शेखपुरा भले ही आकार में छोटा जिला हो, लेकिन यह कभी बिहार की सत्ता का एक प्रमुख केंद्र होने की वजह से चर्चा में होता था. राजो सिंह यहीं से चुनाव जीतते रहे. शेखपुरा अवैध पत्थर खनन के लिए जितना बदनाम रहा, उतना ही जातीय तनावों व हिंसा के लिए भी. लेकिन, अब शेखपुरा बदल रहा है. प्रभात खबर के स्पेशल सेल के संपादक अजय कुमार ने लखीसराय से आगे बढ़ कर शेखपुरा के आर्थिक व राजनीतिक हालात का जायजा लिया.
पहाड़ कटते रहे. नोट बरसते रहे. पहाड़ का कटना बंद हो गया, तो नोटों का बरसना भी बंद. लखीसराय में बालू तो शेखुपरा में पहाड़ अर्थव्यवस्था को चलाते-बढ़ाते रहे हैं. खेती अपनी जगह पर तो है ही. वैसे, शेखपुरा की पहचान प्याज से होती है. यहां के गुलाबी प्याज की मांग बाहर में काफी है.
हम बात पहाड़ की कर रहे हैं. कह सकते हैं कि पहाड़ ने शेखपुरा में समृद्धि के कई-कई टापू खड़े कर दिये. साइकिल से चलने वाले कुछ लोग स्कार्पियों से चलने लगे. बोतल बंद पानी की मांग बढ़ गयी. जो चालाक थे, चीजों को मैनेज करना जानते थे, उनके घर पैसा बरसने लगा.
शहर के महेश कहते हैं- दस साल में पहाड़ से खूब पैसा निकला. पैसा आया तो बाजार में रौनक बढ़ गयी. गरीब आदमी वहीं का वहीं रह गया. वही मुफलिसी. उसकी किस्मत नहीं बदली. पहाड़ ने जिन लोगों की तकदीर बदल दी, वैसे लोगों के बारे में यहां लोग एक-एक बताते हैं.
यहां 2003 से पहाड़ों की कटाई शुरू हुई थी. 2014 वैध-अवैध तरीके से पहाड़ काटे गये. इसी बीच सुप्रीम कोर्ट ने 2009 में नये लीज पर पाबंदी लगा दी और पहाड़ काटने के लिए एक गाइड लाइन जारी कर दी. नये गाइड लाइन के अनुसार नीलामी हो चुकी है. माइंस डिपार्टमेंट ने वैसे 225 भूखंडों की पहचान की है, जिसे इस साल जनवरी में लीज पर दिया गया है.
सरकार को 45 करोड़ रुपये मिले. पर, पर्यावरण विभाग से एनओसी नही मिलनेसे पहाड़ों की कटाई नहीं हो रही है. विभाष राय बताते हैं- जब पहाड़ कट रहे थे, तब हर दिन डेढ़-दौ सौ ट्रकों से गिट्टी की ढुलाई होती थी. फर्जी चालान पर खूब गिट्टी ढोये गये. पहाड़ को लूटने में सब शामिल हो गये. इसमें सबकी हिस्सेदारी फिक्स थी. पहाड़ फिक्स (जड़), पैसा फिक्स (तय). सब कुछ फिक्से-फिक्स. पहाड़ काटनेवाले कई लोग राजनीति में आ गये.
दोपहिया की बिक्री गिरी
पहाड़ कटे तो यहां दोपहिया गाड़ियों की मांग कम हो गयी. एक नामी दोपहिया गाड़ियों के प्रोपराइटर अशोक कुमार बताते हैं : पहाड़ जब से कटना बंद हुआ है, बिक्र ी में गिरावट आयी है. पहले हर महीने सौ गाड़ी निकल जाती थीं. अब उसमें गिरावट आयी है. पहाड़ जब कट रहे थे, तो बीस परसेंट सालाना ग्रोथ के हिसाब से गाड़ियां निकल रही थीं.
अशोक मानते हैं कि पत्थर का कारोबार आर्थिक तौर पर पैसों के ट्रांजेक्शन का बड़ा जरिया बन गया था. अब सब कुछ प्रभावित हो गया है. पहाड़ की वजह से कई लोग समृद्ध बने.
राजो सिंह के नाम के बिना लड़ा जा रहा चुनाव
शेखपुरा के चुनावी आंगन में 43 साल बाद राजो सिंह के नाम का कोई जिक्र नहीं है. बिहार की राजनीति में राजो सिंह का लंबे समय तक प्रभाव रहा. शेखपुरा-बरबीघा में राजनीति की राह राजो सिंह से होकर ही गुजरती थी.
2005 के सितंबर में राजो सिंह की हत्या के बाद उसी साल हुए चुनाव में उनकी पुत्रवधू सुनीला देवी यहां से कांग्रेस की उम्मीदवार थीं. चुनाव में उनकी जीत हुई थी. 2010 के चुनाव में दोबारा खड़ी हुई. उनके बेटे लोजपा से बरबीघा में उम्मीदवार थे. दोनों हार गये.
इस चुनाव में बरबीघा से राजो सिंह के पोते सुदर्शन कांग्रेस के उम्मीदवार हैं. सुनीला देवी के पति संजय कुमार की मौत नरसंहार के एक मामले में सुनवाई के दौरान हार्ट अटैक से कोर्ट में ही हो गयी थी.
देवानंद सिंह कहते हैं – उनके नाम के बिना कोई चुनाव नहीं होता था. समर्थक हो या विरोधी, सबको उनका नाम लेना पड़ता था. सितंबर 2005 में उनकी हत्या स्थानीय कांग्रेस आश्रम में अपराधियों ने गोली मारकर कर दी थी.
राजो सिंह बरबीघा के हथियामा गांव के रहने वाले थे. वह प्राइमरी स्कूल में टीचर थे 1952 से 72 तक गांव के प्रधान रहे. उसके बाद पहली बार निर्दलीय विधायक बने. लगातार छह टर्म विधायक रहे. 1998 और 2004 में बेगूसराय से लोकसभा के लिए चुने गये. उनका गांव पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के गांव मउर के करीब है.
छह ब्लॉक वाले शेखपुरा को जिला बनवाने का श्रेय राजो सिंह को दिया जाता है. शेखपुरा कुछ साल पहले तक अपराध के लिए जाना जाता था. कई गिरोह थे. यहां दो-दो बीडीओ मारे गये. टाटी नरसंहार को याद कर अब भी लोग भयभीय हो जाते हैं. लेकिन, अब स्थिति बदली है.