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गृहस्थ साधक

हरिवंश आज हम रोते हैं कि समाज में रोल मॉडल नहीं रहे. शायद इसलिए कि रोल मॉडल (नायक) हम नेताओं-बुद्धिजीवियों-प्राध्यापकों के बीच ढूंढते हैं. समाज के भद्र-अगुआ वर्ग में. सामान्य लोगों के बीच जो जीवित रोल मॉडल हैं, उन्हें हम जानना-पहचानना नहीं चाहते. एसके चांद वैसे ही रोल मॉडल थे. परसों दिल्ली के अपोलो अस्पताल […]

हरिवंश
आज हम रोते हैं कि समाज में रोल मॉडल नहीं रहे. शायद इसलिए कि रोल मॉडल (नायक) हम नेताओं-बुद्धिजीवियों-प्राध्यापकों के बीच ढूंढते हैं. समाज के भद्र-अगुआ वर्ग में. सामान्य लोगों के बीच जो जीवित रोल मॉडल हैं, उन्हें हम जानना-पहचानना नहीं चाहते.
एसके चांद वैसे ही रोल मॉडल थे. परसों दिल्ली के अपोलो अस्पताल में उनकी मौत हुई. पूर्णिमा के दिन. कार्तिक महीने के आरंभ में. परंपराओं में उनकी गहरी आस्था थी. इस दिन की मौत उच्च श्रेणी की आत्माओं को मिलता है, यह हिंदू मान्यता है. चांद साहब गृहस्थ साधक थे. अध्यात्म की भाषा में कहें, तो उच्च कोटि के साधक. आदर्श की दुनिया के मापदंड-कसौटी को जो जीवन में उतारे, वही समाज का रोल मॉडल हो सकता है. चांद साहब ऐसे ही रोल मॉडल थे. वह मूलत: अर्थशास्त्र के प्राध्यापक थे. फिर आइएएस बने. महत्वपूर्ण पदों पर रहे. अमेरिका-इंग्लैंड में भी रहे-पढ़े. पर आजीवन विद्यार्थी-अध्येता बने रहे. हिंदी में मोटिवेशन (प्रेरणा-प्रोत्साहन) पर उन्होंने महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी, जिसे राजकमल प्रकाशन ने छापा. अंगरेजी पर उनका अधिकार था और मूलत: अंगरेजी में लिखते थे. अगर अंगरेजी में यह पुस्तक लिखते, तो उन्हें बड़ी रकम मिली होती, पर उन्होंने हिंदी में ही लिखी. जान-बूझ कर, क्योंकि उनकी मान्यता थी कि गांवों के गरीब बच्चे अपनी भाषा में अगर ऐसी चीजों को नहीं पढ़ेंगे, तो समाज नहीं बदलेगा.
रांची से हिंदी में बेहतर अखबार निकले, हम साथी इस अभियान में लगे थे. 15 वर्षों पहले. बजट, अर्थव्यवस्था, नौकरशाही, सरकारी योजनाएं, सरकारी व्यवस्था, भ्रष्टाचार, आदिवासी, गरीब, हिंदी पत्रकारिता में गंभीर बहस-विवेचन के विषय बनें. इसके लिए लोग हमलोग स्थानीय अनुभवी प्रतिभाएं ढूंढ रहे थे. इस खोज के पुल पर ही एसके चांद से मुलाकात हुई. अपने दफ्तर के वरिष्ठ सहयोगी मधुकरजी के सौजन्य से. पहली भेंट में न वह बहुत खुले, न आदतन हम. वह एक औपचारिक भेंट थी. पहली मुलाकात में वह नीरस व्यक्ति लगे, मेरी ही तरह. बिना लाग-लपेट के शिष्टता से अपनी बात कहना, पर अत्यंत तीक्ष्ण विवेचन शक्ति और बौद्धिक प्रतिभा के धनी. उनमें एक अद्भुत नैतिक बल था. तब सोचा भी न था कि चांद साहब मेरे जीवन पर अमिट छाप छोड़ेंगे. आज स्वर्णरेखा नदी के किनारे उनकी चिता से उठती लपटों में, अपना भी एक अंश इस तरह लौ को समर्पित हो जायेगा, इसका एहसास नहीं था. जन्मना उसने कोई रिश्ता-नाता नहीं था. कर्मणा एक ही परिवार, कुल, गोत्र, संप्रदाय की हमारी दुनिया थी.
