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दामोदर घाटी निगम पर संकट, जीवन रेखा को चाहिए जीवन दान

-उमा, धनबाद- -आजाद भारत की प्रथम बहु-उद्देशीय नदी परियोजना दामोदर घाटी निगम पर संकट के बादल- बाढ़ जैसी भीषण प्राकृतिक आपदा को नियंत्रित करते हुए जीवन को रोशन करने के मकसद से 66 साल पहले 7 जुलाई, 1948 को अस्तित्व में आयी आजाद भारत की प्रथम बहु-उद्देशीय नदी परियोजना दामोदर घाटी निगम (डीवीसी) की जीवन […]

-उमा, धनबाद-

-आजाद भारत की प्रथम बहु-उद्देशीय नदी परियोजना दामोदर घाटी निगम पर संकट के बादल-

बाढ़ जैसी भीषण प्राकृतिक आपदा को नियंत्रित करते हुए जीवन को रोशन करने के मकसद से 66 साल पहले 7 जुलाई, 1948 को अस्तित्व में आयी आजाद भारत की प्रथम बहु-उद्देशीय नदी परियोजना दामोदर घाटी निगम (डीवीसी) की जीवन रेखा आज जीवन दान के लिए तरस रही है. 27 मार्च, 1948 को डीवीसी का गठन भारत के संसद की ओर से डीवीसी एक्ट 1948 पारित कर किया गया, जिसे तत्कालीन गवर्नर जनरल की सहमति मिली और जिसमें तत्कालीन अविभाजित बिहार (अब झारखंड), पश्चिम बंगाल और केंद्र का संयुक्त रूप से स्वामित्व है. अस्तित्व संकट से जूझ रहे डीवीसी के मामले में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बनीं केंद्र की नयी सरकार से भागीरथ प्रयास की उम्मीद भी जगी है. पूरे हालात पर प्रकाश डालती प्रभात खबर की यह विशेष रिपोर्ट.

दामोदर वैली कॉरपोरेशन (डीवीसी) के प्रभारी अध्यक्ष पद से अरूप राय चौधरी के इस्तीफे के बाद नरेंद्र मोदी की नेतृत्ववाली केंद्र की नयी एनडीए सरकार ने ऊर्जा मंत्रलय में अतिरिक्त सचिव राजीव नयन चौबे को कार्यवाहक अध्यक्ष बनाया है़ ऊर्जा मंत्रलय ने स्थायी व नये अध्यक्ष को लेकर चयन की प्रक्रिया शुरू कर दी है. नियमित अध्यक्ष के चयन तक चौबे इस पद पर रहेंगे. चौबे के सामने अस्तित्व संकट से जूझ रहे डीवीसी के लंबित प्रोजेक्टों को पूरा कराने, सुप्रीम कोर्ट में लंबित ऐश पौंड निबटारा, विभिन्न प्रतिष्ठानों पर करीब 80 अरब बकाये की उगाही के साथ पूर्व प्रभारी अध्यक्ष के फैसलों से कर्मियों में उपजी हताशा के बादल को छांट कर विश्वास बहाली की चुनौतियां हैं.

ऊर्जा मंत्रालय में कई विभागों के अलावा डीवीसी से संबंधित मामले देखते रहे चौबे से उम्मीदें तो हैं, मगर डीवीसी का मर्ज इस कदर बढ़ चुका है कि केंद्र सरकार के गंभीर कदम से ही कुछ रास्ता निकल सकता है.

पुनरुद्धार के लिए पुनर्गठन जरूरी

ताप विद्युत (थर्मल पावर) इकाइयों की 5710 मेगावाट तथा जल विद्युत (हाइडल पावर) इकाइयों की 147.2 मेगावाट के साथ कुल उत्पादन क्षमता 5957.2 मेगावाट पर डीवीसी को 1075 करोड़ रुपये की आनेवाली लागत के एवज में सिर्फ 825 करोड़ रुपये की ही उगाही हो पाती है. इस तरह करीब 250 करोड़ रुपये मासिक घाटे के अलावा कर्ज की हालत यह है कि सिर्फ मासिक सूद 200 करोड़ रुपया हो गया है. इन संकटों से जूझ रहे डीवीसी को लेकर ऊर्जा क्षेत्र में यह धारणा प्रबल हो गयी है कि इसका पुनरुद्धार इसके पुनर्गठन के बिना संभव नहीं. ऐसे में डीवीसी में कार्यरत करीब 11,000 मानव श्रम को अपना भविष्य अंधकार में पड़ता नजर आ रहा है, तो अकारण नहीं.

