।। हूल दिवस ।।
।। अनुज कुमार सिन्हा ।।
भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम (1857) के दो साल पहले ही अंगरेजों और उनके दलालों के खिलाफ भोगनाडीह में हथियार उठा कर सिदो-कान्हू, चांद-भैरव ने हूल का बिगुल फूंका था. ये चारो भाई थे, पर सिदो-कान्हू में नेतृत्व का अदभुत गुण था.
30 जून 1855 को उन्होंने संताल परगना के भोगनाडीह में 10 हजार लोगों को एकजुट किया था. इतने लोगों को जोड़ना, एक जगह लाना और लंबे आंदोलन के लिए तैयार करना आसान नहीं था. उन दिनों न तो संचार के इतने साधन थे, न इतनी सुविधा. देश गुलाम था. अंगरेजों का आतंक/अत्याचार अलग था. उनके अंदर आग लगी थी. लोगों को विद्रोह के लिए खड़ा करना आसान काम नहीं था.
विद्रोह भी किसके खिलाफ? अंगरेजों के खिलाफ, जिनके पास बंदूकें और तोप तक थीं. सिदो-कान्हू और उनके साथियों के पास सिर्फ तीर-धनुष, तलवार और कुछ पारंपरिक हथियार थे. इन्हीं हथियारों के बल पर अंगरेजों की फौज से लड़ना था. कहा जाता है कि युद्ध सिर्फ हथियार से नहीं जीता जाता. इसके लिए वीरता, कुशलता, रणनीति और इच्छाशक्ति चाहिए. ये सारे गुण सिदो-कान्हू में थे.
पूरे आंदोलन के दौरान जैसी घटनाएं घटी, उससे यह साबित होता है कि सिदो-कान्हू असली नायक थे. विपरीत परिस्थिति में, सीमित साधन में लड़ने के ये गुण आज के राजनीतिज्ञों में नहीं दिखता. सही है कि आज परिस्थिति बदल चुकी है. देश आजाद है, पर हुल के दौरान के हालात और आज के हालात में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है. झारखंड को इस समय सिदो-कान्हू जैसे नायकों (यहां लीडर्स के संदर्भ में) की जरूरत है.
* कैसे और क्यों?
आज से 158 साल पहले जब सिदो-कान्हू के नेतृत्व में अंगरेजों के खिलाफ विद्रोह हुआ था, उन दिनों आदिवासी शोषण से तबाह थे. लगान बढ़ा दिया गया था. गरीबी थी. अशिक्षा तो थी ही. अंगरेज अफसर/पुलिसकर्मी आदिवासी लड़कियों को उठा कर ले जाते थे. लोगों के पास रोजगार नहीं थे. जमीनों पर अंगरेजों के दलालों का कब्जा था. आज के हालात से तुलना कर लीजिए. बहुत ज्यादा फर्क नहीं दिखता. संताल परगना में सामूहिक दुष्कर्म की घटनाएं इसके उदाहरण हैं. हां, शोषक बदल गये हैं.
देवघर में दो नाबालिग स्कूली छात्राओं की दुष्कर्म के बाद पुलिस लाइन में की गयी हत्या डेढ़ सौ साल पहले की घटना की पुनरावृति तो ही है. दुमका भले ही दूसरी राजधानी बन गया हो, दो-चार बेहतर सड़कें बन रही हों, पर दूर-दराज के इलाकों में रहनेवाले आदिवासियों की स्थिति नहीं बदली है. रोजगार नहीं मिले. खेतों पर आज भी दूसरों का कब्जा है. हां, इसके खिलाफ आवाज उठते रहती है. बांझी गोलीकांड इसका उदाहरण है. आदिम जनजाति के युवा-युवतियों को पढ़ने के बावजूद नौकरी नहीं मिलती. ये हालात हैं आज के.
सवाल है, क्यों सिदो-कान्हू जैसे नेता (लीडर्स) की जरूरत महसूस की जा ही है. अंगरेजों के खिलाफ लड़ने के लिए नहीं, हथियार उठाने के लिए नहीं. बल्कि सिदो-कान्हू के कुछ खास गुणों के कारण. तुरंत निर्णय लेने की क्षमता, उपलब्ध साधन से ही लक्ष्य को पाने की क्षमता, लोगों को एकजुट कर अपनी बात को मनवाने की क्षमता, जाति-धर्म से ऊपर उठ कर सभी को साथ लेकर चलने की क्षमता. सिदो-कान्हू के पास साधन सीमित थे. पर उसका वे रोना नहीं रोते थे. जानते थे कि अगर तीर-धनुष है, तलवार-भाला है, तो इसी से लड़ना है. वे अपने योद्धाओं का मनोबल बढ़ाते थे.
झारखंड के आज के लीडर्स साधन का अभाव होने का रोना रोते हैं. झारखंड के पास जो भी साधन है, अगर उसी के आधार पर योजना बना कर उसे लागू किया जाये, तो राज्य की तसवीर बदल सकती है. इसके लिए निर्णय लेने की क्षमता होनी चाहिए, जोखिम उठाने का गुण होना चाहिए. ये गुण सिदो-कान्हू में थे.
सिदो-कान्हू के आंदोलन में लगभग 50 हजार लोग शामिल थे. महिलाएं भी थीं. न सिर्फ संताल परगना के बल्कि हजारीबाग से लेकर वीरभूम तक के लोग भी साथ थे. न तो बस थी, न ही ट्रेन. टेलीफोन भी नहीं थे. उसके बावजूद इतने दूर-दूर से आंदोलनकारियों को लाकर एक जगह जमा करने का काम कोई मामूली काम नहीं था.
सिदो-कान्हू ने यह कर दिखाया. दूसरों को विश्वास दिलाने की क्षमता दोनों भाइयों में थी. यही कारण है कि उनकी एक आवाज पर सभी कोलकाता की ओर कूच कर गये थे. उन्हें मालूम था कि सीधी लड़ाई में अंगरेजों का सामना मुश्किल है, इसलिए छापामार युद्ध की नीति उन्होंने अपनायी थी. यानी अपनी मजबूती को पहचान कर उसका उपयोग किया था.
भोगनाडीह की उसी माटी पर हर साल झारखंड के दिग्गज नेता जुटते हैं. अपने नायकों को याद करते हैं, पर उनके गुण से सीख नहीं लेते. हूल सफल हुआ या असफल, यह मायने नहीं रखता. पर इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि सिदो-कान्हू के हूल का ही परिणाम था कि लोगों की जमीन की सुरक्षा के लिए वहां कड़े कानून बने. अब संताल परगना या पूरे झारखंड की तसवीर बदलनी है, तो नेताओं के अंदर लीडर्स के गुण भरने होंगे. (राजनीतिक गुण, तोड़-फोड़ के गुण नहीं).
वे गुण, जिससे राज्य में बेहतर शासन हो, राज्य और यहां के लोगों का भला हो, वे खुशहाल हों, राज्य में सांप्रदायिक सौहाद्र्र का माहौल बना रहे, छोटा राज्य झारखंड देश के विकसित राज्यों में शामिल हो, लोगों को 24 घंटे पानी-बिजली मिले, राज्य से गरीबी दूर हो. हो सकता है कि साधन सीमित हो, पर इसी का उपयोग करना होगा. इसके लिए कड़े एवं ठोस निर्णय लेने होंगे, जैसा निर्णय हूल के दौरान सिदो-कान्हू लिया करते थे.