पहले विश्व युद्ध में ग्यारह लाख भारतीय सैनिकों ने ब्रिटिश साम्राज्य के लिए लड़ाई लड़ी थी. इनमें से 60,000 सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी.
70,000 सैनिक हमेशा के लिए अपंग हो गए और 9200 सैनिकों को उनकी वीरता के लिए पदक मिले.
लेकिन इतिहास के पन्नों में उनकी बहादुरी को शायद वो जगह नहीं मिली जिसके वो हक़दार हैं.
प्रथम विश्व युद्ध की शताब्दी पर रेहान फ़ज़ल याद कर रहे हैं उन सिपाहियों के योगदान को.
पढ़ें पूरी विवेचना
उस रात तिगरिस नदी का पानी किनारों से ऊपर बह रहा था. कोतलाआरा में 6 इंडियन डिवीज़न घेरे में आ गई थी. घिरे हुए सिपाही ज़िंदा रहने के लिए घोड़ों को मारकर खा रहे थे, भूख से बचने के लिए घास उबाली जा रही थी.
53वीं सिख टुकड़ी को ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी कि वो इस घेरे को तोड़ें. उनके सामने 2000 गज़ का फ़ासला था जो चटियल मैदान था. कवर लेने के लिए कोई पेड़ तक नहीं था.
जब तुर्क ठिकाने तक पहुंचने के लिए 1200 गज़ रह गए थे तभी हवलदार अर्जन सिंह ने देखा कि एक ब्रिटिश अफ़सर को गोली लग गई है. उन्होंने उसे कंधे पर उठा कर पीछे की ओर ले गए.
इसके लिए उन्हें इंडिया डिस्टिंग्विश्ड सर्विस मेडल दिया गया. अर्जन के पोते स्क्वाड्रन लीडर राणा तेजप्रताप सिंह छीना बताते हैं कि उनके दादा को उनकी ब्रांडी ने बचाया था.
ब्रांडी सैनिकों के लंबे कोट को कहा जाता था क्योंकि वो उन्हें ब्रांडी की तरह गरम रखता था. जब अर्जन पर फ़ायर आया, उस समय वो ब्रांडी को मोड़ कर अपनी पीठ पर लपेटे हुए थे. गोली लगने से वो गिरे ज़रूर लेकिन गोली उनके पार नहीं जा पाई.
पंद्रह रुपए महीने की तनख़्वाह
भारतीय परिपेक्ष्य से प्रथम विश्व युद्ध की कहानी अभी तक सुनाई ही नहीं गई है. 1914 से 1919 तक भारत से 11 लाख सैनिक विदेश लड़ने गए. उनमें से 60,000 कभी वापस नहीं लौटे. उनको फ़्रांस, ग्रीस, उत्तरी अफ़्रीक़ा, फ़लस्तीन और मेसोपोटामिया में ही दफ़ना दिया गया.
70,000 लोग वापस ज़रूर आए, लेकिन उनका कोई न कोई अंग हमेशा के लिए जा चुका था. उनको 9,200 से अधिक वीरता पुरस्कार मिले, जिनमें वीरता के सबसे बड़े पदक 11 विक्टोरिया क्रॉस भी शामिल हैं.
इन सैनिकों के अलावा इस लड़ाई में भारत से हज़ारों धोबी, ख़ानसामे, नाई और मज़दूर भी फ़्रंट पर गए थे. इसके अलावा भारत ने आठ करोड़ पाउंड के उपकरण और साढ़े 14 करोड़ पाउंड की सीधी आर्थिक सहायता भी युद्ध कार्यों के लिए दी.
पंजाब में इसे ‘लाम’ या लंबी लड़ाई कहा गया. ब्रिटेन ने पहली बार भारतीय लोगों को एक सैनिक के रूप में गंभीरता से लेना शुरू किया.
भारत की दृष्टि से देखा जाए तो ये एक आम आदमी की लड़ाई थी जो सिर्फ़ 15 रुपए महीने के लिए अपना घर-बार छोड़ कर विदेश लड़ने गए थे.
‘द वीक’ पत्रिका की संवाददाता मंदिरा नैयर कहती हैं कि यूरोप की भयानक सर्दी से बचने के लिए उन्होंने नायाब टोटका ईजाद किया था- वेसलीन!