संकट के नये मुकाम

साल 1992 के बाद चले आर्थिक सुधार के अभियान में ढांचागत सुधार जो भी हुआ हो, पर सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के लिए तो यह दु:स्वप्न साबित हुआ. नीतिगत सीमाएं जो भी रही हों, पर एक के बाद एक निगम के अध्यक्षों के कार्यकाल में तंत्र की नाकामी उजागर होती गयी. इसी कड़ी में डीवीसी के विखंडन आदि के हालिया प्रकरण ने नवंबर में प्रभारी अध्यक्ष के रूप में आये अरूप रायचौधरी के कदमों ने पूरे माहौल को गरमा दिया. रायचौधरी ने निगम के समक्ष पहले से मौजूद चुनौतियों और सीमाओं से लड़ने की बजाय संकट के नये मुकाम खोले. इस अध्यक्ष के कार्यकाल ने सबके सामने डीवीसी को समूचेपन में देखने की बाध्यता पैदा कर दी.

कांटा कहां गड़ा

पश्चिम बंगाल के कटवा में एनटीपीसी के 1320 मेगावाट का प्लांट जमीन के मामले को ले अंटक गया. बंगाल सरकार ने किसी भी तरह के सहयोग से इनकार कर दिया. ऐसी ही स्थिति में भारत सरकार ने एनटीपीसी के सीएमडी अरूप रायचौधरी को डीवीसी के चेयरमैन का प्रभार दे दिया था. इसके साथ प्रच्छन्न शर्त थी कि वे बंगाल सरकार के साथ मामले को निबटा लेंगे, तो उन्हें डीवीसी का पूर्णकालिक अध्यक्ष बना दिया जायेगा. निवर्तमान प्रभारी अध्यक्ष से पूर्व यहां आरएन सेन अध्यक्ष (नियमित) थे. वे भी एनटीपीसी से ही लाये गये थे. सेन एनटीपीसी में चौधरी के मातहत रह चुके थे. चौधरी से पूर्व सेन ने कटवा प्रोजेक्ट को ले कुछ होमवर्क भी किया था. इसी स्थिति में बंगाल सरकार का रुख प्रदर्शित हुआ कि वह डीवीसी से ट्रांसमिशन, डिस्ट्रीब्यूशन बंगाल के जिम्मे दे दे तो वह प्रोजेक्ट के लिए जमीन संबंधी मामले हल करने में सहयोग करेगा.

84 अरब का बकाया

एक अनुमान के मुताबिक डीवीसी का कुल बकाया करीब 84 अरब तक पहुंच गया है. सिर्फ चार राज्यों झारखंड, पश्चिम बंगाल, नयी दिल्ली एवं मध्य प्रदेश पर ही कुल 8368.91 करोड़ रुपये का बकाया है. झारखंड राज्य बिजली बोर्ड पर 31 मार्च, 2013 तक का 4370.4 करोड़ तथा मार्च 2014 तक 7170.4 करोड़ रुपये का बकाया है. नयी दिल्ली की बीएसइएस यमुना पॉवर लिमिटेड पर 480.10 करोड़, मध्यप्रदेश के मध्यप्रदेश पावर मैनेजमेंट कंपनी लिमिटेड (एमपीएमसीएल) पर 418.41 करोड़ और पश्चिम बंगाल पर 300 करोड़ रुपये बकाया. डीवीसी प्रबंधन की मानें, तो बकाया भुगतान से आर्थिक संकट दूर हो सकता है.

