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एक रेल यात्रा और याद करने लायक दो नाम

।। लीना सरमा ।। यात्रा एक अनुभव है. सफर रेल का हो, तो कहना ही क्या. इस दौरान कुछ लोगों की ईल हरकतें जहां दिलों-दिमाग को तोड़ देती हैं, वहीं अच्छे लोगों का साथ जीवन को उम्मीदों से सराबोर कर देती है. यहां पर हम एक ऐसे ही अनुभव से आपको रू -ब-रू करवा रहे […]

।। लीना सरमा ।।

यात्रा एक अनुभव है. सफर रेल का हो, तो कहना ही क्या. इस दौरान कुछ लोगों की ईल हरकतें जहां दिलों-दिमाग को तोड़ देती हैं, वहीं अच्छे लोगों का साथ जीवन को उम्मीदों से सराबोर कर देती है. यहां पर हम एक ऐसे ही अनुभव से आपको रू -ब-रू करवा रहे हैं. देश के दो रेल मार्गो पर की गयी यह यात्रा बहुत कुछ बयां करती है. सुखद बात यह है कि इस यात्रा का एक मुसाफिर आज देश का नेतृत्व कर रहा है, जिसने स्नेहिल व्यवहार से सफर को सुहाना बना दिया था.

1990 का वर्ष. गरमियों के दिन थे. इंडियन रेलवे (ट्रैफिक) सर्विस के प्रोबेशनर्स के रूप में मैं अपनी एक मित्र के साथ ट्रेन से लखनऊ से दिल्ली जा रही थी. जिस बोगी में हम थे, उसी बोगी में दो सांसद भी यात्रा कर रहे थे. यहां तक तो सब ठीक था, पर, उनके साथ बिना आरक्षण के यात्रा कर रहे 12 लोगों ने जो उधम मचाया था, वह डरा देनेवाला था. उन लोगों ने हमें हमारी आरक्षित सीट खाली करने के लिए बाध्य कर दिया. हमें सफर के सामान (लगेज) पर बैठना पड़ा. ईल फब्तियां कसने लगे. गालियां देने लगे.

हम डर से दुबके हुए थे और गुस्से से कसमसा रहे थे. इन हुड़दंगियों के साथ यात्रा वाली वह रात बहुत ही खौफनाक थी. हम बिल्कुल ही हाशिए पर थे, सम्मान और अपमान के बीच की बहुत ही महीन रेखा पर. ऐसा लग रहा था, मानो ट्रेवलिंग टिकट एग्जामिनर के साथ-साथ अन्य सभी यात्री भी गायब हो गये हैं.

अगली सुबह हमलोग दिल्ली पहुंच गये, गनीमत थी कि गुंडों ने कोई शारीरिक नुकसान नहीं पहुंचाया था. हालांकि हम मानसिक रूप से टूट गये थे. मेरी मित्र तो इस कदर आतंकित हो गयी थी कि उसने अहमदाबाद में अगले प्रशिक्षण के लिए न जाने का तय कर लिया और दिल्ली में ही रुक गयी.

मैं अगले प्रशिक्षण में जाने के लिए तैयार हो गयी, चूंकि मेरे साथ एक अन्य बैचमेट (उत्पलपर्णा हजारिका, अभी वह रेलवे बोर्ड की एक्जक्यूटिव डायरेक्टर हैं.) आ गयी थी. हमलोगों ने गुजरात की राजधानी जाने के लिए रात की ट्रेन ली. इस बार हमारे पास रिजर्वेशन नहीं था, चूंकि आरक्षित टिकट की व्यवस्था के लिए समय नहीं मिल पाया था. हमारे पास वेट-लिस्टेड टिकट था. हमलोग फस्र्ट क्लास बोगी के टीटीइ से मिले और उन्हें बताया कि हमें अहमदाबाद जाना है. ट्रेन में सभी सीटें भरी हुई थीं, लेकिन वह हमें सीट दिलाने के लिए नम्रता के साथ एक कूपे में ले गया. उसने हमारी मदद करने की कोशिश की.

