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राजनीतिक संस्कृति में भी बदलाव की जरूरत

नवीन प्रसाद नयी दिल्ली से मुङो लगता है कि बिहार में राजनीतिक संस्कृति में भी बदलाव लाने की जरूरत है. दलीय निष्ठा, सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता, मूल्यों से जुड़ाव जैसी चीजें हमलोगों ने स्कूलों व कॉलेजों में पढ़ी थी. लेकिन, आज की राजनीति में ये चीजें ओझल होती दिख रही हैं. अब इस चुनाव को […]

नवीन प्रसाद
नयी दिल्ली से
मुङो लगता है कि बिहार में राजनीतिक संस्कृति में भी बदलाव लाने की जरूरत है. दलीय निष्ठा, सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता, मूल्यों से जुड़ाव जैसी चीजें हमलोगों ने स्कूलों व कॉलेजों में पढ़ी थी. लेकिन, आज की राजनीति में ये चीजें ओझल होती दिख रही हैं. अब इस चुनाव को ही लीजिए. चुनाव की आहट जब से शुरू हुई है, तब से राजनीतिक दलों में भगदड़ की स्थिति मची है. जिसको जहां से टिकट मिलने की गारंटी है, वह वहीं चला जा रहा है.
रातो-रात दल बदल रहे हैं, दिल बदल रहे हैं. गोया ऐसा लगता है कि राजनीति का अंतिम और एकमात्र मकसद किसी तरह विधानसभा का टिकट पा लेना है. यह संस्कृति बिहार को किस गर्त में ले जायेगी, इस पर सोचने की जरूरत है. इसका असर उन युवाओं पर किस रूप में पड़ेगा, जो राजनीति में आकर देश, समाज, अपने राज्य के लिए कुछ करने की इच्छा रखते हैं. राजनीतिक दलों को भी देखिए कि किस तरह बगैर जाने-समङो किसी को भी अपने दल में शामिल करा ले रहे हैं. ऐसी प्रवृत्तियों पर तो तुरंत लगाम लगाने की पहल होनी चाहिए.
बिहार को जातिवाद की जटिलताओं से भी मुक्त होना होगा. मुङो डर सता रहा है कि सभी राजनीतिक दल सार्वजनिक मंचों पर तो आदर्श की बड़ी-बड़ी बातें करती हैं, लेकिन जब टिकट बांटने और वोट मांगने की बारी आती है, तो उनका झुकाव जातिवाद की ओर बढ़ जाता है. ऐसे माहौल में तो बिहार में बदलाव होने से रहा.
बिहार तभी आगे बढ़ेगा, जब इसकी चुनौतियों की पहचान होगी. एक-एक वोटर यह जाने और समङो कि बिहार के सामने कौन-कौन सी चुनौतियां खड़ी हैं और इनका मुकाबला कैसे किया जा सकता है. बिहार पर आबादी का बोझ है. इसकी रफ्तार नहीं रोकी गयी, तो विकास होकर भी क्या होगा. जो बढ़ा हुआ ग्रोथ है, वह तो बढ़ी हुई आबादी को भोजन कराने, उनकी पढ़ाई-लिखाई, उनके लिए स्वास्थ्य की सुविधाओं का इंतजाम करने और रोजगार की व्यवस्था में ही चला जायेगा. फिर आधारभूत संरचना के विकास के लिए बचेगा क्या?
मैंने अपने राज्य बिहार के गांवों में देखा है कि बच्चों में कुपोषण की दर बहुत है. लड़कियों में एनीमिया है. ये सब बातें देखने में भले ही छोटी लगें, लेकिन इनका दूरगामी असर होता है. बिहार की पूंजी उसका मानव संसाधन है. यदि बच्चे कुपोषित होंगे, तो उनका मानसिक व शारीरिक विकास रुक जायेगा. वे बिहार के भविष्य हैं. फिर बिहार को आगे ले जाने में उनका क्या योगदान होगा. विडंबना यह है कि इन सब मुद्दों को छोड़ कर बिहार के राजनेता और राजनीतिक दल तरह-तरह के प्रपंच में पड़े हैं.
नेताओं और पार्टियों का जो समय विकास की बात करने, उसके अनुकूल सोच विकसित करने और विकास का मॉडल तैयार करने में लगा चाहिए वह एक-दूसरे पर आरोप लगाने में बरबाद हो रहा है. इसे रोका नहीं गया, तो बिहार पिछड़ा राज्य बन कर रह जायेगा.
नेताओं को राजनीति के पुराने तौर-तरीकों से बाहर निकलना होगा, क्योंकि दुनिया तेजी से बदल रही है. मेरे जैसे हजारों युवा, जो मजबूरी में बिहार से बाहर रहे हैं, वे सभी बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर बहुत उत्सुक हैं. दिल्ली में भी हम सबके बीच जब बातचीत होती है, तो उसमें बिहार विधानसभा चुनाव से जुड़ी आकाक्षांए भी प्रकट होती हैं.
सबको उम्मीद है कि इस बार बिहार के सभी क्षेत्रों के मतदाता जो भी प्रतिनिधि चुनेंगे, वह जाति-धर्म और तमाम तरह के पूर्वाग्रहों से ऊपर उठ कर सिर्फ और सिर्फ विकास के बारे में सोचेगा. ऐसे प्रतिनिधि चुने जायेंगे, तो फिर सरकार भी बेहतर बनेगी. जब सरकार बेहतर बनेगी, तो निश्चित तौर पर बिहार का भी विकास होगा.
दुनिया तेजी से बदल रही है. चारों ओर काफी तरक्की हुई है. दूसरे राज्य हमसे काफी आगे निकल रहे हैं. राज्य में जब बड़े-बड़े उद्योग लगेंगे, तभी बिहार के युवाओं को रोजगार मिल सकेगा और उनकी प्रतिभा का इस्तेमाल हो सकेगा.

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