथ्वी सम्मेलन के संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण कानून के तौर पर सामने आया था. लेकिन उस सम्मेलन के लक्ष्य अभी भी अधूरे हैं. क्योटो प्रोटोकॉल अपना लक्ष्य पूरा करने में नाकाम रहा है और क्योटो से आगे का रास्ता धुंधला बना हुआ है. रियो, दोहा, कोपेनहेगेन और डरबन सम्मेलनों में भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सका; आगे की राह भी चुनौती भरी है.
विकसित देश पर्यावरण संरक्षण पर व्यापक स्तर पर नये सिरे से इस बदलाव के पक्ष में नहीं हैं. सवाल यह है कि वैश्विक स्तर पर पर्यावरण बचाने के लिए और क्या-क्या किया जा सकता है? असलियत यह है कि वैश्विक पर्यावरण से जुड़ी तमाम समस्याओं, जिनमें जलवायु परिवर्तन से लेकर स्वास्थ्य के लिए हानिकारक कचरे का निपटारा तक शामिल है, को लेकर अलग-अलग संधियां लागू हैं. सहभागिता और सहयोग के अंतरराष्ट्रीय नियमों पर समानांतर प्रक्रियाओं और संस्थानों के स्तर पर काफी उलझाव भरा रास्ता है और कुछ भी स्पष्ट नहीं है. 1992 से लेकर वारसा तक के शिखर सम्मेलनों के लक्ष्य अभी भी अधूरे हैं. आज आपसी विवादों के समाधान की जरूरत है. कटु सच्चाई यह है कि जब तक विश्व अपने गहरे मतभेदों को नहीं सुलझा लेता, तब तक वैश्विक कार्रवाई कमजोर और बेमानी सिद्ध होगी.
आज दुनिया भर में पर्यावरण सरंक्षण को लेकर काफी बातें, सम्मेलन, सेमिनार आदि हो रहे हैं. परंतु वास्तविक धरातल पर उसकी परिणति होती दिखाई नहीं दे रही है. आज जरूरत है ठोस समाधान की, इसके लिए एक तय समय सीमा में लक्ष्य तय होने चाहिए. आज जरूरत इस बात की है कि हम भविष्य के लिए ऐसा नया रास्ता चुनें, जो संपन्नता के आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय पहलुओं तथा मानव मात्र के कल्याण के बीच संतुलन रख सके. हमें यह बाद हमेशा याद रखना होगा कि पृथ्वी हर आदमी की जरूरत को पूरा कर सकती है लेकिन किसी एक आदमी के लालच को नहीं.
जलवायु सम्मेलनों का इतिहास
द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात जलवायु परिवर्तन को लेकर वैश्विक स्तर पर चर्चाएं प्रारंभ हुईं.1972 में स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में पहला सम्मेलन आयोजित किया गया. तय हुआ कि प्रत्येक देश जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए घरेलू नियम बनाएगा. इस आशय की पुष्टि हेतु 1972 में ही संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम का गठन किया गया और नैरोबी को इसका मुख्यालय बनाया गया.
स्टॉकहोम सम्मेलन के 20 वर्ष पश्चात ब्राजील के रियो डि जेनेरियो में संबद्ध राष्ट्रों के प्रतिनिधि एकत्रित हुए तथा जलवायु परिवर्तन संबंधित कार्ययोजना के भविष्य की दिशा पर पुन: चर्चा आरंभ की. इस सम्मेलन को रियो सम्मेलन, स्टॉकहोम 20, 92 अभिसमय और एजेंडा 21 आदि नामों से भी जाना जाता है. रियो में यह तय किया गया कि सदस्य राष्ट्र प्रत्येक वर्ष एक सम्मेलन में एकत्रित होंगे तथा जलवायु संबंधी चिंताओं और कार्ययोजनाओं पर चर्चा करेंगें. इस सम्मेलन को कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कोप) नाम दिया गया. 1995 में पहला कोप सम्मेलन आयोजित किया गया. 1995 से 2013 तक कुल 19 कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज आयोजित किये जा चुके हैं. वारसा जलवायु सम्मेलन इस तरह का 19 सम्मेलन था, इसलिए इसे कोप 19 या सीओपी 19 का नाम दिया गया.
मुख्य जलवायु सम्मेलन
रियो सम्मेलन 1992
क्योटो सम्मेलन 1997
बाली सम्मेलन 2007
कोपेनहेगेन सम्मेलन 2009
रियो 20 सम्मेलन2012
वारसा सम्मेलन 2013
ग्रीनहाउस गैस
वातावरण में 30 से ज्यादा ऐसी गैसें मौजूद हैं, जिन्हें ग्रीनहाउस गैसों की श्रेणी में रखा जा सकता है. इनमें कार्बन डाइऑक्साइड और मिथेन को सबसे नुकसानदेह माना जाता है. वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्र को बढ़ाने में प्रत्येक व्यक्ति का योगदान है. इनसान सांस के माध्यम से जो दूषित हवा बाहर छोड़ता है, वह कार्बन डाइऑक्साइड ही है. चूल्हा जलाने से निकलने वाला धुआं भी कार्बन डाइऑक्साइड है.
हालांकि, पेड़-पौधे सूरज की रोशनी में इस गैस को सोख लेते हैं. इसी वजह से हजारों वर्षो से वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ने की समस्या पैदा नहीं हुई है. मौजूदा युग में जिस तरह से उद्योग-धंधों का विकास हुआ है, उससे यह समस्या और बढ़ गयी है. साथ ही, मोटरगाड़ियों आदि से भी बड़ी मात्र में ग्रीनहाउस गैसें निकलती हैं.
खेती और पशुपालन संबंधी गतिविधियों से मिथेन गैस पैदा होती है. यह गैस ग्रीनहाउस प्रभाव पैदा करने में भूमिका तो जरूर निभाती है, लेकिन इसे कम खतरनाक माना जाता है; क्योंकि मिथेन का जीवनकाल छोटा यानी महज सात वर्षो का होता है. इसके बाद धीरे-धीरे यह गैस कार्बन डाइऑक्साइड और पानी में विघटित हो जाती है.
इसके अलावा, खतरनाक पराबैंगनी किरणों से धरती को बचानेवाली ओजोन गैस की परत में छेद होने की आशंका भी एक बड़ी चिंता का विषय है. यह खतरा क्लोरोफ्लोराकार्बन (सीएफसी) की बढ़ती मात्र से पैदा हुआ. सीएफसी उद्योग-धंधों से पैदा होनेवाली गैस है.