कूपे में दो यात्री थे. दोनों सफेद खादी पोशाक पहने नेता थे. मैं तो देखते ही डर गयी थी. टीटीइ ने हमें आश्वस्त किया, ‘घबराने की जरूरत नहीं है. ये भले लोग हैं. इस रूट पर यात्रा करनेवाले नियमित यात्री हैं.’ एक व्यक्ति की उम्र 30 से 40 के बीच थी, सामान्य और स्नेहमय चेहरा था. और, दूसरे की उम्र 38-39 के आसपास थी, चेहरे पर पढ़ा जा सकनेवाला भाव तो नहीं था, पर व्यवहार स्नेहिल था. उन्होंने हमारे लिए खुशी-खुशी जगह बना दी. वे लोग लगभग एक किनारे में सिमट गये.

उन्होंने अपना परिचय दिया कि वे गुजरात भाजपा के नेता हैं. नाम तो उन्होंने बताया था, मगर मैं जल्द ही नाम भूल गयी, क्योंकि उस क्षण सह यात्रियों का नाम याद रखना महत्वपूर्ण नहीं था. हमने भी अपना परिचय दिया- हमलोग दोनों असम से हैं, रेलवे सर्विस प्रोबेशनर्स हैं. बातचीत जो शुरू हुई, वह बात करते-करते इतिहास और राजनीति पर पहुंच गयी. मेरी मित्र दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में पीजी कर चुकी थी, वह बात कर रही थी, मैं भी इस बहस में कूद पड़ी. हिंदू महासभा और मुसलिम लीग के निर्माण पर बात हो रही थी.

जो वरिष्ठ थे, वह काफी उत्साह से बहस में भाग ले रहे थे, और जो उनसे कम उम्रवाले थे, वह लगभग चुप ही रहे. मगर, उनकी देहभाषा से लग रहा था कि वे बहस को पूरी तल्लीनता से सुन रहे थे. मैंने बहस के दौरान श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मौत का जिक्र किया कि क्यों यह अभी तक बहुतों के लिए एक रहस्य की तरह है? उन्होंने अचानक पूछा: श्यामा प्रसाद मुखर्जी को आप कैसे जानती हों? मैंने उन्हें बताया कि जब मेरे पिता कलकत्ता विश्वविद्यालय में पोस्ट ग्रेजुएट स्टूडेंट थे, तो वह इस विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर थे. उन्होंने असम के एक नौजवान के लिए एक छात्रवृत्ति की व्यवस्था की थी. मेरे पिता अक्सर उन्हें याद करते और उनकी असामयिक मृत्यु पर अफसोस जताते थे. (51 वर्ष की उम्र में जून 1953 में उनकी मृत्यु हो गयी थी.)

जो कम उम्र वाले थे, वह दूसरी तरफ देखने लगे और धीमे से बुदबुदाया: ‘अच्छा, तो इन्हें सब मालूम है..’

तभी अचानक जो अधिक उम्र वाले थे, बोले: ‘ आप लोग गुजरात में हमारी पार्टी की सदस्य क्यों नहीं बन जातीं.’ हमलोग हंसने लगे, बोले- ‘हमलोग गुजरात के नहीं हैं.’ कम उम्रवाले नेता जी ने जोरदार ढंग से कहा-‘ .. तो क्या? हमें कोई समस्या नहीं है. हम अपने राज्य में प्रतिभाओं का स्वागत करत हैं.’ मैंने उनके शांत व्यवहार में अचानक एक चमक देखी.

इसी बीच खाना आया. चार शाकाहारी थाली. हमलोग चुपचाप खाये. जब पैंट्री कार मैनेजर पेमेंट लेने आया, तो कम उम्रवाले नेता जी ने हम सबका पेमेंट कर दिया. मैं धीरे से बुदबुदायी- थैंक यू. मगर, उन्होंने इसे खारिज कर दिया जैसे यह बहुत ही मामूली बात थी. मैंने उस पल महसूस किया कि उनकी आंखों में एक अलग किस्म की चमक है, जो बिना निगाह में आये रह नहीं सकती है. वह बहुत ही कम बोलते, ज्यादातर सुनते थे.