इन सिपाहियों के भेजे मनी ऑर्डर्स ने स्थानीय अर्थव्यवस्था को बदल कर रख दिया था. हरियाणा अकादमी ऑफ़ हिस्ट्री एंड कल्चर के निदेशक केसी यादव बताते हैं, ”किसानों ने वहाँ से भेजे गए पैसे से ज़मीन ख़रीदी.”
चाय पीने का रिवाज
इस लड़ाई से कई सामाजिक दूरियाँ भी कम हुई. एक सैनिक ने युद्ध मोर्चे से ‘द जाट गज़ट’ के संपादक सर छोटू राम को चिट्ठी लिखी, ”सभी सामाजिक बंदिशें ख़त्म हो गई हैं. पच्चीस फ़ीसदी सैनिक अब साथ बैठ कर खाना खाते हैं.”
लौटे सैनिकों का राजनीतिक रसूख़ भी बढ़ा. 1920 के एक चुनाव में मामूली रिसालदार स्वरूप सिंह ने क़द्दावर जाट नेता सर छोटू राम को हरा दिया.
इन सैनिकों के लौटने के बाद ही भारत में चाय पीने का चलन शुरू हुआ. चाय सिपाहियों के राशन का पहली बार हिस्सा बनी और हर एक को 1/ 3 आउंस चाय दी गई. वापसी पर अपने साथ वे कलाई घड़ियाँ ले आए और फ़ुटबॉल का खेल भी.
इस लड़ाई से ही ये अंधविश्वास शुरू हुआ कि दियासलाई की एक तीली से तीन सिगरेट नहीं जलाई जानी चाहिए. जब तक तीसरी सिगरेट जलाई जाती, विरोधी स्नाईपर को सैनिक के ठिकाने का पता चल जाता.
ब्रिटेन की ओर से युद्ध में शामिल हुए मशहूर लेखक एचएच मनरो को आंकरे की लड़ाई में जब गोली लगी तो उनके आख़िरी शब्द थे, ‘पुट आउट दैट ब्लडी सिगरेट.’
काली चमड़ी में सोने का दिल
‘पटियाला एंड द ग्रेट वॉर’ पुस्तक के अनुसार पंजाब से साढ़े तीन लाख सैनिक और 97,000 आम नागरिक लड़ाई पर गए थे. लड़ने वाले मराठों में अधिकतर मुंबई के तांगे वाले थे.
मंदिरा नैयर कहती हैं कि शुरू में ब्रिटिश उनका इस्तेमाल घायल हो रहे ब्रिटिश सैनिकों के लिए कैनन फ़ोडर या तोप चारे के तौर पर करना चाहते थे, लेकिन उन्होंने कई जगह अपनी बहादुरी का लोहा मनवाया.
राणा छीना कहते हैं, ”उस ज़माने में अंग्रेज़ों की मार्शल रेस थ्योरी थी. उन्होंने बंगालियों और दक्षिण भारतीयों को इस लड़ाई में बहुत कम शामिल किया.”
होडसन हॉर्स के चिकित्सा अधिकारी कैप्टन एस दत्त को भयानक गोलीबारी के बीच एक घायल को बचाने के लिए विक्टोरिया क्रॉस दिया गया.
पूना हॉर्स के कैप्टन रोली ग्रिमशॉ ने अपनी डायरी में लिखा, ”इन साधारण भारतीय सैनिकों का दिल सोने का है. उन्होंने कभी भी शिकायत नहीं की कि उनका आधा शरीर जम गया है या वो जिस स्तर की लड़ाई लड़ रहे हैं, वैसी उन्होंने कभी नहीं लड़ी या उन्हें लड़ने के लिए वो हथियार दिए गए जिनको पहले उन्होंने छुआ तक नहीं था.”
चार्ल्स ट्रेंच ने अपनी किताब ‘द किंग्स एनीमीज़ 1900-1947’ में लिखा, ”मेरठ और लाहौर डिवीजन के सैनिक छोटी ली इनफ़ील्ड रायफ़लों के साथ सिर्फ़ दो दिन अभ्यास करके लड़ाई में उतर गए.”
ज़हरीली गैस को झेला
यिप्रिस की लड़ाई में जर्मन सैनिकों ने भारतीय मोर्चेबंदी को बुरी तरह से धवस्त किया. सिर्फ़ एक भारतीय सैनिक ख़ुदादाद खाँ बच गए. बलूच रेजिमेंट के ख़ुदादाद खाँ को पहला विक्टोरिया क्रॉस मिला.