पहली मुलाकात के बाद एक दिन उन्होंने घर फोन किया. कहा – आपके कहे अनुसार लेख लिखा है. आपका दफ्तर दूर है. क्या घर आ कर दे सकता हूं? तुरंत आने का अनुरोध किया. आये, खड़े-खड़े लेख दिया और लौट गये. तब जाना, वह न किसी के घर जल्द कुछ खाते थे, न कभी कोई भेंट स्वीकार करते थे. धीरे-धीरे उनके नैतिक आग्रह, सात्विक तेज और ईमानदार आभा की दुनिया से हम जुड़ते गये. अशोकनगर रहते हुए उनसे रोज मिलने के लिए सुबह घूमने की आदत शुरू की. मन को छू लेनेवाला उनका व्यक्तित्व था. अत्यंत महत्वपूर्ण पदों से रिटायर होने के बाद वह बिल्कुल सामान्य इंसान की तरह जीते थे. कहीं विशिष्ट होने की ग्रंथि नहीं. खुद दूध लाना, अपना काम करना. समाज के कमजोर वर्ग के लोगों के साथ उनका मानवीय व्यवहार मन को छूता था. गुजरते वर्षों में धीरे-धीरे उनके व्यक्तित्व के आकर्षण में बहता गया और पाया कि आज भी भारतीय समाज में रोल माडल्स हैं, पर वे साधारण लोगों के बीच हैं. धीरे-धीरे उनके व्यक्तित्व का दूसरा पहलू देखा. वह मूलत: साधक थे. संन्यासी गृहस्थ. कहते भी थे, असली साधक ओझल रहते हैं.
वह धर्म और अध्यात्म के गहरे अध्येता थे. रामकृष्ण परमहंस को पढ़ने के लिए उन्होंने बांग्ला सीखी. इसलाम और किश्चियन धर्मों की भी उन्हें गहरी जानकारी थी. वह शिव और दुर्गा के भक्त थे. ओंकारेश्वर में तड़के तीन बजे सुबह शंकर की शवभस्म से पूजा उन्होंने देखी थी. और ऐसे अनेक वृत्तांत वह सुनाते थे. पर उनका धर्म-अध्यात्म निजी जीवन तक सीमित था. लोहरदगा में उपायुक्त की हैसियत से दंगों की बनती स्थिति को जिस सख्ती से उन्होंने नियंत्रित किया, वह उल्लेखनीय था. वहां पैसेवालों और जमीनवालों के चंगुल से आदिवासियों को निकालने का जो अभियान चलाया, वह अनुकरणीय था. लगभग 25 वर्ष पहले वह वहां के उपायुक्त थे, पर आज भी वहां के गरीब उनके घर आते थे.
वह ज्योतिष के भी गहरे जानकार थे. पर आमतौर से उनका यह पक्ष सार्वजनिक नहीं था. और न वह करना चाहते थे. इस संबंध में उनका सख्त स्वअनुशासन था. हम ज्योतिष का मजाक उड़ाते, तो बड़े यकीन के साथ कहते थे कि याद रखिए कर्मों का क्षय नहीं होता. जो भी कर्म आपने किये हैं, उसकी कीमत चुकानी होगी. बुरे कर्मों से ईश्वर भी नहीं बचा सकता. वह कहते प्रारब्ध, प्रार्थना और प्रयास ही मनुष्य के वश में है, बीमार होने के पहले चांद साहब कई लोगों को बता गये थे कि वर्ष 2004 वह पार नहीं कर पायेंगे. अपनी ज्योतिषीय गणना के आधार पर.