..और तेज हुआ विस्थापितों के नियोजन का आंदोलन

हाल ही में गये डीवीसी के प्रभारी चेयरमैन अरूप रायचौधरी के इस्तीफे के बाद जहां डीवीसी की ट्रांसमिशन लाइन, डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम, दुर्गापुर बैरेज तथा सिंचाई व्यवस्था पश्चिम बंगाल को सौंपने के प्रस्ताव को लेकर उत्पन्न तूफान थमा हीं था कि

विस्थापितों के नियोजन की वर्षो पुरानी मांग को लेकर घटवार आदिवासी महासभा का आंदोलन तेज हो गया.

बीती 23 मई से घटवार आदिवासी महासभा के मुख्य सलाहकार व सामाजिक कार्यकर्ता रामाश्रय प्रसाद सिंह के नेतृत्व में विस्थापितों का अनिश्चितकालीन धरना और नगA प्रदर्शन जारी है. झारखंड और पश्चिम बंगाल के विभिन्न इलाकों में विस्थपितों को नौकरी व मुआवजा देने की मांग को लेकर छोटे-बड़े आंदोलन होते रहे हैं. मगर वर्ष 2006 में रामाश्रय सिंह के नेतृत्व में घटवार आदिवासी महासभा के गठन के बाद झारखंड और पश्चिम बंगाल के चार जिलों जामताड़ा, धनबाद, पुरुलिया और बर्धमान के विस्थापितों की डीवीसी में नौकरी की मांग को लेकर आंदोलनों का दौर शुरू हुआ. महासभा के बैनर तले जारी आंदोलन में मेधा पाटकर व स्वामी अगिAवेश तक शिरकत कर चुके हैं.

इस बार आर-पार : श्री सिंह कहते हैं : ‘‘इस बार लड़ाई आर-पार की है.’’

23 मार्च, 2014 को डीवीसी प्रबंधन के साथ हुई बैठक में तय हुआ था कि 23 मई तक विस्थापितों के नियोजन व मुआवजा समस्या का समाधान कर लिया जायेगा. बैठक में सरकार की ओर से धनबाद के एडीएम लॉ एंड ऑर्डर बीपीएल दास और डीवीसी के प्रबंधक एचआर, पंचेत एसके लाल आदि उपस्थित थे. समय सीमा पूरी होने के बाद भी नियोजन नहीं मिला है.’’

नौकरी से वंचित हैं हजारों ग्रामीण : सिंह का कहना है कि जब जमीन ली गयी, तब अच्छा लगा और आज नौकरी देने की बात है, तो बुरा लग रहा है. डीवीसी को हर हाल में नौकरी देनी होगी. उन्होंने बताया कि झारखंड और पश्चिम बंगाल के विभिन्न इलाकों में डीवीसी ने अपनी परियोजनाओं के लिए जो जमीन ली, उसके एवज में कुछ ग्रामीणों को नौकरी दी गयी, जबकि हजारों लोग आज भी नौकरी से वंचित हैं. कई ग्रामीणों को सिर्फ मुआवजा दिया गया. साथ ही कई ऐसे ग्रामीण भी हैं, जिन्हें न तो नौकरी मिली और न ही मुआवजा. सिंह का कहना है कि 1953 में डीवीसी की परियोजनाओं के लिए 33.788 एकड़ जमीन ली गयी थी. इससे झारखंड के धनबाद व जामताड़ा और पश्चिम बंगाल के पुरुलिया व बर्धमान जिलों के 164 गांवों के 13,000 परिवारों की करीब 70,000 आबादी प्रभावित हुई. इन जिलों में सीधे तौर पर 4,673 घर-बाड़ी प्रभावित हुई. इतने बड़े पैमाने पर जमीन अधिग्रहण कर मात्र 350 ग्रामीणों को नौकरी दी गयी और मुआवजा भी. इसके अलावा कई अन्य ग्रामीणों को मुआवजा दिया गया.

