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ये हैं वास्तविक राष्ट्रनिर्माता

पिछले दिनों प्रख्यात वैज्ञानिक सीएनआर राव को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान- भारत रत्न से नवाजने का फैसला किया गया. प्रोफेसर राव को यह पुरस्कार उस वैज्ञानिक समुदाय को सम्मान है, जो अपने अथक परिश्रम से विज्ञान का इस्तेमाल भारत, भारतीयों और उससे भी आगे पूरी मानवता की भलाई के लिए कर रहा है. सीएनआर […]

पिछले दिनों प्रख्यात वैज्ञानिक सीएनआर राव को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान- भारत रत्न से नवाजने का फैसला किया गया. प्रोफेसर राव को यह पुरस्कार उस वैज्ञानिक समुदाय को सम्मान है, जो अपने अथक परिश्रम से विज्ञान का इस्तेमाल भारत, भारतीयों और उससे भी आगे पूरी मानवता की भलाई के लिए कर रहा है. सीएनआर राव भारत रत्न पानेवाले सिर्फ तीसरे वैज्ञानिक हैं, लेकिन आजादी के बाद राष्ट्रनिर्माण में योगदान देनेवाले वैज्ञानिकों की संख्या कहीं ज्यादा है. आजादी के बाद के दौर के ऐसे ही कुछ महत्वपूर्ण वैज्ञानिकों पर एक नजर डालता आज का नॉलेज..

विक्रम साराभाई : एक दूरदर्शी

भारत में अंतरिक्ष अनुसंधान को बढ़ावा देने में विक्रम साराभाई की भूमिका ऐतिहासिक है. 12 अगस्त, 1919 को अहमदाबाद में जन्मे साराभाई को भारत के ‘अंतरिक्ष कार्यक्रम का जनक’ कहा जाता है. इन्होंने भारत को अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में नयी ऊंचाइयों पर पहुंचाया. उन्होंने वस्त्र, औषधीय, परमाणु ऊर्जा, इलेक्ट्रॉनिक्स और कई अन्य क्षेत्रों में काम किया था. एक महान वैज्ञानिक, कामयाब उद्योगपति, उच्च स्तरीय प्रवर्तक, महान संस्थान निर्माता, कला के पारखी, सामाजिक परिवर्तन के अगुआ समेत प्रबंधन शिक्षक रहे साराभाई में इन सभी चीजों के अलावे और भी बहुत सी खूबियां थीं. साराभाई को संस्थानों के निर्माता और संवर्धक के रूप में याद किया जाता है.

कैम्ब्रिज से 1947 में देश वापसी के बाद उन्होंने अपने परिवार और मित्रों द्वारा नियंत्रित धर्मार्थ न्यासों को अहमदाबाद में अनुसंधान संस्थान को मदद मुहैया कराने के लिए तैयार किया. 11 नवम्बर, 1947 को अहमदाबाद में विक्रम साराभाई ने ‘भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला’ की स्थापना की. उस समय उनकी उम्र केवल 28 वर्ष थी.

साराभाई परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष भी रहे. उन्होंने अहमदाबाद में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी. साथ ही, भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला, अहमदाबाद; विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र, तिरुवनंतपुरम; स्पेस अप्लीकेशन्स सेंटर, अहमदाबाद; फास्ट ब्रीडर टेस्ट रिएक्टर, कलपक्कम; वेरिएबल एनर्जी साइक्लोट्रॉन प्रोजेक्ट, कोलकाता; कम्युनिटी साइंस सेंटर, अहमदाबाद; दर्पण एकेडमी फॉर परफॉर्मिग आर्ट्स, अहमदाबाद; इलेक्ट्रॉनिक्स कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड, हैदराबाद समेत यूरेनियम कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड, जादूगुड़ा, झारखंड के गठन में साराभाई ने अहम भूमिका निभायी.

डॉ विक्रम साराभाई देश को अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में आगे ले जाना चाहते थे. उनके पास एक विजन था, जिसे वे देश की सेवा और विकासकार्यों में झोंक देना चाहते थे. वे एक बेहद प्रतिभा के धनी और बहुआयामी व्यक्ति थे. न केवल विज्ञान बल्कि कला और अन्य कई विधाओं में उन्हें विशिष्टता हासिल थी. रूसी अंतरिक्ष यान स्पुतनिक की लॉन्चिंग के बाद उन्होंने भारत सरकार को अपनी ओर से प्रस्ताव दिया और अंतरिक्ष कार्यक्रम के महत्व को रेखांकित करते हुए सरकार को इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए तैयार किया.

