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पेशाब पीकर रहे 70 घंटे जीवित

इमरान क़ुरैशी बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए चेन्नई में हुए इमारत हादसे में प्रकाश राउत नामक नौजवान घटना के 70 घंटों बाद भी मलबे से जीवित बच निकले. पिछले शनिवार चेन्नई के पोरुर इलाक़े में एक बहुमंज़िला इमारत ढह गई थी. उस हादसे में अब तक 61 लोग मारे जा चुके हैं. प्रकाश इमारत […]

चेन्नई में हुए इमारत हादसे में प्रकाश राउत नामक नौजवान घटना के 70 घंटों बाद भी मलबे से जीवित बच निकले.

पिछले शनिवार चेन्नई के पोरुर इलाक़े में एक बहुमंज़िला इमारत ढह गई थी. उस हादसे में अब तक 61 लोग मारे जा चुके हैं.

प्रकाश इमारत के सातवें माले पर फंसे हुए थे. अपनी जान बचाने के लिए उन्हें अपना पेशाब पीकर रहना पड़ा.

और उनकी जान किसी इंसान ने नहीं, बल्कि रुस्तम नाम के लैब्राडोर कुत्ते ने बचाई.

हालांकि चेन्नई में रोज़ी-रोटी कमाने आए प्रकाश और उनके जैसे कई अन्य कामगारों का कहना है कि वे अब कभी चेन्नई वापस नहीं आएंगे.

पढ़िए मलबे से 70 घंटे बाद निकले प्रकाश राउत की आपबीती विस्तार से

धीरे-धीरे उनकी उम्मीदें टूटने लगी थीं. उन्होंने सोच लिया था कि अगर वह इमारत के मलबे से नहीं निकल पाए तो आत्महत्या कर लेंगे.

प्रकाश राउत 70 घंटे से ज़्यादा वक़्त तक चेन्नई की उस इमारत के मलबे में फंसे रहे थे जिसके गिरने से अब तक 61 लोगों की मौत हो चुकी है.

प्रकाश इस दौरान इमारत के टूटे हुए कंक्रीट के टुकड़ों के बीच बनी दरार में फंसे रहे थे. वह इसी इमारत में प्लंबर का काम करते हैं.

इस दौरान अपनी भूख और प्यास मिटाने के लिए उन्हें अपना पेशाब पीकर रहना पड़ा.

प्रकाश ने फ़ोन पर बीबीसी हिन्दी को बताया, "शाम के चार बजे जब बिजली कटी तब मैं सातवें माले पर था. तब मैंने अपने दोस्त से कहा कि नीचे जाकर सुपरवाइज़र की डांट सुनने के बजाय यहीं बैठा जाए."

हमने सोचा था कि शाम पाँच बजे तक हम यहीं रहेंगे फिर आमतौर पर शनिवार को मिलने वाला अपना साप्ताहिक मेहनताना लेने के लिए जाएँगे.

इमारत झुकने लगी

वह बताते हैं, "अचानक बारिश होने लगी. जल्द ही इमारत एक तरफ़ झुक गई. अगले ही पल यह गिरने लगी."

प्रकाश फ़िलहाल अस्पताल में भर्ती हैं, जहाँ वह डॉक्टरों की निगरानी में हैं.

प्रकाश के अनुसार, "मैंने अपने दोस्तों को आवाज़ दी. मुझे लगा कि शायद वे मारे गए हैं. और आख़िरकार यही हुआ भी. मैंने इंतज़ार किया. मुझे अहसास हुआ कि रविवार बीत चुका है."

उन्होंने बताया, "मैं कई बार चिल्लाया. जिंदा रहने के लिए मुझे अपना ही पेशाब पीना पड़ा. सोमवार को मैंने सोचा कि अगर मैं जल्दी यहाँ से नहीं निकला तो आत्महत्या कर लूँगा."

25 वर्षीय प्रकाश ओडिसा के केंद्रपारा से चेन्नई आए हैं. जहाँ उनके परिवारे वाले खेत मज़दूर के रूप में काम करते हैं.

प्रकाश कहते हैं, "जब आप कंक्रीट के टुकड़ों और कीचड़ से महज तीन इंच दूर दबे हों, तो आपके मन में और कौन से दूसरे ख़्याल आ सकते हैं."

रुस्तम ने बचाई जान

लेकिन कई बार चिल्लाने के बाद भी किसी आदमी ने प्रकाश की आवाज़ नहीं सुनी. उनका पता तब चला जब रुस्तम ने उनकी गंध से उनका पता लगा लिया. रुस्तम नेशनल डिज़ास्टर रिस्पॉन्स फोर्स (एनडीआरएफ) का प्रशिक्षित कुत्ता है. उसे इस बात के लिए ख़ास प्रशिक्षण दिया गया है.

ब्लैक लैब्राडोर नस्ल के आठ साल के रुस्तम ने 11 मंजिला इमारत के मलबे में प्रकाश की गंध सूंघ कर एनडीआरएफ की टीम को आगाह किया. हालांकि तब तक एनडीआरएफ की टीम का ध्यान मलबे से शव निकालने पर केंद्रित हो चुका था.

रुस्तम और उनके तीन वर्षीय जर्मन शेफर्ड नस्ल के साथी बिल ने इस हादसे में एक दर्जन से ज़्यादा लोगों की जान बचाई.

एनडीआरएफ के कमांडेंट एमके वर्मा ने बीबीसी हिन्दी से कहा, "इस उत्साही नौजवान को बचाने के लिए हमें खुदाई करनी पड़ी."

वर्मा की टीम ने हादसे में फंसे 26 लोगों की जान बचाई.

लेकिन इस हादसे से बचने के बाद प्रकाश की भविष्य की क्या योजना है?

प्रकाश कहते हैं, "मैं अपने गाँव वापस जाऊंगा. अब मेरी कोई आकांक्षा नहीं है. मैं शांतिपूर्वक कोई काम कर लूँगा. लेकिन मैं अब कभी चेन्नई वापस नहीं आऊँगा."

‘चेन्नई नहीं आएंगे वापस’

प्रकाश जैसी ही कहानी कई और लोगों की भी है. लक्ष्मी और उनकी बेटी सुनीता आंध्र प्रदेश के विजयानगरम ज़िले के एक गाँव से चेन्नई आई थीं. इस हादसे में लक्ष्मी के पति और उनकी बड़ी बेटी की मौत हो गई.

लक्ष्मी जैसी औरतों को 200 रुपए प्रतिदिन का मेहनताना मिलता है. ऐसी ही एक महिला रावनम्मा कहती हैं, "हम यहाँ इसलिए आए हैं क्योंकि हमारे गाँव में हमारे लिए कोई काम नहीं है. अब हम सब कुछ खो चुके हैं, ऐसे में हमें वापस चेन्नई क्यों आना चाहिए?"

ये सभी औरतें दुर्घटनाग्रस्त इमारत में धुलाई, साफ़-सफाई का काम करती थीं. इन्हें इमारत के दूसरे, चौथे और पाँचवें माले से बचाकर निकाला गया.

यह हादसा दक्षिण भारत में पिछले 31 सालों में हुआ ऐसा दूसरा सबसे बड़ा हादसा है.

दोनों मामलों में एक चीज़ें साझा रहीं. 1983 में बैंगलोर में एक सात माले की इमारत के ढहने से 123 लोगों की मौत हो गई थी. उस हादसे के 10 दिन बाद, दो नौजवान मलबे से जीवित बाहर निकले थे. और इतने दिनों तक वे दोनों एक दूसरे का पेशाब पीकर जीवित रहे थे.

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