भारतीय संतों के बारे में उनकी जानकारी गहरी थी. भागलपुर के गंगा किनारे वह पैदा हुए थे. गंगा से उन्हें मोह था. सूफी-संतों से उन्हें प्रेम था. घूमने के बहाने रोज सुबह इन्हीं विषयों पर उनको सुनने, हम पहुंचते और नयी प्रेरणा-ऊर्जा पा कर लौटते. वह एक स्रोत सूख गया. वह गांधी के मार्मिक प्रसंग सुनाते थे. बचपन में उन्हें देखा था, उसे रोमांचक क्षण के रूप में याद करते थे. राजनीति में उनकी गहरी रुचि थी. नौकरशाही के कामकाज की वह सटीक व्याख्या करते थे. विकास से जुड़े सवालों में उनकी दिलचस्पी थी. इन विषयों पर प्रभात खबर के आग्रह पर वह लिखते थे. उनकी ख्वाहिश थी कि इस नवंबर में देवघर चल कर स्वामी सत्यानंदजी से मिलना है और अपनी पेंशन राशि का बड़ा हिस्सा नियमित वहीं देना है. अशोकनगर के पास दवा की दो दुकानों पर उन्होंने कह रखा था, कोई गरीब दवा के लिए आये, तो न लौटाना. पैसा मुझसे लेना. वह चुपचाप, गुमनाम रह कर मदद करने में यकीन करते थे, प्रचार-प्रसार से दूर. अनेक लोगों की उन्होंने चुपचाप मदद की. ऐसे अनेक काम करते हुए भी कहीं अपना नाम नहीं आने देते थे. पाया गया है कि उम्र बढ़ने के साथ-साथ इंसान बेटे, बेटी और अपने परिवार तक सीमित हो जाता है. फिर उसका सारा ध्यान अपनी निजी समस्याओं तक सिमट जाता है. मैं और मेरी दुनिया. आमतौर से हिंदू परिवारों में यह धारणा भी है कि बुजुर्ग आत्मकेंद्रित हो जाते हैं, पर चांद साहब की सबसे बड़ी खासियत थी कि वह स्वकेंद्रित नहीं थे. कभी भी अपने बाल-बच्चों, पेंशन, जीवन की दुश्वारियों, अपनी निजी परेशानियों, अस्वस्थता की चर्चा नहीं करते थे.
वह अशोकनगर में रहते थे. पशुपालन घोटाले से जुड़े कई लोग वहां रहते थे. पर बेलौस अपनी बात कहने की दृढ़ता उनमें ही थी. वह तथ्यों के सहारे बात करते थे. यह उनका आत्मिक बल था. ईमानदार जीवन की दृढ़ता और तेज.
वर्षों पहले फिराक पर रमेशचंद्र द्विवेदी की मार्मिक पुस्तक पढ़ी थी. पुस्तक में फिराक के जीवन का एक मार्मिक अनछुआ प्रसंग है. फिराक को गोपीचंद और भरथरी के गीत प्रिय थे. उनके यहां अकसर एक जोगी आया करता था. एक बार वह जोगी आया और दो-तीन दिनों तक रम गया. सुबह चार बजे जोगी उठता और रोज भरथरी और गोपीचंद के गीत गाता. ये गीत सुन कर वह चुपचाप अपने कमरे में बैठ रोते. (आज भी गांव में जहां ये जोगी गाते हैं, माताएं-बहनें रोती हैं). अचानक एक दिन सुबह वह जोगी उठा, गाते-गाते फिर रोने लगा. कहा कि जोगी कहीं एक रात से अधिक नहीं ठहरते. बाबा गोरखनाथ का आदेश है. रमता जोगी, बहता पानी. फिर वह नाच-नाच कर गाने लगा, अबकी गवनवां बहरि नहि अवनां, जोगी गा रहा था, सभी सुननेवालों की आंखों में वैराग्य के आंसू टपक रहे थे. फिराक भी रो रहे थे कि अब यह जोगी नहीं लौटनेवाला!
चांद साहब की चिता से उठती लौ में फिराक साहब और जोगी का यह दृश्य बार-बार घूम रहा था.

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