एपीजे अब्दुल कलाम :

अग्नि की उड़ान

डॉ एपीजे अब्दुल कलाम को प्रोजेक्ट डायरेक्टर के रूप में भारत का पहला स्वदेशी उपग्रह (एसएलवी तृतीय) लांच व्हीकल बनाने का श्रेय जाता है. डॉ कलाम ने भारत के विकास स्तर को 2020 तक विज्ञान के क्षेत्र में अत्याधुनिक करने के लिए एक विशिष्ट सोच प्रदान की. डॉ कलाम 1962 में ‘भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन’ में आये थे. जुलाई, 1980 में कलाम ने रोहिणी उपग्रह को पृथ्वी की कक्षा के निकट स्थापित करने की परियोजना में अहम भूमिका निभायी थी. इस सफलता के बाद भारत भी ‘अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष क्लब’ का सदस्य बन गया. ‘इसरो लॉन्च व्हीकल प्रोग्राम’ को आगे बढ़ाने में इनका योगदान बेहद अहम माना जाता है. डॉ कलाम ने स्वदेशी लक्ष्य भेदी (गाइडेड मिसाइल्स) को डिजाइन करने में अग्रगामी भूमिका निभायी. अग्नि और पृथ्वी जैसी मिसाइल्स को स्वदेशी तकनीक से बनाने की परियोजना को उन्होंने वास्तविकता की धरातल पर लाने का काम किया. वे भारत सरकार के ‘मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार’ और देश के राष्ट्रपति भी रह चुके हैं. डॉ कलाम जुलाई, 1992 से दिसंबर, 1999 तक रक्षा मंत्री के ‘विज्ञान सलाहकार’ और ‘सुरक्षा शोध और विकास विभाग’ के सचिव थे. उन्होंने स्ट्रेटेजिक मिसाइल्स सिस्टम का उपयोग आग्नेयास्त्रों के रूप में करने का विचार दिया. परमाणु ऊर्जा के साथ मिलकर पोखरण में इन्होंने दूसरी बार परमाणु विस्फोट में अहम भूमिका निभायी. राष्ट्रपति पद पर रहते हुए इन्होंने एक अद्भुत रिकॉर्ड कायम किया और देश के प्रत्येक राज्यों समेत केंद्र शासित प्रदेशों का दौरा किया. इनका राष्ट्रपति पद का कार्यकाल 25 जुलाई, 2002 से 25 जुलाई, 2007 तक रहा. इन्हें मिसाइलमैन के नाम से भी जाना जाता है. अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में इनके व्यापक योगदान के चलते इन्हें वर्ष 1997 में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत र-’ से सम्मानित किया गया. विंग्स ऑफ फायर, इंडिया 2020- ए विजन फॉर द न्यू मिलेनियम और माई जर्नी समेत इनकी कई अन्य पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. इनका कई विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी किया गया है. कलाम को 30 विश्वविद्यालयों और संस्थानों से डॉक्टरेट की मानद उपाधि हासिल हो चुकी है.

होमी जहांगीर भाभा : परमाणु शोध के अगुवा

डॉ होमी जहांगीर भाभा भारत के एक प्रमुख वैज्ञानिक थे, जिन्होंने देश के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम की कल्पना की थी. भाभा 29 वर्ष की उम्र में भारत आये थे. इससे पहले उन्होने 13 वर्ष इंग्लैंड में बिताये थे. उस समय कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय भौतिक शास्त्र के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ स्थान माना जाता था. भाभा पढ़ाई के साथ वहां काम भी करते थे.

