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गीतों की दुनिया, बात उस व इस जमाने की

।।प्रभात खास।। कला माध्यम है अभिव्यक्त होने का. बात जब संगीत की हो, तो कहना ही क्या. इसमें जीते हैं, अतीत में खोते हैं, भविष्य के सपने देखते हैं. पर, जब वक्त बदला, तो नजरिया भी, स्वाभाविक है गीत -संगीत भी. उसके शब्द भी. कई बार लगता है गीत का ‘वो’ जमाना ही ठीक था, […]

।।प्रभात खास।।
कला माध्यम है अभिव्यक्त होने का. बात जब संगीत की हो, तो कहना ही क्या. इसमें जीते हैं, अतीत में खोते हैं, भविष्य के सपने देखते हैं. पर, जब वक्त बदला, तो नजरिया भी, स्वाभाविक है गीत -संगीत भी. उसके शब्द भी. कई बार लगता है गीत का ‘वो’ जमाना ही ठीक था, कभी लगता है आज में क्या कमी. वक्त के साथ गीतों की नब्ज पर पेश है यह रिपोर्ट.
।।अनुप्रिया अनंत।।
वो कहते हैं गीत मन की अव्यक्त बातों को व्यक्त करता है. बात प्रेम की हो, दोस्ती की हो, रिश्तों की हो या देश की अखंडता की. हर भाव में गीत पिरोया है. अब देखिए न गुलजार साहब का एक गीत, जो महंगाई पर था, ‘हाल-चाल ठीक- ठाक है, सब कुछ ठीक-ठाक है..’ यह गीत आज भी डॉलर के मुकाबले रुपये की चाल पर सुनें तो बुरा नहीं लगेगा.

वजह साफ है गानों में जिंदगी का फलसफां का होना. लेकिन महंगाई के हाल-ए-बयां पर आज का गीत यह भी क्या बुरा है ‘महंगाई डायन खाये जात है..’. तो ऐसा माना जा सकता है संघर्ष, पीड़ा और इसके बाद मिलने वाली खुशी की बातें दिल के करीब होती है. यही वजह है कि ऐसे गीत हर वक्त कर्णप्रिय होते हैं. गीतकार गुलजार कहते हैं गीत भी समाज का ही आईना है. दौर बदला, तो गीत भी. स्वरूप में बदलाव को वे सकारात्मक मानते हैं. कहते हैं-पहले लिखा जाता था ‘ सजन रे झूठ मत बोलो..’ और अब ‘झूठ बोले कौवा काटे..’ बात वही है. लेकिन ये जो आज का संगीत है न गानों के मायने को नष्ट कर रहा है. उसे कैसे कबूल करें.

किसी दौर में फिल्में म्यूजिकल हिट हुआ करती थी. दूसरी ओर गीतकार प्रसून जोशी मानते हैं कि गानेअब ज्यादा सटीक और प्रासंगिक हैं. वर्तमान में युवाओं की डिक्शनरी बदली है. हां, फना के इस गीत को ही लें ‘ चांद सिफारिश करता जो हमारी’. बात यह है कि आज युवा हर तरह के गीत को सुनने का आदि हो चुका है, वे वैसे गाने पसंद करते हैं, जो उन्हें तनाव से मुक्त करे. ऐसा मानते हैं जावेद अख्तर. लेकिन वो कहते हैं लोगों को कनेक्ट करना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है.

फिल्म आशिकी 2 के गीत ‘ मिलने है मुझसे आई..’ कितनी उम्मीद है मिलन के तनाव के बीच. बात शब्दों की तो, निर्देशकों की मांग होती है कि उन शब्दों का ही चयन करें, जो युवाओं की जुबां पर रहे. फिल्म जवानी है दीवानी का गाना ‘ बलम पिचकारी हो..’ या ‘ दिल्ली वाली गर्लफ्रेंड ..’या ‘ बदतमीज दिल..’ को ही लें, हर कोई गुनगुना रहा है. इन गानों को लिखने वाले अमिताभ भट्टाचार्य कहते हैं कि वे लिखते वक्त ध्यान रखते हैं कि रुटीन के हर शब्द का समावेश गाने में हो.

वो कहते हैं अग्निपथ के गीत ‘सबके सामने छू लूं जरा..’ के बारे में कहां कोई पूछता है. शायद सिनेमा जितना रियलिस्टिक होगा, गानों का भी स्वरूप भी बदलेगा. बर्फी के सारे गीतों को ही लें. फिल्म के गीतकार स्वानंद किरकिरे मानते हैं कि इन दिनों फिल्मों में प्यारे और याद रखे जानेवाले गीत भी लिखे जा रहे हैं. गीतकार इरशाद कामिल कहते हैं आज के गीतकार ज्यादा इंडिपेडेंट हैं. रॉकस्टार के लिए सारे गाने लिखने वाले कामिल कहते हैं जब गाना ‘साडा हक..’ लिखा था, तो परेशानी का सामना करना पड़ा था, पर लोकप्रिय कितना हुआ. फिल्म रांझणा के गीतों को ही लें ‘तोहे पीया मिलेंगे..’ या ‘ ऐसे न देखो..’ . हर में मिलन की वेदना है, दूर होने की टीस भी. दार्शनिक होने के साथ कर्णप्रिय भी.

गीत भी समाज का आईना है. दौर बदला तो गीत भी.
गुलजार
गाने अब ज्यादा प्रासंगिक है. युवाओं की डिक्शनरी बदली.
प्रसून जोशी

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