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जिला प्रशासन सक्रिय होगा तभी सुनिश्चित हो पायेंगे पंचायतों के अधिकार

झारखंड सरकार ने अब तक नौ विभागों के अधिकार पंचायतों को सौंप दिये हैं, मगर जगह-जगह से शिकायत आती है कि इन अधिकारों को धरातल पर अब तक उतारा नहीं जा सका है. इस संबंध में आपके अनुभव कैसे हैं? इस संबंध में सबसे बड़ी परेशानी यह है कि जिन विभागों द्वारा अधिकार सौंपे गये […]

झारखंड सरकार ने अब तक नौ विभागों के अधिकार पंचायतों को सौंप दिये हैं, मगर जगह-जगह से शिकायत आती है कि इन अधिकारों को धरातल पर अब तक उतारा नहीं जा सका है. इस संबंध में आपके अनुभव कैसे हैं?

इस संबंध में सबसे बड़ी परेशानी यह है कि जिन विभागों द्वारा अधिकार सौंपे गये हैं उनकी चिट्ठियां भी हमें बड़ी मुश्किल से प्राप्त होती हैं. प्रखंड कार्यालय में चिट्ठियां पड़ी रहती हैं, मगर हमारे बार-बार मांगे जाने पर भी इस संबंध में ठीक से जानकारी नहीं दी जाती. सालों बाद चिट्ठियां मिलती हैं. ऐसे में अधिकार को लागू कैसे किया जाये. इसके अलावा जिला प्रशासन से भी अपेक्षित सहयोग नहीं मिलता. अगर हम वहां कोई पत्र भेजते हैं तो उस का कोई जबाव नहीं आता. जब जिला और प्रखंड का सरकारी प्रशासन ही अधिकारों को मानने के लिए तैयार नहीं है तो भला अधिकार कैसे जमीन पर नजर आयेंगे?

आपका कहना है कि जिला और प्रखंड स्तर पर कार्यरत अधिकारी आपके अधिकारों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. आपके पास इस संबंध में कोई उदाहरण है क्या?
जी हां. मेरे साथ ही ऐसी घटना घटी है. प्रमुख होने के कारण मैं अपने क्षेत्र में कार्यरत सरकारी संस्थाओं के काम काज की निगरानी करती हूं. महिला एवं बाल विकास विभाग की ओर से ऐसे अधिकार भी हमें दिये गये हैं. इसी सिलसिले में मैंने अपने यहां की आंगनबाड़ियों का निरीक्षण किया और पाया कि वे अक्सर बंद रहते हैं और समय पर नहीं खुलते. मैंने यह भी पाया कि फरजी बिल के जरिये खरीद और भुगतान किये जा रहे हैं. इस संबंध में जब मैंने डीसी महोदय के पास कार्रवाई की अनुशंसा के लिए पत्र लिखा तो वहां से जबाव आया कि आप किसी सरकारी अधिकारी के खिलाफ आरोप लगा रहे हैं तो इसे आपको शपथ पत्र के साथ भेजना होगा और साथ में प्रमाण भी पेश करने होंगे. मैंने इस पत्र के जबाव में पूछा कि ऐसा आप किस नियम के आधार पर कह रहे हैं. कृपया नियम की प्रति उपलब्ध करायें. मैंने इस संबंध में उच्च न्यायालय को भी शिकायत करते हुए नियम की मांग की कि किसी जनप्रतिनिधि को शिकायत करने के लिए शपथ पत्र की आवश्यकता क्यों है. इस पर डीसी की ओर से कहा गया कि बिहार में यही नियम है. अब आप बताइये, क्या हमलोग 13 साल बाद भी बिहार का नियम पालन करते हैं? बिहार में पंचायतों को जो अधिकार मिले हैं, उसे यहां दिया जाता है क्या?

क्या आपको प्रखंड कार्यालय से अपेक्षित सहयोग मिलता है?
नहीं. जैसे हमें योजनाओं के निरीक्षण के लिए कई बार गाड़ी की आवश्यकता पड़ती है मगर प्रखंड कार्यालय की ओर से हमें कभी गाड़ी उपलब्ध नहीं करायी जाती. आप बताइये एक प्रमुख जो पूरे प्रखंड का प्रतिनिध है उसे काम करने के लिए गाड़ी नहीं है जबकि प्रखंड में कार्यरत हर पदाधिकारी के लिए सरकारी वाहन है. इसका मतलब तो यही है कि प्रमुख का पद गैर जरूरी है.

