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अभावों से जूझता रहता है रंगमंच का अभिनेता

ईश्वर शून्य, रंगकर्मी रंगमंच को अभिनेता का माध्यम माना जाता है. किंतु जब से रंगमंच के केंद्र में निर्देशक आया है, तब से रंगमंच में अभिनेता की हालत किसी बंधुआ मजदूर से अधिक नहीं रह गयी है. एक तरफ तो उससे रंगमंच के प्रति पूर्ण समर्पण की उम्मीद की जाती है. दूसरी तरफ उसका मेहनताना […]

ईश्वर शून्य, रंगकर्मी
रंगमंच को अभिनेता का माध्यम माना जाता है. किंतु जब से रंगमंच के केंद्र में निर्देशक आया है, तब से रंगमंच में अभिनेता की हालत किसी बंधुआ मजदूर से अधिक नहीं रह गयी है. एक तरफ तो उससे रंगमंच के प्रति पूर्ण समर्पण की उम्मीद की जाती है. दूसरी तरफ उसका मेहनताना देने के नाम पर हमारा मुंह कसैला हो जाता है.
ऐसा कोई रास्ता अभी तक नहीं बन पाया कि एक अभिनेता केवल रंगमंच में अभिनय करके अपना या अपने परिवार का जीवन-यापन कर सके. मराठी, गुजराती और कुछ घुमंतू रंगमंडलियों को छोड़ दिया जाये, तो लगभग पूरे हिंदुस्तान में यही स्थिति है.
इसलिए कोई भी अभिनेता रंगमंच में अधिक दिन तक टिक ही नहीं पाता है, या तो वह रंगमंच छोड़ देता है या मुंबई चला जाता है. कुछ अभिनेताओं को छोड़ दें, तो रंगमंच में अभिनेताओं का अकाल है या दूसरी तरफ रंगमंच के बेहतरीन अभिनेता वहां भीड़ में गुम होकर रह जाते हैं.
अभी एनएसडी स्नातक जेडी अश्वत्थामा ने काम की कमी और खराब आर्थिक-मानसिक स्थितियों से जूझते हुए अंततः हार कर आत्महत्या कर ली. विडंबना है कि देश के सबसे बड़े नाट्य संस्थान से प्रशिक्षण लेकर भी, एक रंगकर्मी अभिनेता अपने लिए जीविकोपार्जन करने में अक्षम रहा. कई साल लगातार अभावग्रस्त जीवन जीते हुए एक दिन उसने मौत को गले लगा लिया. जाते हुए एक चिट्ठी छोड़ गये, जिसमें उन्होंने अपने अकेलेपन और काम न होने की शिकायत की है.
इसी अभाव के चलते महेंद्र मेवाती जैसे प्रतिभावान अभिनेता दर-दर की ठोकरें खाते हुए, इस दुनिया से कूच कर गये. यही हाल देशभर में बाकी अभिनेताओं का है. वे सभी अभाव के उस ज्वालामुखी पर बैठे हैं, जो कभी भी उनकी जिंदगी को लील सकता है.
इस स्थिति के लिए केवल धनाभाव का रोना नहीं रोया जा सकता. क्योंकि रंगमंच में बड़े-बड़े महोत्सवों के नाम पर हर साल करोड़ों रुपये पानी की तरह बहा दिये जाते हैं. रंगमंच में आनेवाले धन को कुछ गिने-चुने लोग हड़प जाते हैं.
रंगमंच में सबके लिए पैसा है, सिवाय अभिनेता के. यही वजह है कि आज रंगमंच में हजारों निर्देशक तो हैं, पर अभिनेता नहीं. साथ ही ये भी पड़ताल करने की जरूरत है कि क्यों एक प्रतिभावान अभिनेता अकेला पड़ जाता है? क्यों एक प्रतिभाशाली व्यक्ति भूखा मर जाता है और औसत किस्म के लोग जुगाड़ की राजनीति से ऊंचे पदों पर जा बैठते हैं? क्यों एक व्यक्ति भूख से मर जाता है और क्यों किसी दलाल टाइप आदमी की झोली पदों और पुरस्कारों से भरी रहती है?
बीते दिनों एक अभिनेता के इलाज के लिए सोशल मीडिया पर सहायता की अपील भी की गयी, किंतु पर्याप्त धनराशि नहीं जुटायी जा सकी. चूंकि आम रंगकर्मी के पास धन है ही नहीं, तो मदद कहां से हो पाती.
कितने ही निर्देशक ऐसे हैं, जो इन अभिनेताओं से बेगार कराते हैं और पैसा मांगने पर धमकाते हैं. इधर संस्कृति मंत्रालय अभिनेता के लिए मात्र छह हजार प्रतिमाह का अनुदान देता है, जो ऊंट के मुंह में जीरे के समान है.
ऊपर से अधिकतर अभिनेताओं को यह भी नहीं मिल पाता. क्योंकि रंगमंडल निर्देशक और आयोजक की निजी संपत्ति है और अभिनेता केवल एक उपादान. रोजगार के दूसरे अवसर उपलब्ध ही नहीं हैं. अगर थोड़े-बहुत कहीं पैदा होते भी हैं, तो रसूख वाले लोग वहां अपने लोगों को ही चिपका देते हैं.
अगर अभिनेताओं के बारे में समय रहते नहीं सोचा गया तो, आनेवाले समय में हमें परिपक्व अभिनय देखने को भी नहीं मिलेगा. हमारे पास न श्रीराम लागू होंगे, न गोविंदराम, न मनोहर सिंह और न ही भिखारी ठाकुर.

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