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जहां कभी बारूद था, अब संगीत है

-हुसैन कच्छी, लाहौर से लौट कर- लाहौर में देखने लायक बहुत कुछ है और मिलना चाहें तो कई दिलचस्प लोग. कई वजहों से यह शहर पाकिस्तान की तहजीबी राजधानी है. इस शहर में कई बार गया हूं, कई चीजें देखी हैं, एक हवेली बारूदखाना देखना रह गया था, सो पिछले सफर में यह कसर भी […]

-हुसैन कच्छी, लाहौर से लौट कर-

लाहौर में देखने लायक बहुत कुछ है और मिलना चाहें तो कई दिलचस्प लोग. कई वजहों से यह शहर पाकिस्तान की तहजीबी राजधानी है. इस शहर में कई बार गया हूं, कई चीजें देखी हैं, एक हवेली बारूदखाना देखना रह गया था, सो पिछले सफर में यह कसर भी पूरी हो गयी. हवेली के मौजूदा मालिक मियां यूसुफ सलाहुद्दीन से कुछ महीने पहले फोन पर बात हुई थी, उन्होंने दावत दी थी. लाहौर पहुंच कर उन्हें फिर फोन किया. अगले दिन का वक्त तय हुआ. पुराना शहर जिसे अंदरूने शहर भी कहते हैं, वहां बादशाही जमाने की कम चौड़ी सड़कों से गुजरता हुआ मशहूरे जमाना हीरा मंडी के एक सिरे पर पहुंचा, जहां यह हवेली कायम है.

हीरा मंडी अपनी खास रिवायत की वजह से अलग शोहरत रखती है. इसके कोठों पर पाकिस्तान की कई फिल्मी अदाकारों की परवरिश हुई है. मशहूर मोसीकार ताफू इसी हीरा मंडी की पैदावार हैं. सुना है, गजल गायक गुलाम अली यहीं एक कोठे पर साजिंदों के दरम्यान संगत दे रहे थे, जब रेडियो पाकिस्तान के एक आला अफसर मुजरा सुनने तशरीफ लाये थे, उन्होंने गुलाम अली को रेडियो पर मौका दिया और गुलाम अली ने तारीख बना डाली. महाराजा रणजीत सिंह की मंजूरे नजर मूरां तवायफ यहीं एक कोठे पर पैदा हुईं, पलीं, बढ़ीं, और फिर जब उनका जबरदस्त रूप निखरा तो रणजीत सिंह उनके आशिक हो गये. महाराजा अपनी मूरां से मिलने हाथी पर सवार होकर आते थे. मूरां का रुतबा इस कदर बढ़ा कि महाराजा के दरबार में उनका सिक्का चलने लगा. महाराजा ने उनको हीरा मंडी से निकाल कर शाह आलमी में एक कोठी बनवा कर दी, जिसके साथ कुछ जमीन खाली थी. मूरां ने उस जमीन पर एक मसजिद तामीर करवायी जो अब मूरां वाली मसजिद के नाम से मशहूर है. मैं यह मसजिद पहले देख चुका हूं.

खैर, बात आगे निकल गयी, मैं हवेली बारूदखाना के सदर दरवाजे पर पहुंचा तो एक कारिंदा मुङो अंदर ले गया, जहां मियां साहब की बैठक है. लम्हे भर में मेरे सामने एक बड़ी पुरकशिश शख्सीयत थी, जो किसी मुगल शाहजादे से कम न थी. यह मियां साहब खुद थे जिन्होंने यह कहते हुए मुङो गले से लगा लिया कि आप हिंदुस्तान से आये मेरे मुअज्जिज मेहमान हैं, बड़ी मुहब्बत से इस्तकबाल हुआ. कहने लगे, आप सचमुच इतनी दूर से हवेली देखने और मुझसे मिलने आ जायेंगे, इसका यकीन नहीं था. बड़ी खुशी हो रही है. मैंने कहा, मियां साहब, आप काम ही ऐसा कर रहे हैं. आप इतनी चाहत के साथ लोक विरासत की हिफाजत में लगे हुए हैं. संगीत, राग, रागिनियों, अदब और तहजीब के जरिये मुहब्बतों का पैगाम फैला रहे हैं. मौजूदा धुंधलेपन और घुटन को दूर करने में लगे हुए हैं, तो हम जैसे तहजीब और फन के कद्रदान भी कहां रुकनेवाले हैं.

