समाजवादी चिंतक तथा साहित्यकार अशोक सेकसरिया विशिष्ट गांधीवादी व समाजसेवी सीताराम सेकसरिया के ज्येष्ठ पुत्र थे. उन्होंने दैनिक हिंदुस्तान, जन, दिनमान, वार्ता आदि पत्रिकाओं के लिए काम किया. उनकी लेखनी में आधुनिक समाज का विश्लेषण दिखाई देता है. शिवानंद तिवारी ने अशोक सेक्सरिया को याद करते हुए एक पंपलेट तैयार किया है. प्रस्तुत है इस पंपलेट में दिया गया आलेख.
शिवानंद तिवारी
अशोक जी (सेकसरिया) से पहली मुलाकात 7, गुरुद्वारा रकाबगंज रोड में 1970 में हुई थी. डॉ लोहिया सांसद के रूप में वहीं रहा करते थे. ‘जन’ जिसे उन्होंने शुरू किया था, वहीं से निकलता था. ओमप्रकाश दीपक जी उसका संपादन कर रहे थे. उनको भी पहली दफा वहीं देखा. हमलोग समाजवादी युवजन सभा के एक कार्यक्रम में दिल्ली गये थे. जन के दफ्तर से जुलूस निकाल कर संसद भवन जाना था. उसी सिलसिले में हमलोग वहां पहुंचे थे. अशोक जी हमारी आवभगत में सबसे ज्यादा तत्पर थे. लेकिन, उनको देख कर उनके प्रति विरक्ति का भाव ही मेरे मन में पैदा हुआ. देखने में अजीब लग रहे थे. बेतरतीब दाढ़ी-बाल, पीला-पीला दांत, बढ़े नाखून, आवाज भी फंसी-फंसी. कुल मिला कर उनका बाह्य रूप देख कर उनके प्रति मेरे मन में आकर्षण कम, विकषर्ण ज्यादा पैदा हुआ. उनसे दूसरी मुलाकात अगले साल संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के किसान मार्च के दौरान हुई. संसोपा का दिल्ली में वह अंतिम बड़ा कार्यक्रम था. देश भर के गरीब और किसान आये थे.
पटेल चौक पर अश्रु गैस के साथ भयानक लाठीचार्ज हुआ था. पुलिस की लाठी से एक प्रदर्शनकारी की मौत हो गयी थी. संसोपा के लगभग तमाम नेताओं को चोट लगी थी. राजनारायण जी उस ट्रक पर सवार थे, जो मंच का काम कर रहा था. अश्रु-गैस की घुटन से परेशान होकर राजनारायण जी ट्रक से नीचे कूद गये. उनका पैर टूट गया. डेढ़-दो सौ लोग गिरफ्तार हुए थे. मैं भी उनमें से एक था. पुलिस गिरफ्तार प्रदर्शनकारियों को व्यक्तिगत जमानत पर छोड़ना चाहती थी. तय हुआ कि हमलोग जमानत नहीं लेंगे. उसी समय सुचेता जी और डॉ सुशीला नैयर के कंधे पर हाथ रखे दादा कृपलानी थाने पर पहुंचे. रामसेवक जी ने उनको बताया कि पुलिस व्यक्तिगत जमानत के आधार पर हमें रिहा करना चाहती है. लेकिन, हमलोग जमानत लेकर छूटने के लिए तैयार नहीं हैं. वाइवी चौहान उस समय भारत सरकार के गृहमंत्री थे.