न्यायालय की अवमानना : सिंह का आरोप है कि इस मामले में डीवीसी प्रबंधन कोर्ट के आदेश की भी अवमानना करता रहा है. वर्ष 1992 में नौकरी व मुआवजा की मांग को 91 विस्थापित ग्रामीण कलकतत्ता हाइकोर्ट और फिर सुप्रीम कोट की शरण में गये. नौ अप्रैल, 1992 को न्यायमूर्ति जयचंद रेड्डी, न्यायामूर्ति एस मोहन, न्यायमूर्ति जीएन रे की खंडपीठ ने विस्थापितों के पक्ष में फैसला सुनाया. सिंह के मुताबिक फैसले में साफ तौर पर कहा गया है कि विस्थापितों की नौकरी के लिए किसी तरह का पैनल अनिवार्य नहीं. जिन लोगों मुआवजा दिया गया, उन्हें नौकरी भी दी जानी चाहिए. कोर्ट के आदेश के बावजूद विस्थापितों को नौकरी नहीं मिल पायी है.

जिम्मेदार कौन ?

अफसरशाही से नीतिगत विफलता और तंत्र की सीमाएं उजागर होती गयीं

कैसे पड़ी नींव
दामोदर के कारण वैसे तो बाढ़ का सर्वाधिक विध्वंसक रूप 1730 में प्रकट हुआ, पर 1943 की बाढ़ ने तो विनाशलीला का इतिहास ही लिखा दिया. कहा जाता है कि डेढ़ माह तक कोलकाता का संपर्क शेष दुनिया से कटा रहा. राजनेता बीसी राय तथा वैज्ञानिक मेघनाद साहा जैसे लोगों के अनुरोध पर अंगरेजी हुकूमत को समस्या पर गंभीर रूख अख्तियार करना पड़ा. दामोदर के बरसाती पानी को घेर कर रखने और मॉनसून के बाद इसके रचनात्मक इस्तेमाल की पीठिका यूं ही नहीं बनी. इसी पृष्ठभूमि में पुनर्जीवन के स्वप्न को साकार करने के लिए बंगाल के तत्कालीन गवर्नर ने बतौर अध्यक्ष बर्दवान महाराज और सदस्य के रूप में वैज्ञानिक मेघनाद साहा को लेकर एक बोर्ड का गठन किया. बोर्ड ने अपने प्रतिवेदन में अमेरिका की टेनेसी वैली ऑथोरिटी (टीवीए) की तर्ज पर एक प्राधिकरण गठित करने का सुझाव दिया. सुझाव का असर यह हुआ कि भारत सरकार ने इसी टीवीए के वरिष्ठ अभियंता डब्ल्यूएल वूडवीन को दामोदर घाटी के समग्र विकास के लिए अपनी सिफारिश पेश करने के लिए नियुक्त किया.

ऐसे अमल में आयी योजना
घाटी के दोनों ओर विकास के आधुनिक मंदिर खड़ा करने के लिए योजना पर व्यावहारिक अमल के लिए अप्रैल 1947 तक एक बहुद्देश्यीय योजना के रूप में भारत सरकार, बंगाल सरकार तथा तत्कालीन बिहार सरकार के बीच अनुबंध हुआ. नतीजतन सात जुलाई 1948 को अस्तित्व में आये और 25000 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले डीवीसी के मुख्य कार्य विद्युत उत्पादन, सिंचाई, बाढ़ नियंत्रण, नौकायन आदि थे. भारत सरकार, पश्चिम बंगाल तथा झारखंड तीनों की इसमें समान हिस्सेदारी है. अब मेजिया, रघुनाथपुर (प. बं.) तक इसके विस्तार के बाद निगम के कार्यक्षेत्र के विस्तार के बाद राज्यों की दावेदारी का परिदृश्य पहले की तरह नहीं रहा.