तभी टीटीइ आया और हमें बताया कि ट्रेन पूरी तरह से भरी है, इसलिए बर्थ का इंतजाम नहीं हो पाया. इतना सुनते ही दोनों व्यक्ति खड़े हो गये और बोले-‘ ठीक है, कोई बात नहीं. हमलोग मैनेज कर लेंगे.’ उन दोनों ने तुरंत फर्श पर चादर बिछायी और सो गये. और, हमलोग बर्थ पर सो गये.

इतना बड़ा अंतर! पिछली रात नेताओं के साथ यात्रा करते हुए कितना असुरक्षित महसूस कर रही थी, और यहां एक कूपे में दो नेताओं के साथ निर्भीक यात्रा कर रही थी.

अगली सुबह, जब ट्रेन अहमदाबाद पहुंचनेवाली थी, दोनों ने पूछा कि शहर में हमारे ठहरने का इंतजाम है न! बड़ी उम्रवाले नेता जी ने कहा कि अगर कोई परेशानी होती है तो हमारे घर के दरवाजे आपलोगों के लिए खुले हैं. बड़ी उम्रवाले की आवाज में एक सहज चिंता दिख रही थी, तो कम उम्रवाले नेता जी के चेहरे पर सच्ची सहानुभूति झलक रही थी. कम उम्रवाले नेताजी ने कहा: मैं तो यायावर की तरह हूं. आपको आमंत्रित करने के लिए मेरे पास घर नहीं है, मगर आप इस नयी जगह में सुरक्षित आश्रय के लिए इनका प्रस्ताव स्वीकार कर सकती हैं.

हमलोगों ने उन्हें आमंत्रण के लिए धन्यवाद दिया और आश्वस्त किया कि हमारे पास ठहरने की समस्या नहीं है. इसके पहले कि ट्रेन स्टेशन पर जाकर रुकती, मैंने डायरी निकाली और उन दोनों से फिर उनका नाम पूछा. मैं उन दोनों बड़े ही सहृदय सहयात्रियों का नाम नहीं भूलना चाहती थी, जिन्होंने मुङो नेताओं के बारे में बनी अपनी धारणा सुधारने के लिए बाध्य कर दिया था. ट्रेन रुकने ही वाली थी, मैंने उनका नाम झट से लिखा: शंकर सिंह वघेला और नरेंद्र मोदी.

वर्ष 1995 में मैंने इस घटना के बारे में असम के एक अखबार में लिखा था. यह गुजरात के दो अनजान नेताओं, जिन्होंने असम की दो बहनों के लिए बिना किसी शिकायत के जो स्नेह और सहूलियत दी, के प्रति सम्मान की अभिव्यक्ति थी. जब मैंने यह लिखा था, तब मुङो जरा भी यह इल्म नहीं था कि ये दोनों इतने प्रख्यात होने जा रहे हैं या बाद में मुङो उनके बारे में और जानने का मौका मिलेगा. वर्ष 1996 में शंकर सिंह वघेला जब गुजरात के मुख्यमंत्री बने, तो मुङो बहुत खुशी हुई. वर्ष 2001 में नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री बने, तो मैं उत्फुल्लित महसूस की. और अब वह भारत के प्रधानमंत्री हैं.

जब भी मैं उन्हें टीवी स्क्रीन पर देखती हूं, तो मुङो याद आता है वह गरमागरम भोजन, ध्यान रखनेवाला और सुरक्षा बोध का भाव, जो उस रात मुङो घर से दूर ट्रेन में मिली थी. मेरा सिर आदर के साथ झुक गया.

(लेखिका इंडियन रेलवे के सेंटर फॉर रेलवे इनफॉरमेशन सिस्टम की जनरल मैनेजर हैं. साभार: द हिंदू)

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