डॉ भाभा कैम्ब्रिज में शोध कार्य के दौरान वर्ष 1939 में कुछ दिनों की छुट्टी पर भारत आये थे. उसी दौरान द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया और उनका इंगलैंड वापस जाने का कार्यक्रम कुछ वक्त के लिए टल गया. वे बेंगलुरु के इंडियन स्कूल आफ साइंस से जुड़ गये. उस वक्त इस संस्थान के प्रमुख नोबेल पुरस्कार से सम्मानित सीवी रमन थे. वह भौतिकी विभाग में रीडर नियुक्त हुए. भाभा को 1944 में प्रोफेसर बना दिया गया. इस दौरान कुछ समय तक विक्रम साराभाई भी संस्थान से जुड़े रहे. उन्होंने संस्थान में कॉस्मिक किरण शोध इकाई की स्थापना की. इसके बाद जेआरडी टाटा के सहयोग से उन्होंने मुंबई में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च की स्थापना की. डॉ भाभा को अपने देश में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में एक क्रांति लाने का जुनून पैदा हो गया था. शायद इसे डॉ भाभा के प्रयासों का ही नतीजा कहा जा सकता है कि आज दुनिया के सभी विकसित देशों में भारत के नाभिकीय वैज्ञानिकों की प्रतिभा और क्षमता का लोहा माना जाता है.

वर्ष 1948 में उन्होंने भारतीय परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना की और अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा मंचों पर भारत का प्रतिनिधित्व किया. इसके अलावा वह कई प्रमुख अंतरराष्ट्रीय संगठनों के प्रमुख रहे.

डॉ होमी जहांगीर भाभा का जन्म 30 अक्तूबर, 1909 को एक प्रख्यात और सुविधा संपन्न पारसी परिवार में हुआ था. बचपन से ही वे कुशाग्र बुद्धि के थे. उनके परिवार वाले उन्हें कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से इंजीनियर बनाने की मंशा रखते थे. वे चाहते थे कि वतन वापसी के बाद भाभा जमशेदपुर के टिस्को में काम कर सकें. हालांकि, उनकी दिलचस्पी इंजीनियरिंग की पढ़ाई में नहीं थी. गणित और भौतिकी से उन्हें कुछ ज्यादा ही लगाव था.

डॉ भाभा ने 15 वर्ष की आयु में ही मुंबई के एक हाइस्कूल से सीनियर कैम्ब्रिज की परीक्षा अच्छे अंकों से पास की और बाद में उच्च शिक्षा के लिए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय गये. बंगलुरु में डॉ भाभा कॉस्मिक किरणों के हार्ड कंपोनेंट पर उत्कृष्ट अनुसंधान कार्य कर रहे थे, लेकिन वे देश में विज्ञान की प्रगति के बारे में बहुत ज्यादा चिंतित रहा करते थे. दरसअल, उन्हें इस बात की चिंता थी कि क्या हमारा देश उस गति से उन्नति कर रहा है, जिसकी हमें दरकार है? देश में वैज्ञानिक क्रांति के लिए बेंगलुरु का संस्थान काफी नहीं था. डॉ भाभा ने नाभिकीय विज्ञान के क्षेत्र में विशिष्ट अनुसंधान के लिए एक अलग संस्थान गठित किये जाने पर विचार किया. इसके लिए उन्होंने सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट से वित्तीय मदद मांगी. यह पूरे भारतवर्ष के लिए वैज्ञानिक चेतना और विकास का निर्णायक मोड़ था. परमाणु और इससे संबंधित अनेक क्षेत्रों में देश की प्रगति के लिए वे हमेशा अपनी ओर से पूरी तरह प्रयासरत रहे थे. 24 जनवरी, 1966 को एक विमान दुर्घटना में इनका निधन हो गया.

सीएनआर राव : शोध में शतक

हाल ही में ‘भारत र-’ से सम्मानित किये गये सीएनआर राव सॉलिड स्टेट और मटीरियल केमिस्ट्री के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक हैं. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनके 1,400 शोध पत्र और 45 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. दुनियाभर के तमाम प्रमुख वैज्ञानिक शोध संस्थानों ने राव के योगदानों को महत्वपूर्ण बताते हुए उन्हें अपने संस्थान की सदस्यता के साथ ही फेलोशिप भी दी है. उन्हें कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुके हैं. सीएनआर राव पहले भारतीय वैज्ञानिक हैं, जो शोध कार्य के क्षेत्र में सौ के एच-इंडेक्स में पहुंचे हैं. इस साल अप्रैल में उन्होंने 100 के एच-इंडेक्स (शोधकर्ता की वैज्ञानिक उत्पादकता और प्रभाव का वर्णन करने का जरिया) तक पहुंचने वाले पहले भारतीय होने का गौरव हासिल किया है. उनकी इस उपलब्धि से पता चलता है कि उनके प्रकाशित शोध कार्यो का दायरा कितना व्यापक है.

