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माइक्रो फाइनेंसिंग से बदल रही है ज़िंदगी

भगीरथ योगी संवाददाता, बीबीसी नेपाली सेवा गोराही, नेपाल की राजधानी काठमांडू से लगभग 400 किलोमीटर दूर बसा एक छोटा-सा क़स्बा है, जहां शिवा परियार गोराही में सिलाई की दुकान चलाते हैं. दलित जाति की शिवा के लिए सिलाई की दुकान चलाना अपने आप में किसी उपलब्धि से कम नहीं है. शिवा बताती हैं कि उन्होंने […]

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गोराही, नेपाल की राजधानी काठमांडू से लगभग 400 किलोमीटर दूर बसा एक छोटा-सा क़स्बा है, जहां शिवा परियार गोराही में सिलाई की दुकान चलाते हैं.

दलित जाति की शिवा के लिए सिलाई की दुकान चलाना अपने आप में किसी उपलब्धि से कम नहीं है.

शिवा बताती हैं कि उन्होंने इस दुकान के लिए नेपाल महिला सामुदायिक सेवा केंद्र से पांच हज़ार रुपये उधार लिए थे.

नेपाल महिला सामुदायिक सेवा केंद्र, ज़रुरतमंद लोगों को इस तरह कर्ज़ देती है ताकि वो अपना काम-धंधा शुरू कर सकें.

सफलता की कहानी

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शिवा बताती हैं, "जब मैंने काम शुरु किया था, तब मेरे पास सिर्फ़ एक सिलाई मशीन थी. मेरे पति ने दुकान चलाने में मेरी मदद की. आज मेरे पास दस सिलाई मशीन हैं और मैंने आठ लोगों को काम पर रखा है."

वे कहती हैं, "मैंने थोड़ी सी ज़मीन भी ख़रीद ली है. मेरे बच्चे स्कूल जाते हैं और मेरे पति के पास बाइक भी है. मैं अपनी तरक्क़ी से ख़ुश हूं और ये सारी तरक्क़ी बीते 12 साल में हुई है."

गोराही क़स्बे में ही एक और महिला इस तरह सफलता की कहानी लिख रही हैं. उनका नाम बाम कुमारी है और उनका पेशा है सुअर पालना.

शिवा की तरह बाम कुमारी ने भी एक अन्य ग्रामीण महिला उत्थान केंद्र से रुपये उधार लिए थे और अपने काम-धंधा शुरू किया था.

घर की जरूरतें

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वे बताती हैं कि इस काम से उन्हें इतनी कमाई हो जाती है कि उनका परिवार ठीक से गुज़र-बसर कर रहा है.

बाम कुमारी कहती हैं, "हां, सुअर पालने से मुझे फ़ायदा हो रहा है. हर चार महीने में सुअर के बच्चे पैदा होते हैं. मैं उन्हें थोड़ा बड़ा होने पर चार हज़ार रुपये में बेच देती हूं. आज मेरे पास 18 सुअर हैं."

उन्होंने बताया, " मेरे बच्चे पढ़ने के लिए स्कूल जा रहे हैं और इस काम से होने वाली आमदनी से मेरे घर की ज़रूरतें भी पूरी हो रही हैं.

नेपाल में शिवा और बाम कुमारी जैसी हज़ारों महिलाएं हैं. देश में ऐसे कई संस्थान हैं जो ज़रूरतमंद लोगों को अपना काम शुरू करने के लिए छोटी-छोटी रकम उधार देते हैं.

अपना रोज़गार

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नेपाल इस मामले में दरअसल बांग्लादेश के नोबेल शांति पुरस्कार विजेता प्रोफेसर मोहम्मद युनुस के मॉडल पर काम कर रहा है.

इसमें आमतौर पर पांच महिलाएं मिलकर एक समूह बनाती हैं और अपना रोज़गार शुरू करती हैं.

सहकारी संस्थाएं उन्हें इसके लिए रुपये उधार देने के साथ ही प्रशिक्षण भी देती हैं.

सहकारी संस्थाओं का कहना है कि नेपाल में इसकी वजह से हज़ारों महिलाओं को गरीबी से उबरने में मदद मिली है और वो आज अपने पैरों पर खड़ीं हैं.

देहाती महिलाएँ

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गोराही स्थित ग्रामीण महिला उत्थान केंद्र की संस्थापक अस्मनी चौधरी बताती हैं, "हमने कृषि आधारित उद्योग शुरू करने के लिए महिलाओं की मदद की है. इसमें सब्ज़ी-भाजी उगाना, मधुमक्खियां, सुअर और भेड़ पालने जैसे व्यवसाय शामिल हैं."

देहाती महिलाओं को पहले जिस काम के लिए जंगलों में भटकना पड़ता था, उसे वो अब अपने ही खेतों में कर रही हैं.

सहकारी आधार पर शुरू हुई इस मुहिम में अब कुछ क़ारोबारी समूह भी शामिल हो गए हैं.

लेकिन अधिकारियों का कहना है कि उनकी वजह से इस क्षेत्र में एक तरह की ख़राब होड़ शुरू हो गई है.

सबसे गरीब व्यक्ति

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नेपाल राष्ट्र बैंक के प्रवक्ता मनमोहन श्रेष्ठ कहते हैं, "नेपाल में बैंक सुविधाएं, केवल 40 प्रतिशत आबादी तक ही पहुंच पाती हैं. इसलिए हम छोटी रकम उधार देने वाली संस्थाओं को दूर-दराज़ के ग्रामीण इलाकों में बढ़ावा दे रहे हैं. हम उनकी गतिविधियों पर भी नज़र रख रहे हैं ताकि उनमें स्वस्थ प्रतिस्पर्धा हो."

नेपाल में लाखों लोग गरीब हैं. यहां काम-धंधा शुरू करने के लिए संस्थाएं ज़रूरतमंद लोगों को जिस तरह रुपये उधार दे रही हैं, उससे नेपाल में ग़रीबी को ख़त्म करने में काफी मदद मिल रही है.

लेकिन अधिकारियों का ये भी कहना है कि इस राह में अभी कई चुनौतियां बाक़ी हैं. जब ये संस्थाएं सबसे ग़रीब व्यक्ति तक अपनी मदद पहुंचा पाएंगी, तब सही मायने में ग़रीबी ख़त्म हो पाएगी.

(सभी तस्वीरें नेपाल महिला सामुदायिक सेवा केंद्र की ओर से उपलब्ध कराई गई हैं.)

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