स्वराज-प्राप्ति की यह लड़ाई भी उतनी ही पुरानी है, जितनी पुरानी इस देश को लोकतांत्रिक बनाये रखने की लड़ाई. इस लड़ाई ने समय के अनुकूल भेष बदला है, भाषा बदली है लेकिन निरंतर कायम रही है, यह भारतीय राजनीति की तीसरी धारा है, जिसने सत्ता के विकेंद्रीकरण के विचार को प्रमुख मान कर कभी राम मनोहर लोहिया, कभी जेपी तो कभी वीपी सिंह के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करवायी.
चार सौ से ज्यादा सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़ा करने के बावजूद आम आदमी पार्टी के सिर्फ चार उम्मीदवार जीत पाये. चुनाव से पहले आरोप लगे कि उम्मीदवारों के चयन के मामले में पार्टी अपने ही तय मानकों की अनदेखी कर रही है और चुनाव के बाद पार्टी में अंदरूनी लोकतंत्र के अभाव का आरोप लगा कर कुछ संस्थापक सदस्य अगर पार्टी छोड़ रहे हैं, तो कुछ पार्टी के शीर्ष-पद से इस्तीफा दे रहे हैं. पार्टी की दिशाहीनता के प्रमाण में तर्क दिया जा रहा है कि इसके निर्णयों में कच्चापन है और यही कच्चापन दिल्ली विधानसभा के चुनाव के बाद सरकार बनाने या फिर हड़बड़ी में इस्तीफा देने में प्रकट हुआ. संक्षेप में कहें तो नेतृत्व की निर्णय-क्षमता के तथाकथित कच्चेपन और सोलहवीं लोकसभा के लिए हुए चुनावों में पार्टी के प्रदर्शन के आधार पर भारतीय राजनीति के कुछ पर्यवेक्षकों की बीच आम आदमी पार्टी के भविष्य को लेकर एक नकारात्मक राय बन रही है.
तो क्या इन बातों को आम आदमी पार्टी के भविष्य के लिए निर्णायक मान कर कह दिया जाये कि देश की राजनीति में एक नयी लकीर खींचने की उसकी कोशिशों पर जल्द ही पूर्ण विराम लग जायेगा और पार्टी जिस तेजी से उभरी थी तकरीबन उसी तेजी से समय के भंवर में डूब जायेगी? इसी सवाल को दूसरे शब्दों में यूं भी पूछा जा सकता है कि क्या चुनावों में जीत दिलाना और स्थायी सरकार चलाना ही किसी पार्टी के नेतृत्व के पौढ़े होने का प्रमाण है और क्या किसी पार्टी का चुनावों में भारी-भरकम जीत दर्ज करना और स्थायी सरकार दे पाना ही राजनीति में उसके होने का एकमात्र औचित्य है? क्या हम यह मान कर चलें कि दरअसल, लोकतंत्र के भीतर जिस क्षण आप चुनाव हारते हैं, उसी क्षण आप समाप्त हो जाते हैं, चुनावी हार के साथ-साथ आपके होने का औचित्य भी समाप्त हो जाता है? नेता वही, जो चुनाव जितवाये और पार्टी वही जो सरकार चलाये- यह एक पैदल समझ है; कुछ उतनी ही पैदल जितना कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर यह मानना कि प्रचंड जनादेश लेकर एक बार सरकार बन जाये, तो फिर विपक्ष के होने का कोई तुक नहीं है.
लोकतंत्र के भीतर किसी पार्टी की चुनावी हार को उसके होने के औचित्य की हार नहीं कहा जा सकता. संसद में संख्या-बल की मौजूदगी से बस इतना भर तय होता है कि सरकार किसकी बनेगी और विपक्ष में कौन बैठेगा. संसद में संख्याबल से बस यह तय होता है कि राजव्यवस्था के संचालन में अपनी नीतियों को सरकार कहां तक बे-बाधा के चला पाती हैं और विपक्ष किस हद तक उन नीतियों के जनविरोधी स्वरूप की पहचान करके उन पर सांविधानिक दायरे में अंकुश लगा पाता है. क्या आपको नहीं लगता कि विगत पच्चीस सालों यानी दिल्ली में वीपी सिंह की सरकार के बनने और गिरने के बाद से देश की राजनीति में विपक्ष का संकट लगातार गहरा हुआ है और देश की राजनीति आज एक ऐसे मुकाम पर आ गयी है कि नीतियों के मामले में पक्ष और विपक्ष के बीच अंतर करना एकदम से असंभव हो गया है.
