रजनीश उपाध्याय
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समाजवादी : कभी टूटे तो कभी जुड़े
रजनीश उपाध्याय समाजवादियों ने स्वतंत्रता संग्राम के समय ही बिहार को प्रयोगस्थल बनाया था. इस वजह से बिहार से कई नेता उभरे, जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कई आंदोलनों का नेतृत्व किया. उनमें योगेंद्र शुक्ल, जयप्रकाश नारायण, रामनंदन मिश्र, रामानंद तिवारी, कपरूरी ठाकुर, बसावन सिंह, सूरज नारायण सिंह आदि प्रमुख हैं. डॉ राममनोहर लोहिया, आचार्य जेबी […]
समाजवादियों ने स्वतंत्रता संग्राम के समय ही बिहार को प्रयोगस्थल बनाया था. इस वजह से बिहार से कई नेता उभरे, जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कई आंदोलनों का नेतृत्व किया. उनमें योगेंद्र शुक्ल, जयप्रकाश नारायण, रामनंदन मिश्र, रामानंद तिवारी, कपरूरी ठाकुर, बसावन सिंह, सूरज नारायण सिंह आदि प्रमुख हैं. डॉ राममनोहर लोहिया, आचार्य जेबी कृपलानी, अशोक मेहता, जार्ज फर्नाडीस जैसे राष्ट्रीय स्तर के नेताओं को भी बिहार ने आंदोलन की जमीन दी. कांग्रेस के भीतर प्रगतिशील तत्वों ने 17 मई, 1934 को पटना में कांग्रेस समाजवादी दल की स्थापना की थी.
1952 के पहले आम चुनाव में समाजवादियों को निराशा हाथ लगी. सोशलिस्ट पार्टी ने लोकसभा के लिए 47 और विधानसभा के लिए 247 प्रत्याशी खड़े किये थे. तब जयप्रकाश नारायण को लग रहा था कि बिहार में सरकार बन जायेगी. लेकिन, चुनाव परिणाम ने उन्हें निराश किया. तीन सांसद और 24 विधायक चुने गये. कांग्रेस के मुकाबले यह संख्या काफी कम थी. पहले चुनाव में कांग्रेस को 223 सीटें मिली थीं. जेबी कृपलानी के नेतृत्व वाले किसान मजदूर प्रजा पार्टी को कोई सीट नहीं मिली. इस चुनाव परिणाम ने समाजवादियों को एक मंच पर आने की ओर प्रेरित किया. सोशलिस्ट पार्टी और किसान मजदूर प्रजा पार्टी का विलय हुआ और नया दल प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (प्रसोपा) का गठन हुआ. हालांकि सोशलिस्ट पार्टी का भी अस्तित्व बना रहा. विलय के बाद बनी नयी पार्टी ने राष्ट्रीयता, प्रजातंत्र, सामाजिक परिवर्तन और शांतिपूर्ण वर्ग संघर्ष के जरिये समाज में गैर बराबरी को खत्म करने का संकल्प लिया.
डॉ राम मनोहर लोहिया कांग्रेस के खिलाफ एक विकल्प देने के पक्षधर थे. वे प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के महासचिव थे, लेकिन उनका जेबी कृपलानी और अशोक मेहता से वैचारिक मतभेद उभरा. 1955 में मधु लिमये और अशोक मेहता के बीच मतभेद हुआ. दिसंबर, 1955 में लोहिया ने एक अलग दल का गठन कर लिया. अंत में पार्टी का विभाजन हो गया और समाजवादियों का एक बड़ा भाग प्रसोपा में रहा, जबकि एक धड़ा सोशलिस्ट पार्टी के रूप में काम करने लगा. तब तक जयप्रकाश नारायण भी सक्रिय राजनीति से अलग होकर भूदान आंदोलन के साथ जुड़ गये.