400 करोड़ का कर्ज
वर्ष 2006 में असीम बर्मन को डीवीसी का अध्यक्ष बनाया गया था. वर्ष 2010 में होनेवाले कॉमनवेल्थ गेम के लिए मंत्रलय ने बिजली की आपूर्ति डीवीसी से करने का फैसला लिया था. तत्कालीन ऊर्जा मंत्री सुशील शिंदे थे. बिजली की इस जरूरत को पूरा करने के लिए पांच बिजली संयंत्र स्थापित करने की योजना बनी. डीवीसी के पास इस योजना पर काम करने के लिए अपेक्षित राशि नहीं थी. उसे कर्ज लेने पड़े. आनन फानन में रघुनाथपुर का प्रोजेक्ट रिलायंस को दिया गया. इसके लिए उसे बिना सूद के 400 करोड़ का कर्ज (रघुनाथपुर प्रोजेक्ट के लिए बतौर अग्रिम) दिया गया. योजना की अदूरदर्शिता, संसाधन की सीमाओं तथा अधिकारियों की उदासीनता के कारण डीवीसी से बिजली दिल्ली तो गयी, पर सब कुछ दिखावा था. पावर प्लांट के किसी भी प्रोजेक्ट पर काम करते वक्त शेष चीजों के साथ दो बातों पर खास तौर पर गौर किया जाता है. एक तो उत्पादन की लागत तथा दूसरी बिजली बनेगी तो जायेगी कहां? चूंकि इस पर विचार किये बिना सभी काम हुए. फलस्वरूप आज डीवीसी के नये प्लांट की बिजली के खरीदार नहीं मिल रहे हैं.

बकाया 84 अरब की वसूली से मिल सकती है राहत
बकायेदारों पर मामला दर्ज होने की बीत गयी डेडलाइन डीवीसी के प्रभारी निदेशक (एचआरडी) प्रह्वाद कुमार सिन्हा ने कोलकाता से प्रभात खबर को दूरभाष पर बताया था कि ’’डीवीसी के चार बड़े बकायेदार राज्यों ने मई तक भुगतान नहीं किया तो सभी पर मामले दर्ज किये जायेंगे.’’ उन्होंने एक सवाल के जबाब में कहा कि डीवीसी सभी लंबित नये पावर प्लांट में लगभग 29,000 करोड़ रुपये लगे हुए हैं. सारे प्रोजेक्ट के अस्तित्व में आ जाने के बाद डीवीसी पर टंगी वित्तीय कटार फिलवक्त टल जायेगी.’’

निवर्तमान प्रभारी अध्यक्ष के कदमों से हिल गये डीवीसी के कर्मियों के अच्छे दिन बकाया वसूली पर निर्भर हैं. एक अनुमान के मुताबिक कुल बकाया करीब 83 अरब 68 करोड़ 91 लाख रुपये तक पहुंच गया है, लेकिन सिर्फ चार राज्यों झारखंड पर 7170.4 करोड़, नयी दिल्ली पर 480.10 करोड़, मध्य प्रदेश पर 418.41 करोड़ व पश्चिम बंगाल पर 300 करोड़ रुपये बकाया है. ऐसे में कर्ज में डूबे और कुप्रबंधन के शिकार इस प्रतिष्ठान का आर्थिक पुनरुद्धार तुरत-तुरत तो नहीं हो सकता, पर चुनौतियों भरे सख्त रास्ते पर बढ़ने के लिए बकाये की वसूली से थोड़ी फुरसत जरूर मिल सकती है.

बकाये के बावजूद सप्लाई जारी
मार्च 2014 तक डीवीसी का झारखंड राज्य के पास 7170.4 करोड़ रुपये बकाये में से 1500 करोड़ रुपये देने की गत माह की घोषणा के बावजूद किसी भुगतान का अब तक कोई रास्ता नहीं दिख रहा है. विचित्र तो यह है कि डीवीसी का वाणिज्यिक विभाग इसके बावजूद उपरोक्त राज्यों को बिजली की सप्लाई कर रहा है. वैसे मई तक उसने अल्टीमेटम दे रखा है, अन्यथा बिजली काट लेने की चेतावनी दी गयी है. डीवीसी की मासिक बिजली सप्लाई की बिलिंग 1100 करोड़ रुपये की है, जबकि इसका उत्पादन व्यय करीब 1075 करोड़ रुपये बताया जाता है. उपभोक्ताओं से बिजली बिल के मद में 850 करोड़ रुपये की ही वसूली हो पा रही है. इस प्रकार डीवीसी को 250 करोड़ रुपया का आर्थिक घाटा उठाना पड़ रहा है. बकाया वसूली के लिए जिम्मेवार वाणिज्यिक विभाग में इसके लिए कोई व्यग्रता नही दिखती. उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि साउथ कॉरिडोर के राज्यों में केरल को 250 मेगावाट तथा कर्नाटक को 450 मेगावाट बिजली की सप्लाई देने की प्रक्रिया पर कार्य प्रगति पर है. इन राज्यों को सप्लाई होने से डीवीसी की हालत आंशिक तौर पर सुधर सकती है.