दरअसल, एच-इंडेक्स किसी वैज्ञानिक के प्रकाशित शोध पत्रों की सर्वाधिक संख्या है, जिनमें से प्रत्येक का कई बार संदर्भ के रूप में उल्लेख किया गया हो. परमाणु शक्ति संपन्न होने और अंतरिक्ष में उपस्थिति दर्ज कराने के बावजूद विज्ञान के क्षेत्र में हम अन्य देशों के मुकाबले पीछे हैं. प्रोफेसर राव ने पश्चिमी देशों के एकाधिकार को तोड़ते हुए शोधपत्रों के प्रकाशन के साथ-साथ शोध और अनुसंधान के क्षेत्र में भारत का नाम रोशन किया है. 30 जून, 1934 को बंगलुरु में जन्मे प्रोफेसर राव ने 1951 में मैसूर विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद बीएचयू से मास्टर डिग्री ली. अमेरिका से पीएचडी करने के बाद मैसूर विश्वविद्यालय से डीएससी की डिग्री हासिल की. 1963 में आइआइटी कानपुर के रसायन विभाग से फैकल्टी के रूप में जुड़कर करियर की शुरूआत करनेवाले राव 1984-94 के दौरान इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के निदेशक रह चुके हैं. ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज समेत अनेक विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफेसर समेत वे इंटरनेशनल सेंटर ऑफ मैटिरियल साइंस के निदेशक रहे. राव फिलहाल बंगलुरु के जवाहर लाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस्ड साइंटिफिक रिचर्स में कार्यरत हैं. डॉ राव न सिर्फ केवल बेहतरीन रसायनशास्त्री हैं, बल्कि देश की वैज्ञानिक नीतियों को बनाने में भी उन्होंने अहम भूमिका निभायी है. भारत-चीनी विज्ञान सहयोग को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाने के लिए उन्हें इसी वर्ष चीन के सर्वश्रेष्ठ विज्ञान पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. राव को दुनिया के 60 विश्वविद्यालयों से डॉक्टरेट की मानद उपाधि मिल चुकी है.
(इनपुट : शशांक द्विवेदी)

एम एस स्वामीनाथन : हरित क्रांति के सूत्रधार

मौजूदा समय में राज्य सभा सदस्य डॉ एमएस स्वामीनाथन को देश में हरित क्रांति का जनक कहा जाता है. स्वामीनाथन पौधों के जेनेटिक वैज्ञानिक रह चुके हैं. आज हमारा देश अनाज के मामले में बहुत हद तक आत्मनिर्भर होने के साथ ही सवा अरब से ज्यादा लोगों का पेट भरने के साथ अनेक खाद्य पदार्थो का निर्यात करने में भी सक्षम है, तो इसके पीछे स्वामीनाथन का अहम योगदान माना जा सकता है. देश की आजादी के तकरीबन एक-डेढ़ दशक बाद देश में अनाज की बेहद किल्लत हो गयी थी. भारत को शुरू से ही गांवों का देश माना जाता रहा है. उस दौरान हालात कुछ भुखमरी की तरह हो चुके थे. भारत के संबंध में यह भावना बन चुकी थी कि कृषि से जुड़े होने के बावजूद भारत के लिए भुखमरी से निजात पाना कठिन है. इसका कारण यही था कि भारत में सदियों से चले आ रहे खेती के पुराने उपकरणों और बीजों का इस्तेमाल होता आ रहा था. फसलों की दशा और उनकी उपज में सुधार के लिए बीजों में सुधार की ओर किसी ने खास ध्यान नहीं दिया. देश में अनाज की किल्लत के उस बुरे दौर में स्वामीनाथन ने देश को भूख से निजात दिलाने का बीड़ा उठाया.

इसी कवायद के तहत वर्ष 1966 में उन्होंने मैक्सिको के बीजों को पंजाब की घरेलू किस्मों के साथ मिश्रित करके अधिक पैदावार वाले गेहूं के संकर बीज विकसित किये. उसके बाद देश में गेहूं की पैदावार में लगातार बढ़ोतरी होती रही. इसलिए स्वामीनाथन को भारत में हरित क्रांति का जनक माना जाता है.

