हम आज एक ऐसे भारत में रहते हैं जो हमारे संविधान निर्माताओं के ख़्वाबों से काफ़ी अलग है.
संविधान निर्माताओं की परिकल्पना थी कि नागरिकों (सिटिज़ेन) और नागरिक अधिकार नहीं रखने वालों (नॉन-सिटिज़न) समेत सभी लोगों के पास ये मौलिक अधिकार होगा कि क़ानूनी प्रक्रिया का पालन किए बिना उनके जीने का अधिकार उनसे नहीं छीना जाएगा.
सुप्रीम कोर्ट ने तय किया है कि ये प्रक्रिया निष्पक्ष, न्यायपूर्ण और तर्कसंगत होनी चाहिए. सवाल ये है कि क्या ये प्रक्रिया याक़ूब मेमन के मामले में पूरी की गई?
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मौत की सज़ा से जुड़े सभी मामलों के सबसे अहम पहलुओं में से एक ये है कि सभी अदालतें ख़ासकर सर्वोच्च अदालत, ये जांच करे कि क्या मृत्युदंड देने के दौरान सभी क़ानूनी प्रक्रियाओं का पूरी तरह पालन हुआ है या नहीं.
ये महज़ तकनीकी बात नहीं है. दोनों पक्षों के वकील उस मुद्दे पर बहस करते हैं, क़ानूनी तौर पर ऐसे मामलों में ये बहस का मुद्दा होता है.
इसी आधार पर पूरी दुनिया में मौलिक अधिकारों को संरक्षण दिया जाता है. वास्तविकता में ये ही ज़िंदगी और मौत के बीच अंतर करने वाली लकीर होती है.
जब मुझे याक़ूब मेमन की ओर से पेश होने को कहा गया तो मुझे ऐसा करने में कोई हिचक नहीं थी.
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मूल रुप से मैं मानता हूं कि मौत की सज़ा एक दोषपूर्ण प्रक्रिया है और इसे ख़त्म कर देना चाहिए.
हैरानी की बात नहीं कि बहुत से देशों ने इसे ख़त्म कर दिया है और कई इसे ख़त्म करने की दिशा में बढ़ रहे हैं.
क्यों किया बचाव?
पिछले हफ़्ते जब याक़ूब का मामला सामने आया तो मेरे लिए इस मामले में ज़्यादा अहम ये बात थी कि इस मामले में अपनाई गई प्रक्रिया दोषपूर्ण थी.
पहली बात तो ये कि इसमें सुप्रीम कोर्ट की ओर से इस साल मई में शबनम केस के फ़ैसले में दिए गए निर्देशों का ध्यान नहीं रखा गया.
अन्य बातों के साथ शबनम केस में ये तय किया गया था कि जिस अभियुक्त के ख़िलाफ़ सेशन कोर्ट से डेथ वारंट जारी होना है, वारंट जारी होने के पहले वकील के ज़रिए उसका पक्ष सुना जाए.
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कोर्ट ने ये भी निर्देश दिया कि डेथ वारंट जारी होने और मौत की सज़ा के अमल की तारीख़ के बीच पर्याप्त समय होना चाहिए.
इस प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया था तो हमें लगा कि हमारे पास बहस के लिए पर्याप्त आधार है.
हालांकि सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की बेंच ने बुधवार 29 जुलाई 2015 की दोपहर हमारी इस दलील को ख़ारिज कर दिया.
वकील का कर्तव्य
ये हर वकील का फ़र्ज़ है कि वो किसी भी मामले में अपने मुवक्किल के लिए सर्वश्रेष्ठ प्रयास करे. मौत की सज़ा के मामले में ये कोशिश और अधिक होनी चाहिए.
अगर मौत की सज़ा पाए आदमी को राहत मिलने का कोई मौक़ा हो तो ये उसके वकील का कर्तव्य है कि वो उस मौक़े को भुनाए.
हमारे पास शत्रुघ्न चौहान मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के रुप में ये मौक़ा था.
दूसरी बातों के साथ ये भी निर्धारित किया गया है कि मौत की सज़ा पाने वाले आदमी के पास दया याचिका दाख़िल करने का मौलिक अधिकार है और अगर ये याचिका ख़ारिज हो जाए तो उसे कम से कम 14 दिन मिलने चाहिए ताकि वो "ख़ुद को फांसी के लिए मानसिक तौर पर तैयार कर सके, भगवान का ध्यान कर सके, अपनी वसीयत तैयार कर सके और दूसरे दुनियावी काम पूरे कर सके, परिवार के साथ आख़िरी मुलाक़ात कर सके और न्यायिक उपाय हासिल करने के अधिकारों का इस्तेमाल कर सके" यानी दया याचिका ख़ारिज होने को चुनौती दे सके.
