।। शशांक ।।
(पूर्व विदेश सचिव)
भारतीय कूटनीति में हाल के वर्षों में आर्थिक कूटनीति पर जोर बढ़ा है. उदारीकरण से पहले कूटनीति का मुख्य एजेंडा राजनीतिक होता था. उस समय न तो वैश्विक स्तर पर आर्थिक क्षेत्र में भारत बड़ा खिलाड़ी था, न ही वैश्विक मामलों में उसकी कोई खास पूछ थी. पर, 1991 में नयी आर्थिक नीतियां लागू होने के बाद हालात तेजी से बदलने लगे. उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण ने भारत को आर्थिक क्षेत्र में एक बड़ी शक्ति के तौर पर सामने लाने में मदद की. उसी का परिणाम है कि आज भारत विश्व के प्रमुख देशों के लिए आउटसोर्सिंग का पसंदीदा स्थान बन गया है. इसकी वजहें भी हैं.
पिछले दशक में विश्व के विभिन्न देशों में कई उतार-चढ़ाव देखने को मिले हैं. चीन पिछले 25 सालों में करीब 9 फीसदी की दर से आर्थिक विकास कर रहा है. भारत ने भी पिछले दशक में आर्थिक विकास दर के मोरचे पर अच्छी सफलता हासिल की थी. मौजूदा वैश्विक माहौल में भारत को तय करना पड़ा कि उसकी विदेश नीति किस दिशा में जाये, और तब आर्थिक कूटनीति पर जोर दिया जाने लगा.
आज वैश्विक कूटनीति में आर्थिक गतिविधियों का महत्व काफी बढ़ गया है. अमेरिका की विदेश नीति में एशिया को प्रमुखता दी गयी है. अमेरिका के लिए इसका सामरिक व आर्थिक महत्व है. उसके लिए चीन और भारत प्रमुख बाजार हैं. आर्थिक सहयोग को बढ़ा कर वह इन देशों के साथ व्यापार बढ़ाना चाहता है. आज एशिया सबके ध्यान में है. विश्व बैंक से लेकर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष तक ने विकासशील देशों को आर्थिक मदद मुहैया करायी है.
विश्व बैंक से मदद पाने में भारत अव्वल है. लेकिन, ये संस्थाएं जरूरत के लिहाज से मदद देने में नाकाम रही है. इसी लिए हमारा इंफ्रास्ट्रक्चर बेहतर नहीं हो पाया है. साथ ही करेंसी में उतार-चढ़ाव से भी नुकसान उठाना पड़ता है. इसी को ध्यान में रखते हुए ब्रिक्स समूह ने ब्रिक्स बैंक खोलने का फैसला लिया है. इसमें भारत की भूमिका महत्वपूर्ण होगी.
आर्थिक कूटनीति का प्रभाव तत्काल नहीं होता है, बल्कि इसका असर पांच साल बाद दिखाई पड़ता है. आज मतभेदों के बावजूद आर्थिक मोरचे पर देशों के बीच सहयोग बढ़ रहा है. चीन के साथ लंबे अरसे से भारत का सीमा-विवाद चल रहा है, लेकिन आर्थिक सहयोग जारी है. नरेंद्र मोदी सरकार का भी आर्थिक कूटनीति पर विशेष ध्यान है. हाल में प्रधानमंत्री की जापान यात्रा के दौरान यह दिखा. जापान ने पांच सालों में भारत में 35 बिलियन डॉलर निवेश करने की बात कही है. इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए चीन ने भी भारत में 100 बिलियन डॉलर निवेश करने की घोषणा की है.
चीनी राष्ट्रपति शी जिंगपिंग के भारत दौरे के दौरान कई अहम व्यापारिक समझौते हो सकते हैं. भारत और चीन के बीच व्यापार में काफी असंतुलन है. भारत की इस चिंता को दूर करने के लिए चीन ने निवेश करने की बात कही है. यही नहीं, अमेरिका ने भी अगले पांच साल में भारत में 500 बिलियन डॉलर निवेश करने का लक्ष्य रखा है.
आर्थिक सहयोग के कारण वैश्विक स्तर पर नये समीकरण बन रहे हैं. आर्थिक दृष्टिकोण से इसका असर निश्चित तौर पर दिखेगा. इसका सामरिक महत्व भी है. चीन और भारत उभरती अर्थव्यवस्थाएं हैं. अर्थशास्त्रियों के अनुसार, 20 साल बाद ये दोनों देश दुनिया पहली और दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं बन सकती हैं. चीन अगर 10 फीसदी विकास दर के साथ आगे बढ़ रहा है तो भारत दो फीसदी के साथ उसका मुकाबला नहीं कर सकता है.
आर्थिक विकास पर जोर देना मोदी का सबसे मजबूत पक्ष है. गुजरात में बतौर मुख्यमंत्री उन्होंने इसे करके दिखाया है. अब वे देश में ऐसा करना चाहते हैं. इसके लिए विभिन्न देशों से आर्थिक समझौते जरूरी हैं. विदेश नीति में आर्थिक कूटनीति का काम सिर्फ विदेश मंत्रालय नहीं कर सकता है, अन्य मंत्रालयों व संबद्ध संगठनों को भी कोशिश करनी है. प्रधानमंत्री ने जापानी निवेश को आकर्षित करने के लिए अपने कार्यालय में जापान प्लस बनाने की घोषणा की है. ऐसा ही अन्य देश भी चाहेंगे, ताकि निर्णय प्रक्रिया में देरी नहीं हो.
नरसिंह राव के समय भी एएन वर्मा के नेतृत्व में निवेश को बढ़ाने के लिए कमिटी बनी थी. हमें घरेलू मोरचे पर भी तेजी से काम करना होगा और निवेश के रास्ते में आनेवाली बाधाओं को दूर करना होगा. दक्षिण कोरिया की कंपनी पोस्को ने 12 बिलियन डॉलर का स्टील प्लांट एक दशक पहले ओडि़शा में लगाने की घोषणा की थी. तब वह किसी निजी कंपनी द्वारा किया गया सबसे बड़ा निवेश था, पर कई कारणों से अब तक काम शुरू नहीं हो पाया है.
पर्यावरण मंजूरी मिलने में देरी, अदालत में मुकदमों व आंदोलनों के कारण यह लटका पड़ा है. वोडाफोन का मामला भी है. वैसे हालात नहीं बनने चाहिए. सरकार जो भी नीति बनाये, उस पर अमल जिम्मेवारी प्रधानमंत्री को लेनी होगी. अदालतें या गैर सरकारी संगठन ऐसा नहीं कर सकते हैं. ऐसा नहीं हुआ तो आर्थिक सहयोग का का लाभ भारत नहीं उठा पायेगा. आर्थिक विकास से ही रोजगार के अवसर पैदा होंगे.
कुल मिलाकर आज विदेश नीति बहुआयामी हो गयी है. देश के सामारिक और आर्थिक हितों को ध्यान में रख कर समझौते किये जा रहे हैं. इसे सिर्फ विदेश मंत्री या विदेश सचिव ही सही दिशा में नहीं ले जा सकते हैं. विदेश मंत्री अपना काम कर रहे हैं, लेकिन आर्थिक पहलू के लिए अन्य मंत्रालयों को भी अपना काम करना होगा. देश युवाओं की ताकत का सही प्रयोग तभी कर पायेगा, जब भारत आर्थिक तौर पर संपन्न बने, उन्हें रोजगार मिले. अच्छी बात है कि भारत की नयी सरकार इस मोरचे पर बेहतर काम करती दिख रही है. आर्थिक तौर पर संपन्न होकर ही कोई देश वैश्विक स्तर पर अपना प्रभाव बढ़ा सकता है.
(बातचीत पर आधारित)