।। मोहन गुरुस्वामी ।।
अर्थशास्त्री
वित्तीय अनुदान (सब्सिडी) को लेकर अर्थशास्त्रियों, नेताओं और औद्योगिक खेमों के भिन्न दृष्टिकोण हैं. उदारीकरण के पैरोकार इसे हटाने, उद्योग इसे तर्कपूर्ण बनाने और अनेक नेता व कार्यकर्ता इसे बहाल रखने व बढ़ाने के पक्षधर हैं. बजट में सब्सिडी पर सरकार का रुख उसकी अर्थ-नीति की दिशा का संकेतक होगा. इस मसले पर एक नजर..
सारे शब्दाडंबरों को छोड़ दें, तो किसी सरकार का मुख्य काम करों की वसूली है. इस काम को प्रभावी ढंग से और सफलतापूर्वक करने के लिए उसे व्यवस्था और स्थिरता बनाये रखने की जरूरत होती है, ताकि अर्थव्यवस्था में विस्तार की स्थितियां बनी रहें. अर्थव्यवस्था जितनी बढ़ेगी, उतना राजस्व जमा होगा. इसलिए राजस्व की वसूली अर्थव्यवस्था की सफलता का सबसे विश्वसनीय मापदंड है.
राष्ट्र की शक्ति का सीधा संबंध इसके नागरिकों से जमा होनेवाले राजस्व से है. अमेरिका एक शक्तिशाली देश है, क्योंकि यह अपने नागरिकों से लगभग 17,464 डॉलर प्रति व्यक्ति राजस्व की वसूली करता है. जो लोग चीन के और फिर भारत के वैश्विक महाशक्ति होने की संभावना व्यक्त करते हैं, वे यह भूला जाते हैं कि चीन में यह वसूली मात्र 1,600 डॉलर प्रति व्यक्ति और भारत में 284 डॉलर प्रति व्यक्ति है. इसमें कोई संदेह नहीं कि चीन और भारत का सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) 30-40 साल में अमेरिकी जीडीपी के करीब पहुंच जायेगा. इसके बावजूद हम वास्तविक शक्ति के स्तर पर अमेरिका के आस-पास भी नहीं होंगे. सवाल यह है कि राज्य के पास खर्च करने के लिए कितना धन है.
भारत में कर वसूली
सरकार के पास कर वसूली के चार मुख्य तरीके होते हैं- कॉरपोरेट और व्यक्तिगत आयकर, बिक्री कर, सीमा शुल्क व आबकारी कर. जैसे ही बजट की तैयारियां शुरू होती हैं, सीआइआइ, फिक्की और एसोचैम जैसे वाणिज्यिक व औद्योगिक संस्थाएं इन करों की दरों में कटौती की मांग करने लगती हैं. इन संस्थाओं की मांग भले ही समुचित आर्थिक तर्को पर आधारित होती हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि ये अपने लिए अधिक की चाह और कम देने की नीयत रखते हैं. नि:संदेह कर-व्यवस्था तार्किक और संतुलित होनी चाहिए ताकि राज्य के पास उसके निजी व कॉरपोरेट नागरिकों पर बिना बोझ डाले खर्च करने के लिए अधिक धन हो.
इसी तार्किक और संतुलित कर-व्यवस्था को लागू करना ही अच्छी सरकार होने का मतलब है. अधिक कर लोगों को कर-चोरी के लिए उकसाता है और उद्यम का मुनाफा कम कर हतोत्साहित करता है. देश में एक दौर था, जब उच्च आय श्रेणी में आयकर की दर 98 फीसदी तक थी. नतीजा यह हुआ कि उस श्रेणी में गिने-चुने ईमानदार लोग ही बचे. सरकार को धोखा देना आम बात हो गयी थी. करों में सुधार के बाद इसमें कुछ सुधार हुआ, लेकिन कर वसूली के लिए नियत विभागों में भ्रष्टाचार अभी भी जारी है.