झारखंड सरकार के भुगतान से हो जायेगा कायाकल्प
झारखंड सरकार यदि डीवीसी का बकाया भुगतान कर दे, तो आर्थिक संकट से जूझ रहे डीवीसी का कायाकल्प हो जायेगा. यह कहना है डीवीसी के प्रबंध निदेशक (कॉमर्शियल) अमिताभ नायक का. प्रभात खबर से दूरभाष पर बातचीत के दौरान श्री नायक ने कहा कि जेएसइबी पर 31 मार्च 2013 तक का 4370.4 करोड़ का बकाया है. जबकि मार्च 2014 तक बकाया बढ़कर 7170.4 करोड़ हो गया है. इसमें सरचार्ज भी शामिल है. जेएसइबी के विखंडन के बाद बनी कंपनियां जीरो लाइबलिटी पर गठित हुई है. कहा कि डीवीसी के भुगतान पर ऊर्जा मंत्री ने भी सकारात्मक पहल किया है. इसके तहत फाइनल रिकवरी प्लान (एफआरपी) तैयार किया गया. पॉवर फाइनांस कंपनी (पीएफसी) तथा बैंक ऑफ इंडिया रकम देने के लिए तैयार है. इसके लिए दोनों संस्थाओं को गैरेंटर व कागजात जमा कराने का काम झारखंड सरकार का है. कागजी प्रक्रिया पूरी करते ही संस्थान रकम दे देंगे. इस मुद्दे पर ऊर्जा सचिव से भी कई दौर का बातचीत हो चुकी है. साथ ही हाल के दिनों झारखंड के ऊर्जा मंत्री राजेंद्र सिंह के कोलकाता दौरे में भी इस बात को रखा गया था. श्री सिंह ने आश्वस्त किया था कि जल्द ही सभी कागजी प्रक्रिया पूरी कर ली जायेगी. मालूम रहे कि 5 मई को डीवीसी उन्नयन समिति के सदस्यों ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को दिये गये ज्ञापन में भी बकाया भुगतान का आग्रह किया था. श्री सोरेन ने आश्वस्त किया था कि जल्द ही भुगतान कर दिया जायेगा.

2001 से है बकाया
श्री नायक ने बताया कि जेएसइबी पर यह बकाया वर्ष 2001 से है. इतने लंबे समय से बकाया रहने के कारण डीवीसी की आर्थिक हालत डगमगा गयी है. नये प्लांटों के काम रूका हुआ है. कोयला की कमी हो रही है. झारखंड सरकार ने मार्च 2014 तक भुगतान का आश्वासन दिया था, परंतु मई बीत जाने पर भी भुगतान नहीं हुआ है. भुगतान पर डीवीसी का भविष्य टिका हुआ है. भुगतान न होने से सरचार्ज भी बढ़ रहा है. श्री नायक ने आशा व्यक्त की कि जल्द ही भुगतान हो जायेगा. कहा कि वे नहीं चाहते हैं कि झारखंड में मजबूरन बिजली कटौती पुन: शुरू करना पड़े.