कृपलानी जी ने थाने से ही गृहमंत्री को फोन पर डांटा. उनकी तबीयत ठीक नहीं थी. गुस्से की वजह से वे कांपने लगे थे. कुछ ही देर बाद गृहमंत्री के यहां से फोन पर थाने को निर्देश आया और नाम-पता लिख कर हम सब को छोड़ दिया गया. इस बीच अशोक जी लगातार थाने पर ही मंडराते रहे. सबसे उनकी जरूरत पूछना, किसी को दवा की जरूरत तो किसी को और किसी चीज की, सबकी मदद के लिए तत्पर दिख रहे थे. उनकी सेवा भाव और नम्रता ने मुझे उनकी ओर आकर्षित किया. संयोग ऐसा हुआ कि देर रात थाने से रिहा होने के बाद जहां मैं ठहरा था, वहां जाने के लिए सवारी मिलना मुमकिन ही नहीं था. अशोक जी रिहाई के पहले से ही आग्रह कर रहे थे कि मैं उन्हीं के साथ ठहर जाऊं. गुरुद्वारा रकाबगंज रोड पर ही मधु लिमये के आउट हाउस में उन दिनों अशोक जी रहा करते थे. छोटा-सा कमरा था. एक चौकी पर उनका विस्तार था. इधर-उधर बिखरी किताबें, अखबार और कागज एक फोल्डिंग खटिया पर मेरे सोने का इंतजाम हुआ. सुबह-सुबह बगैर स्नान किये झटपट हमलोग लोहिया (तब का विलिंग्टन) अस्पताल, घायल नेताओं को देखने पहुंचे. मेरे बाबूजी भी जॉर्ज, मधुलिमये और अन्य घायल नेताओं के साथ वहीं भरती थे और लोग भी घायल नेताओं को देखने अस्पताल पहुंच चुके थे.
थोड़ी देर बाद हमलोग अशोक जी के कमरे में लौट आये. नहाने के लिए कमरा के बाहर नल था. अशोक जी ने नल के घेरे के अंदर जाकर अपना कपड़ा उतारा था. पता नहीं कैसे मेरी नजर उनकी पीठ पर गयी. उनकी पीठ पर लाठी के तीन-चार लाल निशान दिखे. मैं तो सिहर गया. कल से यह आदमी दूसरों के सत्कार में लगा है. एक दफा भी इस आदमी ने अपनी चोट के विषय में चर्चा तक नहीं की. कैसा आदमी है यह. हमारे नेता लोग अपनी चोटों का प्रदर्शन कर रहे हैं और दूसरी ओर यह आदमी अपनी चोट को छुपा रहा है. अशोक जी के लिए मन श्रद्धा से भर गया. इसके बाद इनके विषय में और जानने की उत्सुकता हुई. किसी ने बताया कि पत्रकार हैं. साप्ताहिक हिंदुस्तान में काम करते थे.
वहां इनको सात सौ रुपये महीना दरमाहा मिलता था. 66-67 में सात सौ रुपये का मतलब होता था. एक दिन डॉ लोहिया ने इनको कहा ‘अशोक’ ‘जन’ को तुम्हारी जरूरत है, लेकिन हम तुमको ढाई सौ रुपये से ज्यादा नहीं दे पायेंगे. और अशोक जी झट से सात सौ रुपये महीना छोड़ कर ढाई सौ पर काम करने ‘जन’ में आ गये. यह आदमी तो अद्भुत हैं. धीरे-धीरे उनसे निकटता बढ़ती गयी. जन के बंद होने के बाद वे कलकत्ता आ गये. समाजवादी आंदोलन में युवजन सभा के समय से ही धीरे-धीरे किशन पटनायक के मैं करीब आ गया था. अशोक जी भी उनके काफी करीब थे. इसलिए आगे भी हमलोगों का मिलना-जुलना बराबर जारी रहा. अशोक जी दिल्ली से कलकत्ता आ गये थे. उसी दौरान मेरा कलकत्ता जाना हुआ. उन्हीं के घर ठहरना हुआ. घर देख कर बहुत ताज्जुब हुआ. लॉर्ड सिन्हा रोड का वह आलीशान मकान अशोक जी का है. कहां अशोक जी और कहां यह शानदार कोठी.