क्या भारत में अभी भी करों की दर बहुत अधिक है? विभिन्न देशों में कॉरपोरेट करों की मौजूदा दरों पर नजर डालें, तो अमेरिका और जापान क्रमश: 40 व 40.69 फीसदी के साथ सबसे ऊपर हैं. जर्मनी में 38.36 फीसदी, इटली में 37.25 फीसदी और कनाडा में यह 36.10 फीसदी है. ‘समूह-20’ के देशों में सिर्फ चीन में कॉरपोरेट टैक्स भारत से कम है. चीन में कॉरपोरेट कर की दर समान रूप से 33 फीसदी है और भारत में यह 33.99 फीसदी है. पिछले पांच वर्षो से चीन में यही दर है, लेकिन भारत में इसमें लगभग दो फीसदी की कमी हुई है.
कॉरपोरेट पर बढ़ता बकाया
दरअसल, ‘समूह-20’ के देशों में भारत ही एकमात्र देश है, जहां कॉरपोरेट करों में गिरावट हो रही है, बावजूद इसके कि देश में इन करों की बकाया राशि लगातार बढ़ती जा रही है. अगर देश का आयकर विभाग आयकर आयुक्त के स्तर पर लापरवाही नहीं बरते, तो सरकार के पास 5.8 लाख करोड़ की विशाल धनराशि जमा होती. इसके अतिरिक्त विभिन्न स्तरों पर मुकदमेबाजी के कारण 2.1 लाख करोड़ रुपये फंसे पड़े हैं. यह पूरी बकाया धनराशि आठ लाख करोड़ से ऊपर पहुंच चुकी है. इसके अलावा भी अनेक कर विभागीय लापरवाही के कारण वसूले नहीं जा सके हैं.
सब्सिडी का बढ़ता बोझ
इस स्थिति में केंद्र सरकार के ऊपर लदी कर्ज के बकाया ब्याज के बाद जो सबसे बड़ी मुश्किल है, वह है अनुदानों यानी सब्सिडी का सवाल. पिछले साल केंद्र सरकार के सब्सिडी का कुल भार 3.6 लाख करोड़ था. इस रकम में सबसे बड़ा हिस्सा अनाज की खरीद और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) का था, जो तकरीबन 1.2 लाख करोड़ था. इसमें भी अधिकतर रकम निरंतर बढ़ते अनाजों के समर्थन मूल्य पर की गयी खरीद पर खर्च हुई थी, जो लगभग पूरी तरह से पंजाब, हरियाणा और आंध्र प्रदेश के डेल्टा क्षेत्र में केंद्रित है.
इस हिसाब से यह सब्सिडी कुछ ही लोगों के लिए है. रासायनिक उर्वरकों के लिए दी जानेवाली सब्सिडी 65 हजार करोड़ रुपये है और यह भी उन्हीं क्षेत्रों में पहुंचती है, जहां सिंचाई के साधन उपलब्ध हैं. 2013 में पेट्रोलियम की सब्सिडी 1.3 लाख करोड़ को पार कर गयी थी और यह बढ़ती ही जा रही है. रसोई गैस (एलपीजी) के हर सिलेंडर पर 435 रुपये तक की सब्सिडी है. लगभग 80 फीसदी एलपीजी शहरी उच्च और मध्यम वर्ग के द्वारा इस्तेमाल में लायी जाती है. इसका सीधा मतलब यह है कि गरीबों और राष्ट्रीय कोष में घाटे की कीमत पर इस सब्सिडी का लाभ बेहतर आयवाले लोग उठा रहे हैं, जबकि इस धन से आर्थिक वृद्धि और रोजगार सृजन किया जा सकता था. इसी तरह से किरासन, डीजल और पेट्रोल पर भी पर्याप्त सब्सिडी है. इस विशाल सब्सिडी भार में हम सार्वजनिक उपक्रमों के घाटे, राज्य सरकारों द्वारा दी जा रही सब्सिडी, बिजली, रेलवे और सड़क यातायात कॉरपोरेशन में घाटा को भी जोड़ दें, तो यह पूरी राशि सकल घरेलू उत्पादन के 20 फीसदी तक पहुंच जाती है. कोई देश इस तरह से ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकता.