विज्ञान एवं अभियांत्रिकी के क्षेत्र में भारत सरकार ने 1967 में इन्हें पद्म श्री, 1972 में पद्म भूषण और 1989 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया था. लंदन की रॉयल सोसायटी समेत दुनिया की 14 प्रमुख विज्ञान परिषदों ने एम एस स्वामीनाथन को अपना मानद सदस्य चुना है. 1961 से 1972 तक वे इंडियन एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट के निदेशक और 1972 से 79 तक इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च के महानिदेशक रह चुके हैं. वर्ष 1971 में स्वामीनाथन को रेमन मैगसेसे पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया.

सतीश धवन : अंतरिक्ष तक पहुंचने का स्वप्न

सतीश धवन को देश के प्रसिद्ध रॉकेट वैज्ञानिक के तौर पर जाना जाता है. देश के अंतरिक्ष कार्यक्रम को नयी ऊचाईयों पर ले जाने में इनकी अहम भूमिका है. एक महान वैज्ञानिक होने के साथ-साथ धवन एक प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के धनी और कुशल शिक्षक भी थे. भारतीय प्रतिभाओं पर इन्हें बहुत भरोसा था. विक्रम साराभाई के बाद इन्हें देश के अंतरिक्ष कार्यक्रम की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी. उन्होंने 1972 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के अध्यक्ष के रूप में भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के जनक विक्रम साराभाई का स्थान ग्रहण किया था. प्रोफेसर धवन ने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस में कई सकारात्मक बदलाव किये थे. उन्होंने कई नये विभाग भी शुरू किये और विभिन्न क्षेत्रों में शोध के लिए छात्रों को बढ़ावा दिया. वे अंतरिक्ष आयोग के अध्यक्ष और अंतरिक्ष विभाग, भारत सरकार के सचिव भी रहे थे. धवन ने ग्रामीण शिक्षा, सुदूर संवेदन और उपग्रह संचार पर अनेक कामयाब प्रयोग किये. उनके प्रयासों से इनसैट-एक दूरसंचार उपग्रह, आइआरएस- भारतीय सुदूर संवेदन उपग्रह और ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (पीएसएलवी) का विकास मुमकिन हुआ. इसने भारत को अंतरिक्ष की यात्र करने वाले देशों की पंक्ति में खड़ा कर दिया. पद्म विभूषण से सम्मानित प्रोफेसर धवन की मृत्यु के बाद, श्रीहरिकोटा में स्थित ‘भारतीय उपग्रह प्रक्षेपण केंद्र’ का नामकरण इन्हीं के नाम पर किया गया.

शांति स्वरूप भटनागर : संस्थाओं के संस्थापक

प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के निदेशक रह चुके शांति स्वरूप भटनागर का जन्म 21 फरवरी, 1894 को शाहपुर (मौजूदा पाकिस्तान) में हुआ था. इनका बचपन अपने ननिहाल में ही बीता और इन्होंने आरंभिक शिक्षा वहीं से हासिल की थी. इनके नाना एक इंजीनियर थे. इसके चलते विज्ञान और इंजीनियरिंग में इनकी रुचि बहुत ज्यादा थी. उन्हें मशीनी खिलौने, इलेक्ट्रॉनिक बैटरियां और तार को आपस में जोड़ते हुए टेलीफोन बनाने का शौक था. युनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन से 1921 में इन्होंने विज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की. वतन वापसी के बाद वे बीएचयू में प्रोफेसर के पद पर नियुक्त किये गये. देशभर में राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं की स्थापना के निर्माण में भटनागर का अहम योगदान माना जाता है. भटनागर को 1954 में विज्ञान और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था. जनवरी, 1955 में इनका निधन हो गया. इनकी मृत्यु के बाद भारतीय वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआइआर) ने कुशल वैज्ञानिकों के लिए वर्ष 1957 से शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार की घोषणा की थी. यह पुरस्कार वार्षिक रूप से प्रदान किया जाता है.

(स्रोत : भारत डिस्कवरी तथा अन्य वेबसाइटों से तैयार)

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