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न्यायप्रियता का अनमोल रत्न

।। रवि दत्त बाजपेयी ।। – न्यायमूर्ति नहीं न्यायप्रिय-5 – तुल्जापुरकर ने अभिव्यक्ति की आजादी पर दिया ऐतिहासिक फैसला यूनानी दार्शनिक सुकरात ने न्यायाधीश के चार प्रमुख लक्षण बताये. धैर्यपूर्वक सुनना, बुद्धिमत्तापूर्वक उत्तर देना, गंभीरतापूर्वक विचार करना और निष्पक्षता से निर्णय लेना. जस्टिस तुल्जापुरकर इन चारों गुणों से परिपूर्ण थे. इसके साथ ही उनमें सच्चाई, […]

।। रवि दत्त बाजपेयी ।।

– न्यायमूर्ति नहीं न्यायप्रिय-5

– तुल्जापुरकर ने अभिव्यक्ति की आजादी पर दिया ऐतिहासिक फैसला

यूनानी दार्शनिक सुकरात ने न्यायाधीश के चार प्रमुख लक्षण बताये. धैर्यपूर्वक सुनना, बुद्धिमत्तापूर्वक उत्तर देना, गंभीरतापूर्वक विचार करना और निष्पक्षता से निर्णय लेना. जस्टिस तुल्जापुरकर इन चारों गुणों से परिपूर्ण थे.

इसके साथ ही उनमें सच्चाई, साहस और संयम भी भरपूर था. 26 जून, 1975 को भारत में आपातकाल की घोषणा हुई, जिसके बाद नागरिकों के मूल अधिकार स्थगित हुए और समाचार माध्यमों पर सेंसरशिप लगा दी गयी. पूरे देश में भय के इस माहौल में न्यायपालिका के कुछ सत्यनिष्ठ, न्यायप्रिय और समर्पित न्यायाधीशों ने आम नागरिकों के संविधान प्रदत्त मूल अधिकारों की पुनस्र्थापना के लिए विधिसम्मत निर्णय दिये. न्यायपालिका के इन निर्णयों के बाद ही इंदिरा गांधी की सरकार को नये संवैधानिक संशोधन, न्यायालयों में नियुक्तियों में दखलंदाजी जैसे रास्ते तलाशने पड़े.

भारत में आपातकाल के दौरान भी उद्दंड प्रशासन तंत्र पर लगाम कसने में जस्टिस तुल्जापुरकर के कुछ निर्णयों को नागरिक आधिकारों की सुरक्षा के लिए आज भी बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है. नौ मार्च, 1925 को जन्मे विद्यारत्न दत्तात्रेय तुल्जापुरकर ने मुंबई के शासकीय विधि महाविद्यालय से वकालत की उपाधि ली और एक दिसंबर, 1942 को बंबई हाइकोर्ट में वकील के रूप में पंजीयन कराया.

जब वह वकालत कर रहे थे, बंबई हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एमसी छागला ने युवा तुल्जापुरकर से जज का पद लेने का आग्रह किया.

मुंबई की जिला अदालतों में सात वर्षो तक न्यायाधीश रहे तुल्जापुरकर 1963 में बंबई हाइकोर्ट के जज नियुक्त हुए. उन दिनों जस्टिस तुल्जापुरकर बंबई हाइकोर्ट में पदस्थ थे. 25 जून, 1975 को भारत में आंतरिक आपातकाल की घोषणा कर दी गयी. विधायिका के कार्यपालिका के मातहत बन जाने के बाद आम नागरिकों को अपने बचाव के लिए सिर्फ न्यायपालिका का सहारा रह गया.

कुछ पूर्व जजों तथा वकीलों के संगठन बंबई अधिवक्ता समिति ने नागरिकों के मूल अधिकारों और न्यायसम्मत प्रशासन के बारे में विमर्श करने के लिए एक बैठक करने का निर्णय लिया. 18 अक्तूबर, 1975 को बंबई के जिन्ना हॉल में करीब 500 वकीलों को बैठक में बुलाया गया, जिसे पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एमसी छागला, जेसी शाह एवं एनपी नाथवानी संबोधित करनेवाले थे.

आयोजन की अनुमति हेतु मुंबई के पुलिस आयुक्त को आवेदन भेजा गया, पुलिस आयुक्त ने बैठक को सार्वजनिक व्यवस्था और आंतरिक सुरक्षा पर संकट मानते हुए इसकी अनुमति देने से इनकार कर दिया. पुलिस आयुक्त के फैसले के खिलाफ आयोजकों ने बंबई हाइकोर्ट में याचिका दायर की. पुलिस आयुक्त के आदेश को निरस्त करते हुए जस्टिस तुल्जापुरकर ने अपने फैसले में लिखा, यह दलील कि आपातकाल में हर सार्वजनिक बहस पर मनाही हो गयी है, को स्वीकार नहीं किया जा सकता.