कॉरपारेट क्षेत्र को अनुचित छूट
पिछले वर्ष पी चिदंबरम द्वारा पेश बजट प्रस्तावों से एक महत्वपूर्ण बात निकल कर आयी थी, जिनके अनुसार सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के लिए कर की दर 23.35 फीसदी थी, जबकि निजी क्षेत्र के लिए (जिनका नेतृत्व फिक्की और सीआइआइ जैसे समूह करते हैं) यह दर 19.50 फीसदी ही थी. जबर्दस्त मुनाफा और शेयर बाजार में उछाल का लाभ उठानेवाली सूचना तकनीक (आइटी) के क्षेत्र में सक्रिय कंपनियां सरकार को धन देने की जगह निर्यात लाभ में 11,880 करोड़ का छूट भी ले गयीं. होना तो यह चाहिए था कि इन कंपनियों के सामाजिक चेतना के स्वघोषित मुखिया देश को धन देते. टेलीकॉम कंपनियां सालाना 12 मिलियन ग्राहक जोड़ रही हैं, पर उन्हें 6,850 करोड़ के छूट का लाभ मिला. इन क्षेत्रों को उद्योग के उगते सूरज की संज्ञा दी जाती है.
बजट प्रस्तुत करते हुए वित्त मंत्री की सबसे बड़ी चिंता यह होनी चाहिए कि चीन की सरकार का राजस्व 1998 से लगातार लगभग 17 फीसदी की दर से बढ़ रहा है. इसकी तुलना में भारत की राजस्व वृद्धि दर 12 फीसदी है. यह सही बात है कि उनका सकल घरेलू उत्पादन हमारी तुलना में बहुत तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन यह भी सही है कि चीन करों की अधिक वसूली करता है और छूट देने में बहुत कोताही करता है.
वाकई देशवासियों को चाहिए सब्सिडी!
क्या वाकई हमें सब्सिडी की जरूरत है? अर्थशास्त्रियों, राजनीतिज्ञों के बीच यह सवाल गाहे-बगाहे उठता रहता है. इसमें कोई दो राय नहीं, यदि सब्सिडी के मामले में पारदर्शिता बरती जाये, तो निश्चित तौर पर लोग लाभान्वित होंगे. सब्सिडी के लाभों को कोई मुश्किल से ही देखता है. अमूमन, सरकार को सब्सिडी वितरण में आलोचना भी ङोलनी पड़ती है. सवाल यह है कि आम लोगों के हितों में सब्सिडी की भूमिका कैसी है? क्या जिन उत्पादों और सेवाओं को सब्सिडी की जरूरत नहीं है, उन्हें सब्सिडी के दायरे में लाया जाये? एक सीमा से ज्यादा सब्सिडी देना अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदायक है? क्या सब्सिडी का फायदा समृद्ध लोगों को ही मिलता है? क्या सब्सिडी भारतीय अर्थव्यवस्था पर बोझ की तरह है?
क्या सब्सिडी का अर्थशास्त्र राजनीतिक पैंतरेबाजी से जुड़ा है? और आखिरी सवाल यह कि अगर सब्सिडी अर्थव्यवस्था पर बोझ है, तो इसको खतम कैसे किया जा सकता है? इन सवालों के मद्देनजर सब्सिडी के सकारात्मक प्रभावों से पहले नकारात्मक प्रभावों पर विचार करने की जरूरत है. एक बार सब्सिडी हासिल करने के बाद इस पर निर्भरता बढ़ जाती है और यह सुविधा लाभार्थी को अकर्मण्य बना देती है. कई मामलों तो इसे मीठा जहर भी कहा जाता है. राजनीतिक उद्देश्यों के लिए सब्सिडी का दुरुपयोग जगजाहिर है. सब्सिडी के मसले को राजनीति तक ही सीमित करना गलत है.