दिल्ली व मध्यप्रदेश पर भुगतान का दवाब
श्री नायक के अनुसार नयी दिल्ली में बिजली वितरण करने वाली कंपनी बीएसइएस यमुना पॉवर लिमिटेड को माननीय उच्चतम न्यायालय ने चार सप्ताह में भुगतान के संबंध में हलफनामा दायर किया था. इस कंपनी पर डीवीसी का 443.48 करोड़ बकाया व 36.62 करोड़ डिले फाइन बकाया है. डीवीसी उच्चतम न्यायालय में भुगतान को ले गुहार लगायी थी. इसी के आलोक में न्यायालय ने यह आदेश जारी किया. वहीं मध्य प्रदेश की मध्यप्रदेश पॉवर मैनेजमेंट कंपनी लिमिटेड पर डीवीसी का 418.41 करोड़ का बकाया है. मध्य प्रदेश सरकार ने चुनाव प्रक्रिया पूरी होने के बाद भुगतान का आश्वासन दिया है. कंपनी से कई बार इस मुद्दे पर बातचीत हो चुकी है.

घोटाला के परदाफाश का समय
भ्रष्टाचार और घोटाले भारत में इतने सामान्य हो गये हैं कि किसी घोटाले के परदाफाश से कोई फर्क नहीं पड़ता. हालांकि, उन्हें प्रकाश में लाया जाना चाहिए क्योंकि ऐसे घोटाले भोले भाले लोगों को पीड़ित करते हैं और उद्घाटित करने वाले भरोसा जगाते हैं कि सब कुछ खत्म नहीं हुआ. हमारे पास इसके ढेरों उदाहरण हैं जिसमें घोटालों के सार्वजनिक होने के बावजूद सरकार ने उन पर कोई कार्रवाई नहीं की है. ‘डीवीसी’ बिजली उत्पादन का देश का सबसे बड़ा केंद्र है. प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने डीवीसी को भारत के नये मंदिर के रूप में देखा था. घोटाले की शुरुआत वर्ष 2006 में तब हुई जब वर्ष 2010 में होनेवाले राष्ट्रमंडल खेलों के लिए 5200 मेगावाट बिजली के लिए भारत सरकार ने डीवीसी से खरीद का करार किया. डीवीसी की समूची परियोजना से उठे सवालों का जवाब भारत सरकार को देना होगा. तत्कालीन ऊर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने किन स्थितियों में दिल्ली से 1500 किमी दूर से बिजली खरीदने का निर्णय किया? जब झारखंड तथा पश्चिम बंगाल की 70 फीसदी आबादी अंधेरे में रह रही हो तो डीवीसी राष्ट्रमंडल खेलों के लिए नयी परियोजना लगाने को क्यों बेताब है? मुंबई के इस ‘पावर हाउस’ ने काम पूरा होने की अवधि समाप्त होने के बाद भी ब्याज मुक्त कर्ज देने की उदारता क्यों दिखायी?

क्या नयी सरकार घोटालों की सुध लेगी!
प्रस्तावित बिजली घरों के निर्माण के नाम पर हुई अंधेरगरदी की जांच को भारत सरकार के केंद्रीय सतर्कता आयोग ने हर हाल में जरूरी बताया है. केंद्रीय ऊर्जा मंत्रलय तथा डीवीसी के बीच राष्ट्रमंडल खेलों के लिए 5200 मेगावाट बिजली की आपूर्ति के लिए ऊर्जा क्रय का करार हुआ था. इसी करार को अमलीजामा पहनाने के लिए मंत्रलय ने छह परियोजनाओं पर काम के लिए डीवीसी को हरी झंडी दी. डीवीसी ने मेजिया, दुर्गापुर, कोडरमा, रघुनाथपुर, बाकोरो तथा चंद्रपुरा में प्रस्तावित ताप विद्युत केंद्रों को पूरा करने के लिए 25,000 करोड़ की लागत की बात सामने रखी. अभियंताओं के डीवीसी तथा अखिल भारतीय संघों द्वारा जुटाए गये तथ्यों के मुताबिक इस पर अब तक 5,000 करोड़ रुपये से अधिक खर्च हो चुके हैं. साक्ष्य बताते हैं कि इन प्रोजेक्ट के लिए निविदा की रेवड़ी बांटने का काम निगम के एक पूर्व अध्यक्ष ने किया था. बिजली घरों से लेकर डीवीसी की तमाम अन्य परियोजनाओं में बरती गयी अनियमितताओं की जानकारी यदा-कदा तत्कालीन पीएम तथा सीवीसी को दी जाती रही है. भाकपा के पूर्व सांसद भुवनेश्वर मेहता, जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव, राजद सांसद अलोक मेहता समेत अभियंताओं के संघों ने बाकायदा तत्कालीन पीएम को इससे रू-ब-रू कराया. केंद्रीय सरकार के सीवीसी ने मंत्रलय को 21 नवंबर, 2008 को पत्र लिखकर कड़ी आपत्ति जतायी. उसने बताया कि दूसरे संवेदकों की अनदेखी करते हुए रिलायंस इनर्जी लिमिटेड को अवैध तरीके से 4,000 करोड़ का ठेका दे दिया. ‘महाजनो ये गत: स पंथा:’ की तर्ज पर एक कदम अगे बढ़कर डीवीसी ने सभी कायदे-कानून को ताख पर रख कर बिना सूद के रिलायंस को 354.07 करोड़ का अग्रिम भुगतान कर दिया.