1957 के दूसरे चुनाव में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (प्रसोपा) के 31 और सोशलिस्ट पार्टी के सिर्फ दो विधायक चुने गये. तीसरे आम चुनाव (1962) में प्रसोपा की संख्या घट कर 29 हो गयीं. सोशलिस्ट पार्टी को सात सीटें मिलीं.तीसरे चुनाव के बाद भी समाजवादियों के बीच एकता व विलय की कोशिश और फूट व मतभेद का सिलसिला कायम रहा. प्रसोपा से अशोक मेहता निकाले गये, तो इसकी प्रतिक्रिया बिहार समेत कई राज्यों में हुई. 1964 में प्रसोपा तीन भागों में बंट गयी.
मेहता समेत कई नेता कांग्रेस में चले गये. बाद में मेहता विरोधी खेमा ने सोशलिस्ट पार्टी के साथ मिल कर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) का गठन किया. तीसरा खेमा एच वी कामत के नेतृत्व में प्रसोपा में बना रहा. 1965 में वाराणसी में विलय के लिए अधिवेशन बुलाया गया. यहां प्रसोपा के प्रतिनिधियों ने समानांतर अधिवेशन बुलाया और पूर्व में हुए विलय को खारिज कर दिया. इसी अधिवेशन में लोहिया के नेतृत्व वाले सोशलिस्ट पार्टी और एसएम जोशी के नेतृत्ववाले प्रसोपा का विलय हुआ संसोपा अस्तित्व में आयी. अध्यक्ष एसएम जोशी बनाये गये.
1967 के बिहार विधानसभा चुनाव में संसोपा को 60 और प्रसोपा को 18 सीटें मिलीं. चूंकि सरकार बनाने की स्थिति में कोई दल नहीं था. ऐसे में जोड़-तोड़ के बल पर बनी सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं चली और 1969 में मध्यावधि चुनाव कराना पड़ा. तब समाजवादियों के चार दल चुनाव मैदान में थे. 1967 से 1972 के बीच बिहार में कुल नौ सरकारें बनीं. सरकार बनाने में समाजवादियों की भूमिका महत्वपूर्ण रही. 1967 में गैर कांग्रेसवाद के आधार पर संसोपा, प्रसोपा, भाकपा, जनसंघ, जन क्रांति दल को मिलाकर संयुक्त विधायक दल (संविद) सरकार सत्ता में आयी. महामाया प्रसाद सिन्हा मुख्यमंत्री बने. थोड़े दिनों बाद बीपी मंडल ने कुछ विधायकों को लेकर शोषित समाज दल का गठन किया. कांग्रेस के सहयोग से मंडल की सरकार 20 दिनों तक चली. संसोपा, संगठन कांग्रेस, जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी ने मिल कर संयुक्त संयुक्त विधायक दल का गठन किया, जिसके नेता रामानंद तिवारी बनाये गये. लेकिन जनसंघ के साथ मिल कर सरकार गठन के मुद्दे पर मतभेद उभरा और अंतत: दावा पेश करने के बावजूद श्री तिवारी सरकार नहीं बना सके. 22 दिसंबर, 1970 को कपरूरी ठाकुर के नेतृत्व में संसोपा की सरकार बनी. 1971 में राजनारायण को लेकर मतभेद उभरे. बिहार में भी समाजवादियों के कई गुट बन चुके थे. लेकिन, 1971 में फिर एक बार फिर प्रसोपा और संसोपा के बीच विलय की पहल हुई और सोशलिस्ट पार्टी बनी. लेकिन, 1972 के चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी को झटका लगा. सिर्फ 34 सीटें मिलीं.
लेकिन, आपातकाल व समाजवादियों को जेपी आंदोलन ने नयी ऊर्जा दी. 1977 में सभी समाजवादी विचारधारा वाले दल एक मंच पर जुटे. जनता पार्टी का गठन हुआ. जनता पार्टी प्रचंड बहुमत से सत्ता में आयी. एक बार फिर कपरूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने.
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