याचिका क्यों?
सुप्रीम कोर्ट ने ये भी तय किया था कि मौत की सज़ा पाने वाले शख़्स के पास आख़िरी सांस तक ये मौलिक अधिकार होगा.
इसे लेकर भी हमें लगा कि हमारा पक्ष मज़बूत है. इसे लेकर हमने बुधवार 29 जुलाई की देर शाम याक़ूब मेमन की ओर से याचिका दाख़िल करने और सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री के ज़रिए भारत के मुख्य न्यायाधीश से हमें सुनने के लिए बेंच गठित करने का अनुरोध किया.
दुर्भाग्य से सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर इस आधार पर हमसे असहमति जताई कि याक़ूब मेमन के भाई की ओर से दाख़िल दया याचिका ख़ारिज हो चुकी है.
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हालांकि, दया याचिका के नियमों के मुताबिक़ मौत की सज़ा पाने वाले क़ैदी के पास नए आधार पर नई दया याचिका दाख़िल करने का अधिकार होता है.
याक़ूब मेमन ने जेल से महाराष्ट्र के राज्यपाल के सामने दया याचिका दाख़िल कर अपने इसी अधिकार का इस्तेमाल किया था.
राज्यपाल का फ़ैसला
राष्ट्रपति इससे पहले की दया याचिका ख़ारिज कर चुके थे इस तथ्य के आधार पर इस याचिका पर निर्णय राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में नहीं था.
राज्यपाल इसे राष्ट्रपति के पास भेजने को बाध्य थे. हालांकि राज्यपाल ने इसे अपने पास ही रखा.
इस वजह से याक़ूब के वकील सीधे राष्ट्रपति के पास एक दया याचिका भेजने के लिए मजबूर हुए.
उनकी फांसी के लिए तय की गई तारीख़ (30 जुलाई) के एक दिन पहले (29 जुलाई) तक दोनों दया याचिकाओं पर फ़ैसला होना बाक़ी था.
29 जुलाई की शाम सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आने के बाद राज्यपाल ने दया याचिका को राष्ट्रपति के पास भेजने के बजाए इसे ख़ारिज कर दिया.
राष्ट्रपति ने भी रात 10.30 बजे के लगभग ऐसा ही किया. निश्चित ही याक़ूब मेमन के पास दया याचिका ख़ारिज होने को चुनौती देने का मौलिक अधिकार था.
उसे इस अधिकार के इस्तेमाल की इजाज़त नहीं मिली. सुप्रीम कोर्ट हमसे सहमत नहीं हुआ.
मौलिक अधिकारों की रक्षा
अगर याक़ूब मेमन को दया याचिका ख़ारिज किए जाने को चुनौती देने के लिए 14 दिन मिल जाते तो क्या आसमान टूट जाता?
मैं कहूंगा- ”नहीं.” दूसरी तरफ़ दया याचिका को चुनौती देने के अधिकार के इस्तेमाल के दौरान अगर सज़ा में बदलाव हो जाता तो उसे 14 दिन नहीं दिया जाना जानलेवा ग़लती कही जाती.
ये उनका मौलिक अधिकार था. ये हर कोर्ट का कर्तव्य है कि वो ये देखे कि लोगों के मौलिक अधिकारों की न सिर्फ़ रक्षा हो बल्कि उन्हें उसका लाभ भी मिले.
इसे सेशन कोर्ट की ओर से याक़ूब मेमन को फांसी देने के लिए मुक़र्रर तारीख़ से चिपकने या फिर उनके भाई की ओर से दाख़िल याचिका ख़ारिज होने जैसा औपचारिक दृष्टिकोण अपनाकर बलि नहीं चढ़ाया जा सकता.
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यही वजह है कि मैं मानता हूं कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से न्याय को ठेस लगी है.
याक़ूब मेमन को भले ही फांसी दे दी गई हो और वो दुनिया में नहीं हों. लेकिन उनके केस से जुड़े कुछ सवाल लंबे समय तक हमारी अंतरात्मा को झकझोरते रहेंगे.
अभी इस मामले में आख़िरी शब्द कहा जाना बाक़ी है. इतिहास तय करेगा कि हम सही थे या नहीं.
(आनंद ग्रोवर सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील हैं. ये लेखक के निजी विचार हैं)
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