कई दफा ऐसी खबरें सुनने को मिलती हैं कि सरकारी कार्यक्रमों में पंचायत प्रतिनिधियों को आमंत्रित नहीं किया जाता है, इससे झड़प की नौबत आ जाती है. ऐसा क्यों होता है?
निश्चित तौर पर मारपीट तो नहीं ही होनी चाहिये. यह सभ्यता के अनुकूल नहीं है और जब तक जनप्रतिनिधि और पदाधिकारी मिलकर काम नहीं करेंगे जनता का विकास नहीं हो पायेगा. मगर कई दफा अधिकारियों की ओर से चूक हो जाती है. वे लोग जन प्रतिनिधियों को परेशान करने के लिए उन पर या उनके परिजनों पर झूठे मुकदमे डाल देते हैं. मेरे ही पति पर सीडीपीओ की ओर से झूठा मुकदमा कर दिया गया है कि उन्होंने उनके चेंबर में घुसकर उनके साथ मारपीट की है. जबकि एक तो मेरे पति मेरे काम-काज में हस्तक्षेप नहीं करते और फिर प्रखंड कार्यालय की ओर जाते भी नहीं. इसके अलावा इस बात की भी झूठी चिट्ठी तैयार की गयी है कि हमारा परिवार एमसीसी से मिला हुआ है. इससे कई बार कटुता काफी बढ़ जाती है. पंचायत प्रतिनिधियों को सरकारी कार्यक्रमों में निश्चित तौर पर बुलाया जाना चाहिये. इससे पारदर्शिता बनी रहती है.

ग्राम पंचायत और मुखियों के मामले में क्या स्थिति है?
मुखिया लोगों को तो मनरेगा का एजेंट बनाकर छोड़ दिया गया है. वे उसी में उलङो रहते हैं. अधिकार का उपयोग करना तो उनके लिए और भी कठिन है. जैसे शिक्षा विभाग की ओर से उन्हें अपने क्षेत्र के स्कूलों में काम करने वाले शिक्षकों की उपस्थिति पंजी के सत्यापन का अधिकार मिला हुआ है. मगर शिक्षक बड़ी मुश्किल से उनके पास उपस्थिति सत्यापन कराने जाते हैं. स्कूल के प्रधानाध्यापक तो कभी नहीं जाते. सबसे बड़ी बात है कि विभाग भी इस ओर रुचि नहीं लेता. क्योंकि अगर शिक्षक या प्रधानाध्यापक की उपस्थिति पंजी में मुखिया के हस्ताक्षर नहीं हैं तो जिला प्रशासन की ओर से उस पंजी को स्वीकार ही नहीं करना चाहिये. मगर वे इसे स्वीकार कर लेते हैं, जिससे संबंधित कर्मियों का भी मनोबल बढ़ता है.

फिर यह सब होगा कैसे?
जब तक राज्य सरकार इस दिशा में ठोस कदम नहीं उठायेगी, इसे धरातल पर लागू करना नामुमकिन है. राज्य की ओर से जिलों को कड़ा निर्देश दिया जाना चाहिये कि पंचायत प्रतिनिधियों को जो सात विभागों

के अधिकार सौंपे गये हैं उन्हें कड़ाई से लागू कराया जाना सुनिश्चित करें. इसके लिए विभागों को भी रुचि लेना होगा कि उनके द्वारा जो अधिकार पंचायतों को दिये गये हैं उनका अनुपालन सुनिश्चित हो.

क्या अधिकारों को लागू कराने के लिए प्रतिनिधि अपने स्तर पर कोई प्रयास करने जा रहे हैं?
सबसे बड़ी विडंबना तो यही है कि जन प्रतिनिधि ही एक मंच पर नहीं आते. चुनाव के बाद से ही इस बात की सख्त जरूरत महसूस की जा रही है कि जन प्रतिनिधियों को एक मंच पर आना चाहिये ताकि अधिकारों को हासिल किया जा सके और जो अधिकार मिले हैं उनका अनुपालन सुनिश्चित हो सके. मगर ऐसा हो नहीं पा रहा और इसके बदले प्रतिनिधि विभिन्न राजनीतिक दलों के साथ जुड़ने में अधिक रुचि ले रहे हैं. इससे हमारी ताकत विभाजित हो रही है.

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