मेरी नजर में एक सरकार, जो शांतिपूर्ण और रचनात्मक आलोचना को दबाये, जो सिर्फ चापलूसों और चाटुकारों को स्वतंत्रता दे, जो अपने नागरिकों को किसी सामान्य, निश्छल और निरापद गतिविधि के लिए भी एक पुलिस आयुक्त से अपमान और तिरस्कार ङोलने को मजबूर करे, ऐसी सरकार को इस देश में लोकतंत्र ज्यादा है, जैसा प्रचार करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है.

जस्टिस तुल्जापुरकर के फैसले को भारत के कानून में एनपी नाथवानी बनाम बंबई पुलिस आयुक्त के नाम से जाना जाता है. उनके इसी फैसले के आधार पर मीनू मसानी संपादित अखबार फ्रीडम फर्स्‍ट ने सेंसर अधिकारियों के विरुद्ध अपना मुकदमा जीता था.

आपातकाल के दौरान दिल्ली दरबार के फरमानों की अवहेलना के कारण इंडियन एक्सप्रेस समाचार पत्र समूह पर भारत सरकार की सभी दंडात्मक संस्थाएं एक साथ टूट पड़ी थीं. जस्टिस तुल्जापुरकर की कोर्ट से ही इंडियन एक्सप्रेस को न्यायिक राहत मिली. मराठी साप्ताहिक साधना ने बंबई हाइकोर्ट में सेंसर अधिकारियों द्वारा इस अखबार की प्रतियां और प्रेस की जब्ती के खिलाफ याचिका दायर की.

जस्टिस तुल्जापुरकर ने अपने फैसले में सेंसर अधिकारियों की कार्यवाही को अनुचित बताया और साधना में छपी सामग्री को व्यवस्था के लिए हानिकारक रिपोर्टिग मानने से इनकार कर दिया. जस्टिस तुल्जापुरकर ने विधिसम्मत भारत गणराज्य को सरकारी मंत्रियों, राजनीतिक पदाधिकारियों से अलग माना और उनके अनुसार राजनीतिक व्यक्तियों की आलोचना और उनके विरुद्ध अहिंसकशांतिपूर्ण विरोध के आवाहन को भारत राष्ट्रराज्य के लिए खतरनाक नहीं माना जा सकता.

आपातकाल के दौरान 16 जनवरी, 1977 को नागपुर में नये कोर्ट भवन के उदघाटन समारोह में जस्टिस तुल्जापुरकर ने न्यायपालिका की नियुक्तियों में केंद्र सरकार और कानून मंत्री एचआर गोखले की सख्त आलोचना की. इसे राजनीतिक हस्तक्षेप को स्वतंत्र न्यायपालिका के लिए बहुत हानिकारक माना. अपने इसी संबोधन में जस्टिस तुल्जापुरकर ने सेंसर अधिकारियों को भी अपने अधिकारों के दुरु पयोग के लिए कड़ी फटकार लगायी.

1977 में जस्टिस तुल्जापुरकर को सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत किया गया. 1980 में इंदिरा गांधी के दोबारा चुनाव जीतने पर सुप्रीम कोर्ट के जज पीएन भगवती ने पुनर्निर्वाचित प्रधानमंत्री को भेजे गये बधाई संदेश (स्तुति गान) के प्रकाशित होने पर जस्टिस तुल्जापुरकर ने किसी जज द्वारा ऐसे खुशामदी संदेश देने पर सख्त एतराज जताया और इस प्रवृत्ति को न्यायिक स्वतंत्रता के लिए बहुत गंभीर संकट माना.

एक अक्तूबर, 2004 को जस्टिस तुल्जापुरकर का देहांत हो गया. ज्यूडीशियल एक्टिविज्म आज एक सजीली और फैशनेबल प्रवृत्ति बन गयी है, लेकिन जिस दौर के सामाजिकराजनीतिक परिवेश में जस्टिस तुल्जापुरकर ने आम नागरिक के अधिकारों के लिए न्यायिक सक्रि यता दिखायी थी, वह उनके अदम्य साहस और अगाध न्यायप्रियता का प्रमाण है.

आज जानें न्यायमूर्ति वीडी तुल्जापुरकर के बारे में. वकालत के दौरान ही बंबई हाइकोर्ट के चीफ जस्टिस जस्टिस एमसी छागला ने युवा तुल्जापुरकर से जज का पद लेने का आग्रह किया था. बंबई हाइकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस एमसी छागला को आपातकाल का विरोध करने से रोकने के लिए बंबई पुलिस को जस्टिस तुल्जापुरकर ने कड़ी फटकार लगायी और कहा कि आपातकाल में भी आम लोगों के विरोध का अधिकार समाप्त नहीं हुआ है.

समाचार माध्यमों पर सेंसरशिप के विरुद्ध मराठी पत्रिका साधना की याचिका पर जस्टिस तुल्जापुरकर ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार से जुड़ा ऐतिहासिक फैसला सुनाया था.

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