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जलवायु परिवर्तन से ‘हिमालयी वियाग्रा” खतरे में

वाशिंगटन : सोने से अधिक कीमती और एशिया में ‘हिमालयी वियाग्रा’ के नाम से पहचाना जाने वाला ‘कैटरपिलर फंगस’ (एक विशिष्ट तरह के पहाड़ी कीड़े पर उगने वाला फफूंद) जलवायु परिवर्तन के कारण मिलना मुश्किल हो गया है. शोधार्थियों ने मंगलवार को यह जानकारी दी. चीन और नेपाल में मुश्किल से मिलने वाले इस फफूंद […]


वाशिंगटन : सोने से अधिक कीमती और एशिया में ‘हिमालयी वियाग्रा’ के नाम से पहचाना जाने वाला ‘कैटरपिलर फंगस’ (एक विशिष्ट तरह के पहाड़ी कीड़े पर उगने वाला फफूंद) जलवायु परिवर्तन के कारण मिलना मुश्किल हो गया है. शोधार्थियों ने मंगलवार को यह जानकारी दी. चीन और नेपाल में मुश्किल से मिलने वाले इस फफूंद ‘‘यार्चागुम्बा’ को लेकर झगड़ों में कई लोग मारे जा चुके हैं. जो लोग यार्चागुम्बा को चाय बनाने के लिए पानी में उबालते हैं या सूप में डालते हैं, उनका मानना है कि यह नपुंसकता से लेकर कैंसर तक के इलाज में कारगर है.

हालांकि वैज्ञानिक तौर पर इसके फायदे साबित नहीं हुए हैं. प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में एक रिपोर्ट में कहा गया है, ‘यह दुनिया की सबसे कीमती जैविक वस्तु है जो इसे एकत्रित करने वाले हजारों लोगों के लिए आय का अहम स्रोत है.’ शोधकर्ताओं का कहना है कि हाल के दशकों में, इस कीड़े की लोकप्रियता बढ़ गई है और इसके दाम आसमान छूने लगे हैं. बीजिंग में इसके दाम सोने की कीमत के मुकाबले तीन गुना अधिक तक जा सकते हैं. कई लोगों को संदेह है कि अत्यधिक मात्रा में इस फफूंद को एकत्र करने से इसकी कमी हो गई होगी.

लेकिन शोधकर्ताओं ने इसकी वजह जानने के लिए इसे एकत्र करने वालों और व्यापारियों का साक्षात्कार किया. उन्होंने पहले प्रकाशित वैज्ञानिक शोध का भी अध्ययन किया. इसमें नेपाल, भूटान, भारत और चीन में 800 से ज्यादा लोगों के साक्षात्कार भी शामिल हैं. क्षेत्र में यार्चागुम्बा उत्पादन का मानचित्र बनाने के लिए मौसम, भौगोलिक परिस्थितियां और पर्यावरणीय परिस्थितियों का भी अध्ययन किया गया.

रिपोर्ट में कहा गया है कि करीब दो दशकों और चार देशों के आंकड़ों का इस्तेमाल करने पर पता चला कि ‘कैटरपिलर फंगस’ कम हो रहा है. मुख्य शोधकर्ता केली होपिंग ने कहा कि यह शोध महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें ध्यान देने की मांग की गई है कि ‘कैटरपिलर फंगस’ जैसी कीमती प्रजातियां ना केवल अत्यधिक मात्रा में एकत्रित किए जाने के कारण कम हो रही हैं बल्कि इन पर जलवायु परिवर्तन का असर भी पड़ रहा है.

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