यहां सवाल तो यह भी है कि भेल, मोनेट और डेक जैसी कंपनियों को तकनीकी विशेष विवरण के लिए एक दिन की भी मोहलत नहीं देने वाली डीवीसी ने अनुबंध के विरु द्ध रिलायंस को एक माह विलंब से विद्युत आपूर्ति की छूट क्यों दी? दरअसल इस रिलायंस ने अनुबंध की शर्तों के अनुसार राष्ट्रमंडल खेलों के लिए अक्टूबर 2010 की बजाय नवंबर 2010 तक विद्युत आपूर्ति का आग्रह डीवीसी प्रबंधन से किया और प्रबंधन द्वारा बेहिचक इसे स्वीकार कर लेना सवालिया तो है ही.

डीवीसी के चेयरमैन समझौते के आधार पर दो करोड़ से ज्यादा के ठेका देने को अधिकृत नहीं रखते. अचरज की बात है कि 2008 के जून में प्रस्तावित बोकारो ए ताप विद्युत केन्द्र के निर्माण के लिए आपसी समझौते के आधार पर चेयरमैन ने भेल को 1840 करोड़ रु पये का ठेका दे दिया. इस केन्द्र के लिए डीवीसी ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निविदा आमंत्रित किया था. इस निविदा के लिए चार कंपनियों ने निविदा पत्र खरीदे थे. भेल ने निविदा जमा नहीं की. चेयरमैन असीम कुमार बर्मन ने दूसरे निविदाकर्ताओं की उपिस्थति को नजरअंदाज करते हुए कानूनी दायरे से बाहर जाकर भेल को ठेका दे दिया. जब भेल को काम देना पहले से तय था तो फिर ग्लोबल बिडिंग का दिखावा ही क्यों ?

केंद्र सरकार तथा सीवीसी की साफ हिदायत है कि किसी प्रस्तावित परियोजना के एवज में कंपनी को दस फीसदी सूद पर ही कर्ज दे सकते हैं. केंद्र सरकार के महालेखाकार ने सीवीसी से इस बाबत जवाब तलब किया था. सूद रहित कर्ज की रकम देने की सीबीआइ जांच को एक साल तक लंबित रखने वाली तत्कालीन सरकार के ऊर्जा मंत्री के दामन अब भी साफ हैं.

यही नहीं कोडरमा में प्रस्तावित ताप विद्युत केन्द्र के लिए जून 2007 में डीवीसी ने भेल को एकल निविदा के आधार पर 2606 करोड़ 79 लाख रु पये के ठेका ही नहीं दिया, अग्रिम भुगतान भी किया. कार्य मंजूरी के समय यहां भूमि अधिग्रहण का मसला विवादित था. आखिर किस जमीन पर काम के लिए मंजूरी तथा अग्रिम भुगतान किये गये? बार-बार यह कृपा कंपनी विशेष पर ही क्यों बरसती है?

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