यू-ट्यूब और दूसरे जरिये से हवेली की थोड़ी सैर तो कर चुका हूं, लेकिन इसे अपनी आंखों से देखने और आप से कुछ बातें करने के लिए हाजिर हुआ हूं. अपने साथ अमनपसंदों का पैगाम लाया हूं. आप अपने फनकारों के साथ रांची तशरीफ लायें, इसकी दावत देने आया हूं. कोई दो-तीन साल पहले हिंदुस्तान की यौमे आजादी (स्वतंत्रता दिवस) के मौके पर पाकिस्तान के गुलाम अली रांची आये थे, तो उन्हें सुनने के लिए शहर उमड़ पड़ा था. मियां साहब ने कहा सियासतदां जो मरजी कर लें, दोनों मुल्कों के बाशिंदे एक ही सांझी विरासत के वारिस हैं, आर्ट और कल्चर दोनों को जोड़े रखती है. भाई यह हजारों साल के तहजीबी रिश्ते हैं, यह कभी खत्म न होंगे. कोई स्पांसर तो करे, हम रांची भी जायेंगे और आपके दूसरे शहरों में भी प्रोग्राम करेंगे. आप जिसको चाहें बस नाम बता दीजियेगा, हम उसे ले आयेंगे. इधर क ई लाजवाब नये फनकार उभर रहे हैं उनका तारुफ भी हो जायेगा.

मियां साब (उन्हें मियां सल्ली भी कहते हैं) की अपनी बड़ी बाइज्जत पहचान है. वह अल्लामा इकबाल के नवासे (नाती) हैं. आला तालीमयाफ्ता, शेरो शायरी का शऊर उन्हें विरसे में मिला हुआ है. राहत फतेह अली और श्रेया घोषाल की आवाजों में उनकी लिखी गजलों और नज्मों की सीडी तैयार हो चुकी है. अगले कुछ दिनों में सामने आ जायेगी. राहत के ऊपर कुछ पाबंदियों की वजह से इसकी रेकार्डिग दो हिस्सों में (लाहौर और मुंबई) में अलग-अलग हुई और फिर ऐसे मिक्स कर दी गयी जैसे एक ही स्टूडियो में रेकार्ड हुई हो.

मुगलों के जमाने में यह हवेली एक वक्त से गुमनाम हो चुकी थी. रणजीत सिंह ने इसको अपना बारूदखाना बना दिया था, तब यह पूरे पंजाब में मशहूर हो गयी. आज मियां सल्ली के जाैक और शौक की बदौलत इस हवेली से निकलनेवाले सुरों की गूंज दुनिया भर में सुनायी दे रही है. यहां जारी होनेवाले सुरों और रागों से इसकी शोहरत आलमगीर है. मियां साहब ने इसकी सजावट और इसे शाही जमाने का रंग-रूप देने में कोई कसर नहीं उठा रखी है. यहां पहुंच कर आप खुद को उसी जमाने में महसूस करेंगे.

मियां सल्ली से एक यादगार मुलाकात करके हवेली से बाहर यही सोचता हुआ लौटा कि क्या कोई ऐसी सबील निकल सकती है कि हम पाकिस्तानी आर्टिस्टों, उनके लोक कलाकारों को बुला सकें, अपने लोगों से मिलवा सकें, उनकी मेजबानी करें. हमारे सुरों में जब वह अपने सिंधी, बलूची, सरायकी, पश्तो सुर मिलायेंगे तो कैसे सुर तैयार होंगे.

आखिर में एक नज्म

हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच सियासी लोग जो भी झगड़े करवाते रहें, पर अदीबों और फनकारों की ख्वाहिश तो अमन की है, मेल-मिलाप की है. अपनी नज्म में यही ख्वाहिश जाहिर की थी शायर अली सरदार जाफरी ने :

गुलाम तुम भी थे यारो, गुलाम हम भी थे/ नहा के खून में आयी थी फस्ले आजादी

मज़ा तो तब था के मिलकर इलाज-ए-जां करते/खुद अपने हाथ से तामीर-ए-गुलसितां करते

हमारे दर्द मे तुम, और तुम्हारे दर्द मे हम

शरीक होते तो जश्न-ए-आशियां करते

तुम आओ गुलशन-ए-लाहौर से चमन बरदोश

हम आयें सुबह-ए-बनारस की रोशनी लेकर,

हिमालयों की हवाओं की ताजगी लेकर,

और इसके बाद ये पूछें, कौन दुश्मन हैं?

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