जब मैं पहली दफा अशोक जी के यहां गया, तो उन्होंने अपने पिताजी सीताराम सेकसरिया जी से मुझे मिलवाया था. प्रभावशाली व्यक्तित्व. जमनालाल बजाज के निकटम सहयोगी हुआ करते थे. जब मौलाना आजाद कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष और सरदार पटेल कोषाध्यक्ष थे, तब सीताराम जी सेकसरिया बंगाल कांग्रेस के कोषाध्यक्ष हुआ करते थे. शांति निकेतन के हिंदी भवन से भी जुड़े थे. घर में उस जमाने के बड़े-बड़े लोगों का आना-जाना होता था. जयप्रकाश जी, कृपलानी जी, राजेंद्र बाबू आदि. राजेंद्र बाबू तो राष्ट्रपति बनने के बाद उनसे मिलने उनके घर आये थे. काका कालेलकर, मैथिली शरण गुप्त का भी बराबर आना-जाना था. महादेवी वर्मा तो वहीं रुकती थीं. ऐसे वातावरण में जनमे और पले-बढ़े अशोक जी का रूप-रंग, रहन-सहन बिल्कुल विपरीत था. ऐसा कैसे हुआ? जबकि, एक समय वे क्रिकेट के ऐसे शौकीन थे कि टेस्ट मैच जहां-जहां होता था, वहां-वहां दोस्तों के साथ हाजिर रहते थे. उनका यह शौक अंत तक बरकरार रहा, लेकिन सिर्फ टेस्ट मैच तक.
क्रिकेट पर हिंदी में पहली किताब उन्होंने ही लिखी थी. उनके परिवार के लोगों से जानकारी मिली कि जब अशोक जी नौ-दस वर्ष के थे, गांधी जी को उन्होंने पांच रुपये चंदा भेजा था. गांधी जी ने पोस्टकार्ड पर उसका जवाब भी दिया था. उन्होंने संत जेवियर कॉलेज में बीए की पढ़ाई पूरी नहीं की और उसके बाद हिंदुस्तान टाइम्स की नौकरी में दिल्ली चले गये. कलकत्ता से ही ‘चौरंगी वार्ता’ का प्रकाशन शुरू हुआ. रमेश चंद्र सिंह जी उसके संपादक थे.
74 आंदोलन के दरम्यान वार्ता आंदोलन की पत्रिका बन गयी थी. अशोक जी वार्ता में रीढ़ की तरह नेपथ्य में थे. आंदोलन के बाद तय हुआ कि नये सिरे से पटना से वार्ता का प्रकाशन हो. किशन जी उसके संपादक रहेंगे. लेकिन, यह तभी संभव होगा, जब अशोक जी पटना आकर वार्ता को संभालें. इस प्रकार अशोक जी पटना आये. पटना में काफी दिन उनका रहना हुआ. वार्ता का दफ्तर सिर्फ पत्रिका का ही केंद्र नहीं था, बल्कि वह ‘लोहिया विचार मंच’ की गतिविधियों का भी केंद्र था. बिहार भर से आनेवाले साथियों की अक्सर पहली मुलाकात अशोक जी के यहां ही होती थी. उनकी भाषा अद्भुत थी. अशोक जी ने कितनों को लिखना सिखाया. मैं जो थोड़ा-बहुत लिख ले रहा हूं, यह उनका ही आशीर्वाद है. हिंदी साहित्य में अशोक जी का जो अवदान हो सकता थ, वह हो नहीं पाया. बहुत कम लिखा. उन्होंने जो लिखा, वह छपवाया नहीं. जो छपा, वह छद्म नामों से. इनके अवदान के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए साहित्य जगत के कुछ मूर्धन्य लोगों ने अपनी पुस्तकों को इन्हें समर्पित किया है. इनमें रघुवीर सहाय, निर्मल वर्मा, नंदकिशोर आचार्य, राजकिशोर जी का नाम स्मरण में आ रहा है.
आज के अपने-आप में मगन इस दुनिया में ऐसे लोग भी हो सकते हैं यह अशोक जी को देखे बगैर यकीन करना कठिन था. इमरजेंसी में मैं जेल में था. बाबूजी मुझसे पहले जेल चले गये थे. अशोक जी को कहीं से जानकारी मिली कि हमारा परिवार परेशानी में है, तो पता नहीं कहां से इंतजाम कर हर महीने डेढ़ सौ रुपये मेरी पत्नी को भेजवाते रहे. मृत्यु के दो दिन पहले उन्होंने बालेश्वर जी को अफलातून से कहने के लिए कहा था कि वार्ता शीघ्र डाक में चली जाये और किशन जी की ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’ का दूसरा संस्करण जल्दी छप जाना चाहिए. अपने ऐसे अनोखे-विरले अशोक जी को हम अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं.