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राजनीतिक आत्मकथाएं: राज़ को राज़ रहने दो

रेहान फ़ज़ल बीबीसी संवाददाता, दिल्ली एक तो भारत के राजनीतिज्ञ बहुत कम आत्मकथाएं लिखते हैं और अगर लिखते भी हैं तो ऐसा बहुत कम होता है कि उन पर कुछ विवाद न उठ खड़ा हो. कभी-कभी तो जानबूझ कर पुस्तक के कुछ ऐसे अंशों को प्रकाशित किया जाता है जिससे हंगामा बरपा हो और किताब […]

एक तो भारत के राजनीतिज्ञ बहुत कम आत्मकथाएं लिखते हैं और अगर लिखते भी हैं तो ऐसा बहुत कम होता है कि उन पर कुछ विवाद न उठ खड़ा हो.

कभी-कभी तो जानबूझ कर पुस्तक के कुछ ऐसे अंशों को प्रकाशित किया जाता है जिससे हंगामा बरपा हो और किताब की बिक्री बढ़ जाए.

हाल में जब नटवर सिंह की आत्मकथा ‘वन लाइफ़ इज़ नॉट एनफ़’ प्रकाशित हुई तो प्रकाशक और लेखक दोनों का ज़ोर उन अंशों पर था जिसमें कहा गया था कि सोनिया गाँधी के प्रधानमंत्री पद ठुकराने का मुख्य कारण राहुल गाँधी का इसके लिए तैयार न होना था.

वैसे तो उनकी पूरी किताब काफ़ी दिलचस्प हैं और उसमें उन क़िस्सों कहानियों का अंबार है जिसे पढ़ने में भारतीय लोगों को काफ़ी मज़ा आता है.

पढ़िए रेहान फ़ज़ल का पूरा लेख

लेकिन चर्चा सिर्फ़ उन हिस्सों की हुई जिनमें सोनिया और राहुल का ज़िक्र था और स्वयं नटवर सिंह ने अपनी किताब की प्रस्तावना में ये लिख कर इसको और बढ़ावा दिया कि स्वयं सोनिया गाँधी अपनी बेटी के साथ उनके घर ये अनुरोध करने आई थीं कि वो इस प्रकरण का ज़िक्र अपनी किताब में न करें.

किताब के छापने की टाइमिंग पर भी सवाल उठे. उनके आलोचकों ने कहा कि अगर नटवर इतना बड़ा रहस्योघाटन करना ही चाहते थे तो उन्होंने कांग्रेस के सत्ता से बाहर जाने का क्यों इंतज़ार किया. ये बात वो पिछले दस वर्षों में कभी भी बता सकते थे.

राजनीतिक हिसाब बराबर करने का ज़रिया

इसी तरह जब संजय बारू ने अपने पूर्व बॉस मनमोहन सिंह पर किताब लिखी थी तब भी यह कहा गया कि यह किताब तब आई जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के रूप में अपने अंतिम दिन काट रहे थे और उनका बड़े से बड़ा समर्थक भी यह मान रहा था कि अब वह ‘सेवन आरसीआर’ में तो कभी वापस नहीं आने वाले.

कुछ अपवादों को छोड़कर इन आत्मकथाओं के बारे में आम राय यह बन पड़ी है कि ये राजनीतिक हिसाब बराबर करने का एक माध्यम बनती जा रही हैं.

इसकी शुरुआत संभवतः जवाहरलाल नेहरू के पूर्व सचिव एमओ मथाई ने की थी जब 1977 में कांग्रेस के सत्ता से बाहर होते ही उन्होंने अपने ‘मेमॉएर्स रेमिनिसेंसेज़ ऑफ़ नेहरू एज’ लिखे थे जिसमें उन्होंने नेहरू को तो बख़्श दिया था लेकिन उनकी बेटी इंदिरा गाँधी के बारे में कई आपत्तिजनक बातें कही थीं.

किताब में एक अध्याय का शीर्षक ‘शी’ दिया गया था और उसके नीचे प्रकाशकों की तरफ़ से लिखा गया था कि लेखक ने डीएच लॉरेंस के अंदाज़ में लिखे गए इस अध्याय को अंतिम क्षणों में वापस ले लिया था.

एक साल बाद जब इंदिरा गांधी सत्ता में आईं तो सुनने में आया कि उस अध्याय की पांडुलिपि हासिल करने के लिए पुलिस ने मथाई के घर पर छापा मारा था लेकिन उसे सफलता नहीं मिली.

इंदिरा पर तीन किताबें

राजनीतिक अवसरवाद का दूसरा सबसे बड़ा उदाहरण थी उमा वासुदेव की इंदिरा गाँधी पर लिखी दो पुस्तकें. आपातकाल से पहले लिखी पुस्तक का शीर्षक था ‘इंदिरा गांधी रिवॉल्यूशन इन रिस्ट्रेंट.’ इसमें इंदिरा गांधी के ऐसे क़सीदे पढ़े गए थे जिसकी कोई मिसाल नहीं थी.

इसके ठीक तीन साल बाद उसी विषय पर उमा वासुदेव की दूसरी किताब का शीर्षक था, ‘टू फ़ेसेज़ ऑफ़ इंदिरा गाँधी’ और इसमें इंदिरा गाँधी को भारत की सबसे बड़ी खलनायिका के रूप में दिखाया गया था.

दिलचस्प बात ये है कि उन्होंने 26 साल बाद इंदिरा गाँधी पर तीसरी किताब लिखी ‘करेज अंडर फ़ायर’ और इसमें इंदिरा गांधी फिर से उनकी हीरोइन बन गई थीं.

90 के दशक में भारतीय सेना के पूर्व वरिष्ठ अफ़सर जनरल जेएफ़आर जैकब की किताब आई थी, ‘सरेंडर एट ढाका’ जिसमें उन्होंने बांगलादेश की लड़ाई की जीत में सैम मानेक शॉ की भूमिका पर सवाल उठाए थे. तब भी कहा गया था कि जनरल जैकब को ये सच बताने में दो दशक क्यों लग गए?

राज़ चिता तक

कहा जाता है कि अपनी कहानी कहना भी हर एक के बस की बात नहीं. हाल ही में भारत के पूर्व गृहमंत्री और इस समय पंजाब के राज्यपाल शिवराज पाटिल की आत्मकथा ‘ओडीसी ऑफ़ माई लाइफ़’ आई है.

इस किताब का इस्तेमाल वो मुंबई हमलों के समय अपनी भूमिका पर रोशनी डालने के लिए कर सकते थे लेकिन पूरी किताब इतनी नीरस और कंटेंट रहित है कि इसका इस्तेमाल नींद न आने वाले लोगों के लिए दवाई के रूप में किया जा सकता है.

उसी तरह पूर्व मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह की आत्मकथा ‘ए ग्रेन ऑफ़ सैंड इन द ओशन ऑफ़ टाइम’ से भी बहुत उम्मीदे थीं ख़ासकर इसलिए कि यह किताब उनकी मौत के बाद छपी थी. लेकिन इसमें भी नेहरू परिवार के महिमामंडन के सिवा कुछ नहीं था.

हाँ, नरसिम्हा राव के ख़िलाफ़ उन्होंने अपनी भड़ास ज़रूर निकाली थी और वह भी शायद इसलिए क्योंकि तब तक नरसिम्हा राव भी स्वर्ग सिधार चुके थे और उनके आरोपों का जवाब नहीं दे सकते थे. उन्होंने उस रवायत को सही सिद्ध किया है कि भारतीय राजनेता अपने राज़ को अपनी चिता तक ले जाते हैं.

दोस्ती के दो अलग-अलग मापदंड

नटवर सिंह अपनी किताब में कहते हैं कि 1944 से उनके नेहरू परिवार के साथ संबंध थे. उन्हें सबसे बड़ा अफ़सोस है कि वोल्कर मामले में सोनिया ने इन संबंधों के ख़ातिर उन्हें संदेह का लाभ नहीं दिया.

इसी किताब में वह एक घटना बताते हैं कि उन्होंने कैसे राजीव गाँधी को सलाह दी कि उन्हें तत्कालीन रक्षा मंत्री अरुण सिंह को बर्ख़ास्त कर देना चाहिए.

जब राजीव गाँधी ने कहा कि अरुण उनके दोस्त हैं तो नटवर ने कहा, "सर आप दून स्कूल की ओल्ड ब्वॉएज़ एसोसिएशन के अध्यक्ष नहीं हैं. आप भारत के प्रधानमंत्री हैं. प्रधानमंत्री का कोई दोस्त नहीं होता."

एक ही किताब में दोस्ती के दो अलग-अलग मापदंड हैं, नटवर सिंह जी!

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