महाभारत के युद्ध में (जो कुरुक्षेत्र के मैदान में हुआ) अट्ठारह अक्षौहणी सेना मारी गयी. इस युद्ध के समापन और मृतकों को तिलांजलि देने के बाद पांडवों सहित श्रीकृष्ण, पितामह भीष्म से आशीर्वाद लेकर हस्तिनापुर को निकले.
तब श्रीकृष्ण से पितामह ने पूछ ही लिया- मधुसूदन, मेरे कौन-से कर्म का फल है, जो मैं शरशैया पर पड़ा हुआ हूं? यह बात सुन मधुसूदन ने भीष्म से पूछा- पितामह आपको कुछ पूर्व जन्मों का ज्ञान है? इस पर पितामह ने कहा, हां. श्रीकृष्ण मुङो अपने सौ पूर्व जन्मों का ज्ञान है कि मैंने किसी व्यक्ति का कभी अहित नहीं किया. इस पर श्रीकृष्ण बोले- आपने ठीक कहा कि आपने कभी किसी को कष्ट नहीं दिया, लेकिन 101वें पूर्वजन्म में जब आप युवराज थे, तब एक बार आप शिकार खेल कर जंगल से निकल रहे थे. उस समय आपके घोड़े के अग्रभाग पर एक करकैंटा एक वृक्ष से नीचे गिरा.
आपने अपने बाण से उठा कर उसे पीठ के पीछे फेंक दिया, उस समय वह बेरिया के पेड़ पर जा कर गिरा और बेरिया के कांटे उसकी पीठ में धंस गये. करकैंटा उन कांटों में से निकलने की जितनी भी कोशिश करता, उतना ही कांटे उसकी पीठ में चुभ जाते और इस प्रकार वह 18 दिन जीवित रहा और ईश्वर से यही प्रार्थना करता रहा- हे युवराज, जिस तरह से मैं तड़प-तड़प कर मृत्यु को प्राप्त हो रहा हूं, ठीक इसी प्रकार तुम भी होना. तो, हे पितामह. आपके पुण्य कर्मो की वजह से आज तक करकैंटा का श्रप आप पर लागू नहीं हो पाया. लेकिन हस्तिनापुर की राजसभा में द्रौपदी का चीरहरण होता रहा और आप देखते रहे. आप सक्षम थे, उस अबला पर हुए अत्याचार को रोकने में, लेकिन आपने दुर्योधन-दु:शासन को नहीं रोका. इसी कारण पितामह आपके सारे पुण्यकर्म क्षीण हो गये और करकैंटा का श्रप आप पर लागू हो गया.
अत: पितामह प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्मो का फल कभी न कभी तो भोगना ही पड़ेगा. प्रकृति सवरेपरि है, इसका न्याय सवरेपरि और प्रिय है, इसलिए पृथ्वी पर निवास करने वाले प्रत्येक प्राणी व जीव-जंतु को भी भोगना पड़ता है और कर्मो के अनुसार ही जन्म होता है.
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