मिसाल के लिए, आज मुख्यधारा की राजनीति में एक भी पार्टी ऐसी मौजूद नहीं, जिसके पास देश के लिए दिशाबोध के स्तर पर एक वैकल्पिक भाषा हो. सरल शब्दों में कहें, तो सारी पार्टियां एकबारगी राज्यसत्ता को विकास-सत्ता में बदलने को आतुर नजर आ रही हैं. विकास में लोगों की न्यायपूर्ण हिस्सेदारी का सवाल सिरे से गायब हो गया है. क्या देश की राजनीति के पर्यवेक्षक के रूप में आपको यह बात तनिक भी विचलित नहीं करती कि इस देश में आजादी की औपचारिक शुरुआत कतार में खड़े अंतिमजन के आंख से आंसू पोंछने के नैतिक संकल्प से हुई थी और यह संकल्प छह दशकों में इस हद तक सिकुड़ गया है कि हमारी राजव्यवस्था ‘अंतिम जन’ को सशक्त बनाने के नाम पर अब बस बीपीएल कार्ड बनाया करती है.
खुद से सवाल पूछें कि अगर इस देश में चालीस करोड़ से ज्यादा लोग बीपीएल कार्डधारी होने योग्य हैं, तो क्या बीपीएल कार्डधारी होने भर से नागरिक होने के नाते प्राप्त अपने तमाम अधिकारों का उपयोग ये लोग स्वतंत्रतापूर्वक कर सकते हैं? क्या आपके मन में देश की संसद को लेकर यह सपना जागता है कि उसमें सिर्फ करोड़पति ही नहीं ऐसे लोग भी चुन कर आ सकें, जो अपनी जेब से फकीर हैं? अगर आपका उत्तर है कि बीपीएल कार्डधारी होना, दरअसल व्यवस्था के भीतर सर्वाधिक अशक्त होने का प्रमाण है और संसदीय राजनीति की बनावट ऐसी होनी चाहिए कि उसमें सिर्फ अरबपतियों ही नहीं, बल्कि जेब से फकीर भी बतौर नीति-नियामक प्रवेश कर सकें, तो फिर आप आम आदमी पार्टी के होने के औचित्य पर ठीक से विचार कर पायेंगे. तब आपको लगेगा कि आम आदमी पार्टी का युद्ध संसद में बैठने के लिए चुनावी लड़ाई करने और उसे जीतने भर तक सीमित नहीं है. यह तो उस महायुद्ध का एक हिस्सा भर है, जिसे चलती भाषा में हम आजादी की दूसरी लड़ाई और किताबी भाषा में स्वराज-प्राप्ति की लड़ाई का नाम देते हैं.
स्वराज-प्राप्ति की यह लड़ाई भी उतनी ही पुरानी है जितनी पुरानी इस देश को लोकतांत्रिक बनाये रखने की लड़ाई. इस लड़ाई ने समय के अनुकूल भेष बदला है, भाषा बदली है लेकिन निरंतर कायम रही है, यह भारतीय राजनीति की तीसरी धारा है, जिसने सत्ता के विकेंद्रीकरण के विचार को प्रमुख मान कर कभी लोहिया, कभी जेपी तो कभी वीपी सिंह के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करवायी. पक्ष-विपक्ष की आपसी सहमति राज्यसत्ता को विकास-सत्ता में बदलने की है और भारतीय लोकतंत्र में व्याप्त विपक्ष-हीनता की इस स्थिति से उबरने के लिए स्वराज-प्राप्ति की लड़ाई ने इस बार आम आदमी पार्टी का रूप धारण किया है. याद रहे, इस पार्टी का उभार हवा में नहीं हुआ. व्यवस्था से अकुलाये लोगों ने पहले जनांदोलनों का रुख किया, फिर व्यवस्था-परिवर्तन के सपने के साथ अपने को आम आदमी पार्टी के रूप में गोलबंद करने की कोशिश की. मुख्य कोशिश यही है, प्रधान स्वराज-प्राप्ति का विचार ही है. यह विचार आज अपने को आम आदमी पार्टी के रूप में साकार कर रहा है. आज की तारीख में आम आदमी पार्टी ही हमारे लोकतंत्र के भीतर वास्तविक विपक्ष है.
और, जो लोग नेतृत्व के कच्चेपन या फिर चुनावी-प्रदर्शन के आधार पर आम आदमी पार्टी का नाम अपनी लिस्ट से काटना चाहते हैं, वे याद रखें कि सेवाभावी लोगों की निष्ठा और दान में हासिल चंद रुपयों के दम पर पहली ही बार में चार सौ से ज्यादा सीटों पर उम्मीदवार खड़े करना, पंजाब में धारदार मौजूदगी दर्ज कराना, दिल्ली में कांग्रेस को तीसरे स्थान पर जाने के लिए मजबूर कर देना और धनबल तथा मीडियाबल के जोर वाले लोकसभाई चुनाव में तकरीबन ढाई फीसदी का वोट-शेयर हासिल करना स्वयं में आम आदमी पार्टी के मजबूत होने लक्षण के रूप में भी देखा जा सकता है.
चंदन श्रीवास्तव
फेलो, सीएसडीएस