एक भारतीय हवलदार ने कहा, ”लगता है हम नर्क में आ पहुंचे हैं.”
फ़्लैंडर्स के फ़ील्ड म्यूज़ियम में एक तस्वीर है जिसमें इस गैस के असर को दिखाया गया है. मैदान में चारों तरफ़ लाशें बिखरी पड़ी हैं. इस लड़ाई में 47 सिख रेजीमेंट के 78 फ़ीसदी सैनिक मारे गए थे.
लेकिन एक भारतीय सैनिक मीर दाद ने कई सैनिकों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया था. उन्हें भी विक्टोरिया क्रॉस दिया गया था.
राजमहल बना सैनिक अस्पताल
ब्राइटन के एक राजमहल को सैनिक अस्पताल के रूप में बदल दिया गया. हांलाकि 64 साल पहले ही रानी विक्टोरिया ने इसे ब्राइटन कॉरपोरेशन को बेच दिया था, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इन अफ़वाहों को बढ़ावा दिया कि राजा जॉर्ज पंचम ने घायल भारतीय सैनिकों के लिए अपना महल ख़ाली कर दिया.
इस महल में 724 बिस्तर थे. यहां सिख गुरुद्वारा और नमाज़ पढ़ने की जगह बनाई गई.
पूरे अस्पताल में उर्दू, गुरमुखी और हिंदी में साइनबोर्ड लगाए गए. मुसलमान सैनिकों के लिए हलाल गोश्त की भी व्यवस्था की गई. जब भी उन्हें समुद्र तट पर घूमने के लिए ले जाया जाता, ब्राइटन के नागरिकों में उनसे हाथ मिलाने के लिए होड़ लग जाती और वो उनके हाथ में सिगरेट और चॉकलेट्स पकड़ा देते. रॉयल पवेलियन में 4,306 भारतीय सैनिकों का उपचार किया गया.
कुछ लोगों की वहीं पर मौत भी हुई. इनमें से 53 हिंदू और सिख सैनिकों का ब्राइटन के बाहर एक गाँव में अंतिम संस्कार किया गया और उनकी अस्थियाँ समुद्र में बहा दी गईं, जबकि 21 मुस्लिम सैनिकों को वोकिंग की मस्जिद के अहाते में दफ़नाया गया.
इतिहास की अवहेलना
ये वो लोग थे जिन्होंने सपने देखे. जिन्हें फ़्रेंच महिलाओं से अनेकों प्रेम पत्र मिले… जो मरे भी और जिन्होंने मारा भी. इन सैनिकों की याद में शायद पहला स्मारक तीन मूर्ति भवन के सामने बना.
वहाँ तीन सैनिकों की जो मूर्तियाँ है वो हैदराबाद, मैसूर और जोधपुर के उन सैनिकों की याद में बनाई गई हैं जो 15वीं इंपीरियल कैवेलरी ब्रिगेड के सदस्य थे. आश्चर्य की बात ये है कि इन लाखों सैनिकों की क़ुर्बानी को बहुत आसानी से भुला दिया गया.
राणा छीना कहते हैं कि उस समय भारतीय सैनिकों की कोई राजनीतिक पहचान नहीं थी. लड़ाई के बाद अंग्रेज़ अपने वादे से मुकर गए और भारत को आज़ादी नहीं मिली, इसलिए इन सैनिकों के योगदान को भी भुला दिया गया.
एक अंग्रेज़ कवि एडवर्ड हाउज़मेन ने ज़रूर लिखा-
इन लोगों ने जब स्वर्ग नीचे गिर रहा था
और धरती की नींव हिलने लगी थी,
किराए पर लड़ने का अनुरोध सुना
अपनी तनख़्वाह ली और सिर पर कफ़न बाँध लिया.
उनके कंधों ने संभाला गिरते हुए आसमान को,
वो खड़े रहे कि धरती की नींव न हिल जाए
जिसे ईश्वर ने भी छोड़ दिया
उसकी उन्होंने रक्षा की
अपनी जान की आख़िरी क़ीमत चुका कर.
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए यहां क्लिक करें. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर भी फ़ॉलो कर सकते हैं.)