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भारतीय मॉनसून की विशेषताएं

बालसुब्रमण्यम एल स्वतंत्र टिप्पणीकार भारतीय जलवायु के बारे में कहा जाता है कि यहां केवल तीन ही मौसम होते हैं- मॉनसून पूर्व, मॉनसून और मॉनसून के बाद का मौसम. हालांकि, यह भारतीय जलवायु पर एक हास्योक्ति है, फिर भी मॉनसून पर मौसम की पूर्ण निर्भरता को अभिव्यक्ति देती है. मॉनसून के विभिन्न आयामों व इसके […]

बालसुब्रमण्यम एल

स्वतंत्र टिप्पणीकार

भारतीय जलवायु के बारे में कहा जाता है कि यहां केवल तीन ही मौसम होते हैं- मॉनसून पूर्व, मॉनसून और मॉनसून के बाद का मौसम. हालांकि, यह भारतीय जलवायु पर एक हास्योक्ति है, फिर भी मॉनसून पर मौसम की पूर्ण निर्भरता को अभिव्यक्ति देती है. मॉनसून के विभिन्न आयामों व इसके कमजोर होने के परिणामों और प्रभावों के विश्लेषण का एक प्रयास..

वर्षा की दृष्टि से भारत बड़ा में बड़ा विरोधाभास देखा गया है. चेरापूंजी में साल में 1,100 सेंटीमीटर वर्षा होती है, तो जैसलमेर में केवल 20 सेंटीमीटर. वर्षा का आरंभ पूरे देश या काफी बड़े इलाके में अक्सर विलंब से होता है.

मॉ नसून अरबी भाषा का शब्द है. अरब सागर में बहनेवाली मौसमी हवाओं के लिए अरब मल्लाह इस शब्द का प्रयोग करते थे. उन्होंने देखा कि ये हवाएं जून से सितंबर के गरमी के दिनों में दक्षिण-पश्चिम दिशा से और नवंबर से मार्च के सर्दी के दिनों में उत्तर-पूर्वी दिशा से बहती हैं. एशिया और यूरोप का विशाल भूभाग, जिसका एक हिस्सा भारत भी है, ग्रीष्मकाल में गरम होने लगता है. इससे उसके ऊपर की हवा गरम होकर उठने और बाहर की ओर बहने लगती है.

पीछे रह जाता है कम वायुदाब वाला एक विशाल प्रदेश. यह प्रदेश अधिक वायुदाब वाले प्रदेशों से वायु को आकर्षित करता है. अधिक वायुदाब वाला एक बहुत बड़ा प्रदेश भारत को घेरने वाले महासागरों के ऊपर मौजूद रहता है, क्योंकि सागर स्थल भागों जितना गरम नहीं होता है और इसीलिए उसके ऊपर वायु का घनत्व अधिक रहता है. उच्च वायुदाब वाले सागर से हवा मानसून पवनों के रूप में आगे की ओर बहती है. सागरों से वाष्पीकरण होने से यह हवा नमी से भरी होती है. यही नमी भरी हवा ग्रीष्मकाल का दक्षिण-पश्चिमी मॉनसून कहलाती है.

दो धाराओं में मानसून

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भारतीय मॉनसून की विशेषताएं 2

भारतीय प्रायद्वीप की नोंक, यानी कन्याकुमारी पर पहुंच कर यह हवा दो धाराओं में बंट जाती है. एक धारा अरब सागर की ओर बह चलती है और एक बंगाल की खाड़ी की ओर. अरब सागर से आनेवाले मॉनसूनी पवन पश्चिमी घाट के ऊपर से बह कर दक्षिणी पठार की ओर बढ़ते हैं. बंगाल की खाड़ी से चलनेवाले पवन बंगाल से होकर भारतीय उपमहाद्वीप में घुसते हैं.

ये पवन अपने मार्ग में पड़नेवाले प्रदेशों में वर्षा करते हुए आगे बढ़ते हैं और अंत में हिमालय पर्वत पहुंचते हैं. इस गगनचुंबी, कुदरती दीवार पर विजय पाने की उनकी हर कोशिश नाकाम रहती है और विवश होकर उन्हें ऊपर उठना पड़ता है. इससे उनमें मौजूद नमी घनीभूत होकर पूरे उत्तर भारत में मूसलधार वर्षा के रूप में गिर पड़ती है. जो हवा हिमालय को लांघ कर युरेशियाइ भू-भाग की ओर बढ़ती है, वह बिल्कुल शुष्क होती है.

केरल से मुंबई 10 दिनों में

दक्षिण-पश्चिमी मॉनसून भारत के ठेठ दक्षिणी भाग में एक जून को पहुंचता है. सामान्यत: मॉनसून केरल के तटों पर जून महीने के प्रथम पांच दिनों में प्रकट होता है. यहां से वह उत्तर की ओर बढ़ता है और भारत के अधिकांश हिस्सों पर जून के अंत तक पूरी तरह छा जाता है. अरब सागर से आनेवाले पवन उत्तर की ओर बढ़ते हुए 10 जून तक मुंबई पहुंच जाते हैं. इस प्रकार तिरुवनंतपुरम से मुंबई तक का सफर वे 10 दिन में बड़ी तेजी से पूरा करते हैं. इस बीच, बंगाल की खाड़ी के ऊपर से बहनेवाले पवन की प्रगति भी कुछ कम आश्चर्यजनक नहीं होती. ये पवन उत्तर की ओर बढ़ कर बंगाल की खाड़ी के मध्य भाग से दाखिल होते हैं और बड़ी तेजी से जून के प्रथम सप्ताह तक असम में फैल जाते हैं. हिमालय से टकरा कर यह धारा पश्चिम की ओर मुड़ जाती है. इस कारण उसकी आगे की प्रगति गंगा के मैदानों की ओर होती है.

मॉनसून साधारणत: सात जून के आसपास कोलकाता पहुंच जाता है. मध्य जून तक अरब सागर से बहनेवाली हवाएं गुजरात समेत मध्य भारत में फैल जाती हैं. इसके बाद बंगाल की खाड़ीवाले पवन और अरब सागरवाले पवन पुन: एक धारा में शामिल हो जाते हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, पूर्वी राजस्थान आदि बचे हुए प्रदेश एक जुलाई तक बारिश की पहली बौछार का अनुभव करते हैं.

मॉनसून का कौतूहल

उपमहाद्वीप के काफी भीतर स्थित दिल्ली जैसे किसी स्थान पर मॉनसून का आगमन कौतूहल पैदा करनेवाला विषय होता है. कभी-कभी दिल्ली की पहली बौछार पूर्वी दिशा से आती है और बंगाल की खाड़ी के ऊपर से बहनेवाली धारा का अंग होती है. परंतु कई बार दिल्ली में यह पहली बौछार अरब सागर के ऊपर से बहनेवाली धारा का अंग बन कर दक्षिण दिशा से आती है. मौसमशास्त्रियों के लिए यह निश्चय करना कठिन होता है कि दिल्ली की ओर इस दौड़ में मॉनसून की कौन-सी धारा विजयी होगी.

मध्य जुलाई तक मॉनसून कश्मीर और देश के अन्य बचे हुए भागों में भी फैल जाता है, परंतु एक शिथिल धारा के रूप में ही, क्योंकि तब तक उसकी सारी शक्ति और नमी चुक गयी होती है. सर्दी में जब स्थल भाग अधिक जल्दी ठंडे हो जाते हैं, प्रबल, शुष्क हवाएं उत्तर-पूर्वी मॉनसून बन कर बहती हैं. इनकी दिशा गरमी के दिनों की मॉनसूनी हवाओं की दिशा से विपरीत होती है. उत्तर-पूर्वी मॉनसून भारत के स्थल और जल भागों में जनवरी की शुरुआत तक, जब एशियाइ भू-भाग का तापमान न्यूनतम होता है, पूर्ण रूप से छा जाता है.

इस समय उच्च दाब की एक पट्टी पश्चिम में भूमध्यसागर और मध्य एशिया से लेकर उत्तर-पूर्वी चीन तक के भू-भाग में फैली होती है. बादलहीन आकाश, बढ़िया मौसम, आद्र्रता की कमी और हल्की उत्तरी हवाएं इस अवधि में भारत के मौसम की विशेषताएं होती हैं. उत्तर-पूर्वी मॉनसून के कारण जो वर्षा होती है, वह परिमाण में तो न्यून, परंतु सर्दी की फसलों के लिए बहुत लाभकारी है.

सर्दियों में मॉनसूनी बारिश

उत्तर-पूर्वी मॉनसून तमिलनाडु में विस्तृत बारिश करता है. सच तो यह है कि तमिलनाडु का मुख्य वर्षाकाल उत्तर-पूर्वी मॉनसून के समय ही होता है. यह इसलिए कि पश्चिमी घाट की पर्वत श्रेणियों की आड़ में आ जाने के कारण उत्तर-पश्चिमी मॉनसून से उसे अधिक वर्षा नहीं मिल पाती. नवंबर और दिसंबर के महीनों में तमिलनाडु अपनी संपूर्ण वर्षा का मुख्य अंश प्राप्त करता है. भारत में होनेवाली अधिकांश वर्षा मॉनसून काल में ही होती है. संपूर्ण भारत के लिए औसत वर्षा की मात्र 117 सेंटीमीटर है.

वर्षा की दृष्टि से भारत में बड़ा विरोधाभास देखा गया है. चेरापूंजी में साल में 1,100 सेंटीमीटर वर्षा होती है, तो जैसलमेर में केवल 20 सेंटीमीटर. मॉनसून काल भारत के किसी भी भाग के लिए निरंतर वर्षा का समय नहीं होता. कुछ दिनों तक वर्षा निर्बाध रूप से होती रहती है, जिसके बाद कई दिनों तक बादल चुप्पी साध लेते हैं.

वर्षा का आरंभ भी पूरे भारत या उसके काफी बड़े क्षेत्र के लिए अक्सर विलंब से होता है. कई बार वर्षा समय से पहले ही समाप्त हो जाती है या देश के किसी हिस्से में अन्य हिस्सों से कहीं अधिक वर्षा हो जाती है. यह अक्सर होता है और बाढ़ व सूखे की विषम परिस्थिति से देश को जूझना पड़ता है.

दूरी कम पर वर्षा का फर्क

भारत में वर्षा का वितरण पर्वत श्रेणियों की स्थिति पर भी निर्भर है. यदि भारत में पर्वत न हों, तो वर्षा की मात्र बहुत घट जायेगी. मुंबई और पुणो में होनेवाली वर्षा इस तथ्य को बखूबी दर्शाती है. मॉनसूनी पवन दक्षिण-पश्चिमी दिशा से पश्चिमी घाट को आ लगते हैं, जिसके कारण इस पर्वत के पवनाभिमुख भाग में भारी वर्षा होती है. मुंबई शहर, जो पश्चिमी घाट के इस ओर स्थित है, यहां तकरीबन 187.5 सेंटीमीटर वर्षा होती है, जबकि पश्चिमी घाट के पवनविमुख भाग में पड़नेवाले पुणो में महज 50 सेंटीमीटर वर्षा होती है, जबकि दोनों शहरों की दूरी 160 किलोमीटर है.

पर्वत श्रेणियों के कारण होनेवाली वर्षा का एक अन्य उदाहरण उत्तर-पूर्वी भारत में स्थित चेरापूंजी है. इस छोटे से कसबे में वर्ष में औसतन 1,100 सेंटीमीटर वर्षा होती है, जो एक समय विश्व में सर्वाधिक वर्षा हुआ करती थी. यहां प्रत्येक बारिशवाले दिन 100 सेंटीमीटर तक की वर्षा हो सकती है. यह विश्व के अनेक हिस्सों में वर्ष भर में होनेवाली वर्षा से भी अधिक है. चेरापूंजी खासी पहाड़ियों के दक्षिणी ढलान में दक्षिण से उत्तर की ओर जानेवाली एक गहरी घाटी में स्थित है. इस पहाड़ी की औसत ऊंचाई 1,500 मीटर है. दक्षिण दिशा से बहनेवाली मॉनसूनी हवाएं इस घाटी में आकर फंस जाती हैं और अपनी नमी को चेरापूंजी के ऊपर उड़ेल देती हैं. एक कौतूहलपूर्ण बात यह है कि चेरापूंजी में अधिकांश बारिश सुबह के समय होती है.

कम मॉनसून से जल संकट

चूंकि भारत के अधिकांश भागों में वर्षा केवल मॉनसून के तीन-चार महीनों में ही होती है, इसलिए बड़े तालाबों, बांधों और नहरों से दूर स्थित गांवों में पीने के पानी का संकट उत्पन्न हो जाता है. उन इलाकों में भी जहां वर्षा काल में पर्याप्त बारिश होती है, मॉनसून पूर्व काल में लोगों को कष्ट सहना पड़ता है, क्योंकि पानी के संचयन की व्यवस्था की कमी है. इसके अलावा, भारतीय वर्षा बहुत भारी होती है और एक बहुत छोटी अवधि में ही हो जाती है.

इस कारण से वर्षा जल को जमीन के नीचे उतरने का मौका नहीं मिलता. बारिश का पानी सतह से ही बहते हुए बरसाती नदियों के सूखे पाटों को कुछ दिनों के लिए भर देता है और बाढ़ का कारण बनता है. जमीन में कम पानी रिसने से वर्ष भर बहनेवाले झरने कम ही होते हैं और पानी को सोख लेनेवाली हरियाली पनप नहीं पाती. हरियाली रहित खेतों में वर्षा की बड़ी-बड़ी बूंदें मिट्टी को काफी नुकसान पहुंचाती हैं. मिट्टी के ढेले उनके आघात से टूट कर बिखर जाते हैं और अधिक मात्र में मिट्टी का अपरदन होता है.

किसानों के लिए आनेवाले दिन बहुत भारी

देविंदर शर्मा, खाद्य मामलों के जानकार

भारतीय मॉनसून के लिए अल नीनो, एक विलेन की तरह माना जाता है. अल नीनो की मार से ऑस्ट्रेलिया और भारत सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं. अल नीनो से सामान्य मॉनसून की हालत बिगड़ने का अंदेशा है, जिससे बारिश कम होने की आशंका जतायी जा रही है. देश के मौसम विभाग ने इस वर्ष अल नीनो के आने की 70 फीसदी तक उम्मीद जतायी है.

दरअसल, मॉनसून के सबसे बीचवाले समय यानी अगस्त में खरीफ की फसलें पकने के कगार पर होती हैं. ऐसे में यदि अल नीनो खरीफ फसलों को नुकसान पहुंचाता है, तो पैदावार पर इसका असर पड़ सकता है. दूसरी ओर, इसकी सबसे ज्यादा मार किसानों पर पड़ेगी. खेती हमारे देश की इकॉनोमी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, इसलिए यदि खेती-किसानी प्रभावित होगी, तो अर्थव्यवस्था पर भी इसका असर पड़ना तय है.

आज हमारे पास 62 मिलियन टन अनाज का स्टॉक मौजूद है. खाद्य सुरक्षा विधेयक के तहत सभी जरूरतमंदों को इसे मुहैया कराने के लिए इतना अनाज तो पर्याप्त है. अनाज खाद्य सुरक्षा के तहत आनेवाले परिवारों को पांच किलो के हिसाब से बांटने के लिए इतना अनाज पर्याप्त है, लेकिन सवाल खड़ा होता है कि शेष जनता के लिए अनाज कहां से आयेंगे? प्रकृति का कोप हो या और किसी तरह की आपदा, देश में कृषि व्यवस्था के प्रभावित होने का अर्थ है अनाज की पैदावार में निश्चित तौर पर कमी होना. यदि अनाज कम उपजेगा, तो अन्य उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण पर भी इसका असर पड़ेगा. उद्योग-धंधे प्रभावित होंगे. यानी महंगाई बढ़ जायेगी.

महंगाई की चपेट में आनेवाला देश का एक बड़ा तबका, जिसे मध्यवर्ग कहा जाता है, उसके लिए आत्महत्या की नौबत तक आ जाती है. दूसरी ओर, देश के किसानों का एक बड़ा तबका आत्महत्या के लिए मजबूर हो रहा है. बीते फरवरी-मार्च में महाराष्ट्र के एक बड़े इलाके में किसानों ने ओले की मार झेली थी, जिसके चलते फसलों का व्यापक नुकसान हुआ था. किसानों को अब अल नीनो की दोहरी मार झेलनी पड़ सकती है. किसान परेशान और हम महंगाई और मुद्रास्फीति का रोना रोते हुए हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं. देश में तकरीबन 60 करोड़ लोग कृषि पर निर्भर हैं. ऐसे में यदि कृषि प्रभावित होगी, तो हमारी अर्थव्यवस्था की क्या स्थित होगी? लेकिन हम खेती-किसानी के बारे में गंभीरता से सोचने के बजाय, सिर्फ औद्योगिक विकास के बारे में ही सोचते हैं. जब तक हम खेती-किसानी के बारे में नहीं सोचेंगे, हमारी अर्थव्यवस्था भी मजबूत नहीं हो पायेगी. (बातचीत: वसीम अकरम)

किसानी पर मॉनसून का कहर

अविनाश कुमार चंचल

सामाजिक कार्यकर्ता

जिस साल पूर्वी प्रशांत महासागर में पानी का तापमान सामान्य से ऊपर रहता है, उस साल अल नीनो का प्रभाव रहता है. यह जून से अगस्त के बीच रहता है. अल नीनो के कारण दुनिया में वर्षा, हवाओं, तूफान आदि के रुख में परिवर्तन देखा जाता है.

यह एक सामान्य मान्यता है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है. कुल घरेलू उत्पादन में कृषि की हिस्सेदारी को कम करने के लक्ष्य के बावजूद अभी भी देश की 60 फीसदी आबादी इसी क्षेत्र पर निर्भर है. कहा जाता है कि भारत में खेती मॉनसून के साथ जुआ है. जून बीत रहा है. यह समय भारत के कई इलाकों में मॉनसून के आने का है, लेकिन भारतीय मौसम विभाग की मानें, तो अब तक केवल 20 फीसदी हिस्से में ही सामान्य बारिश हुई है. ऐसे में देश में महंगाई, खाद्य संकट और कमजोर अर्थव्यवस्था की आंशकाएं बढ़ गयी हैं.

आकड़ों में मॉनसून की कमी

मौसम विभाग मॉनसून को लेकर नये-नये आकलन कर रहा है. मॉनसून भी इन आकलनों को झूठा साबित करते हुए कहीं सामान्य से कम, तो कहीं देरी से पहुंच रहा है. एक से 22 जून तक अधिकांश इलाकों में सामान्य से 36 प्रतिशत कम बारिश दर्ज की गयी है. एक से 17 जून के भीतर अकेले झारखंड में 86 फीसदी कम (77.6 मिमी के बजाय केवल 11.1 मिमी), पूर्वी उत्तर प्रदेश में 80 फीसदी कम (36.2 मिमी के बजाय केवल 7.3 मिमी), पंजाब में 81 फीसदी कम (15.5 मिमी के बजाय केवल 2.9 मिमी), गुजरात में 80 फीसदी कम (43.1 के बजाय केवल 8.7 मिमी) बारिश हुई. हालांकि, सामान्य तौर पर जून तक मॉनसून गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, ओड़िशा समेत पूरे महाराष्ट्र में पहुंच जाता है, लेकिन इस साल इनमें से अधिकतर राज्यों में मॉनसून नहीं पहुंच पाया है.

अलनीनो का भयावह प्रकोप

वर्ष 2014 को अल नीनो के प्रकोपवाला साल माना जा रहा है. मॉनसून में कमी की सबसे बड़ी वजह इसे ही ठहराया जा रहा है. अमेरिका की नेशनल ओशेनिक एंड एटमोस्फेरिक एडमिनेस्ट्रेशन ने वर्ष की शुरुआत में ही यह आशंका जाहिर की थी. इसके अनुसार, जून-जुलाई तक उत्तरी गोलार्ध में अल नीनो की अवस्था बन सकती है. यदि यह साल अल नीनो के प्रभाववाला होगा, तो यह पूरे एशिया के लिए चिंता का विषय है. जिस साल पूर्वी प्रशांत महासागर में पानी का तापमान सामान्य से ऊपर रहता है, उस साल अल नीनो का प्रभाव रहता है. यह अधिकांशत: जून से अगस्त माह के बीच रहता है. अल नीनो के कारण पूरी दुनिया में वर्षा, हवाओं, तूफान आदि के रुख में परिवर्तन देखा जाता है. उदाहरण के लिए, इससे जहां पेरू और अमेरिका आदि देशों में अतिवर्षा की आशंका होती है, वहीं भारत और ऑस्ट्रेलिया आदि देशों में सूखे की आशंका बढ़ जाती है. अल नीनो के प्रभाव के चलते समूचे दक्षिण-पूर्वी एशिया में मॉनसून सामान्य से कम रहता है.

खाद्यान्न किल्लत की गहराती आशंका

संयुक्त राष्ट्र की एक ताजा रिपोर्ट ने मॉनसून में कमी को पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से जोड़ कर देखने की कोशिश की है. यूएन के जलवायु परिवर्तन के लिए बने अंतर सरकारी पैनल (आइपीसीसी) ने जलवायु परिवर्तन पर रिपोर्ट जारी की है. आइपीसीसी द्वारा जारी दूसरी रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन से भविष्य में खाद्य सुरक्षा को लेकर संकट की स्थिति उत्पन्न न्हो जायेगी. इससे अर्थव्यवस्था के विकास की गति मंद होगी और प्राकृतिक आपदाओं व बीमारियों में बेतहाशा वृद्धि होगी. जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर एशिया के विकासशील देशों पर पड़ने की आशंका व्यक्त की जा रही है.

अल नीनो से अन्य प्रकार के खतरे

अल नीनो और दूसरे कारणों से हो रहे जलवायु परिवर्तन से होनेवाले खराब मौसम से कृषि उत्पादन और खाद्य सुरक्षा ही प्रभावित नहीं होगी, बल्कि पानी की कमी और बाढ़ के पानी के फैलने से भारत समेत कई विकासशील देशों में डायरिया और मलेरिया जैसे रोगों का प्रकोप भी बढ़ेगा. जलवायु परिवर्तन की वजह से गेहूं और चावल की पैदावार में कमी दर्ज की जा रही है. इन कारणों से आनेवाले समय में सुरक्षा का संकट उत्पन्न हो सकता है. मसलन, भूमि विवाद, कीमतों में वृद्धि, खाद्य संकट आदि मुद्दे हिंसा और अपराध को बढ़ाने का काम करेंगे. विशेषज्ञों ने यह भी आशंका व्यक्त की है कि भारत सहित दूसरे विकासशील देशों को ऊर्जा, ट्रांसपोर्ट, खेती, पर्यटन जैसे मजबूत अर्थव्यवस्थावाले क्षेत्र में भारी संकट का सामना करना पड़ सकता है.

अपनानी होंगी ठोस नीतियां

साल-दर-साल मॉनसून और पर्यावरण को लेकर विकराल होती स्थिति से निबटने के लिए सरकार को ठोस नीति अपनानी होगी. हर साल पर्यावरण संरक्षण के नाम पर करोड़ों-अरबों रुपये खर्च करने की बजाय ठोस वैकल्पिक आर्थिक नीतियों पर जोर देना होगा. प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण को नुकसान पहुंचानेवाली आर्थिक नीतियों को बंद करना होगा. सरकार प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित उद्योग को बढ़ावा देती रही है. देश की ज्यादातर आबादी जल-जंगल-जमीन आधारित आजीविका के साधनों से जुड़ी हुई है. जरूरत इन प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित करने की है, ताकि स्थानीय गरीबों को जीविका का साधन मिल सके. मौजूदा अर्थव्यवस्था में विकास के नाम पर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया जा रहा है, उसे नष्ट किया जा रहा है.

हरित अर्थव्यवस्था पर जोर की जरूरत

पर्यावरण पर काम करनेवाली विभिन्न संस्थाएं आइपीसीसी की रिपोर्ट आने के बाद सरकारों से हरित अर्थव्यवस्था पर जोर देने की मांग कर रही हैं. साथ ही, पर्यावरण पर ज्यादा से ज्यादा स्थानीय लोगों को अधिकार देने की मांग भी की जा रही है. सरकार और समाज पर्यावरण की गंभीर चिंताओं को सिर्फ अकादमिक-सेमिनार के बहस का मुद्दा न बनायें, बल्कि जमीनी स्तर पर ठोस कदम उठाये. जल प्रबंधन को ठीक करने की जरूरत है, ताकि कम मॉनसून की स्थिति से निबटा जा सके. अगर सिंचाई, पर्यावरण संरक्षण, जल प्रबंधन व खेती की बेहतरी के लिए कोशिशें की जायें, तो मॉनसून की अनियमितता से सूखे और अकाल की स्थिति कभी न पैदा हो. नवगठित सरकार को विकास की समावेशी नीति बनानी होगी.

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