राजनीतिक फायदे का औजार सब्सिडी :
दरअसल, यह राजनीति के साथ-साथ आर्थिक नीतियों से जुड़ा मुद्दा है. भारत में सब्सिडी की वकालत ऐसे नीति नियंता करते हैं, जिन्हें जनता के बीच में खुद को गरीबों का हितैषी प्रदर्शित करना होता है, और यह सब महज राजनीतिक फायदे के लिए होता है. भारत में नीति नियंता दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी के कारण घाटे का सौदा साबित हो रहे पब्लिक सेक्टर के निजीकरण का विरोध करते हैं, क्योंकि उन्हें मजदूर वर्ग के वोट खिसक जाने का भय सताता है. भारत में सब्सिडी की वकालत करने वालों को यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि सब्सिडी को फायदा जरूरतमंदों (गरीबों) तक कम ही पहुंच पाता है. वास्तव में सब्सिडी अमीरों के लिए ही है. लगातार बढ़ायी जा रही खाद्यान्न सब्सिडी के बावजूद पूरे देश में भुखमरी और कुपोषण जैसी समस्या लगातार बढ़ रही है.
किसानों के हिस्से महज 60 फीसदी :
ऐसे ही निराशाजनक हाल उर्वरक सब्सिडी के भी हैं. उर्वरक सब्सिडी केंद्र सरकार पर बड़ा बोझ है. इस सब्सिडी का ज्यादातर फायदा फर्टिलाइजर इंडस्ट्री को हो मिलता है, किसानों के हिस्से में महज 60 फीसदी ही आता है. यह स्पष्ट है कि उर्वरक सब्सिडी का उद्देश्य नये क्षेत्रों में हरित क्रांति की तकनीक को पहुंचाने और किसानों को लाभान्वित करने का है, लेकिन हाल के वर्षो में इसकी विश्वसनीयता लगभग खत्म हो गयी है. अब समय आ गया है कि सरकार सब्सिडी के मसले पर राजनीतिक और देशव्यापी सर्वसम्मति बनाने का प्रयास करे.
इसमें संरचनात्मक सुधार किया जाये, ताकि गरीबों और जरूरतमंदों को इसका फायदा मिल सके. सब्सिडी प्रक्रिया को बेहतर बनाने के कुछ अहम कदम उठाये जा सकते हैं- जैसे वित्तीय भुगतान के बजाय धरातल पर योजनाओं के क्रियान्वयन पर ध्यान दिया जाये, सब्सिडी के प्रभावों और गुणवत्ता पर विशेष निगरानी रखी जाये, सब्सिडी का लाभ केवल एक बार या अल्प अवधि के लिए हो, सब्सिडी जारी रखने की व्यवस्था ठीक नहीं, सब्सिडी वितरण के मानकों में पारदर्शिता बरती जाये.
(स्नेत : द व्यूजपेपर)
सब्सिडी, राजस्व और गैर कर-राजस्व
सब्सिडी: किसी सरकार द्वारा जनता या समूहों को नकदी या कर से छूट के रूप में दिया जाने वाला लाभ ‘सब्सिडी’ कहा जाता है. भारत जैसे कल्याणकारी राज्य (वेलफेयर स्टेट) में इसका उपयोग लोगों के हितों को ध्यान में रखते हुए किया जाता है.
राजस्व: जनता पर टैक्स लगाकर सरकार जो राजस्व (रेवेन्यू) हासिल करती है, उसे कर राजस्व कहा जाता है. सरकार विभिन्न प्रकार के कर लगाती है, जिससे कि योजनागत और गैर-योजनागत खर्चो के लिए रकम जुटायी जा सके. गैर कर-राजस्व : वह रकम है जोकि सरकार कर के अलावा अन्य साधनों से एकत्र करती है. इसमें सरकारी कंपनियों के विनिवेश से मिली रकम, सरकारी कंपनियों से मिले लाभांश और सरकार द्वारा चलायी जाने वाली विभिन्न आर्थिक सेवाओं के बदले मिली रकम शामिल होती है.