सफलता की इमारत उन ईंटों से ही बनायी जा सकती है, जिन्हें दूसरों ने हम पर फेंका होता है. यदि हम नाकारात्मक और निराशावादी टिप्पणियों का स्वयं पर कोई प्रभाव न होने दें, तो हमें सफलता को बेहद करीब से देखने का अनुभव होने लगेगा.
कई बार हमें यह महसूस होता है कि हमारे आस-पास नकारात्मक ऊर्जा का भंडार है. अगर हम कुछ करना चाहते हैं, तो लोग इतनी नकारात्मक बातें करते हैं कि हमारी सभी आशाएं निराशा में बदल जाती हैं. चाणक्य ने कहा था, आपकी मर्जी के बगैर आपको कोई निराश, हताश या दुखी नहीं कर सकता. इसके लिए हमें केवल अपने मन की बात सुननी चाहिए. यदि हमने कोई उपलब्धि हासिल कर ली, तो हमारे आलोचकों का मुंह हमेशा के लिए स्वत: बंद हो जायेगा. आज की यह बिल्कुल सच्ची कहानी हमें इस रहस्य को बेहतर ढंग से समझने में मदद करेगी.
बात कुछ वर्ष पहले की है. वाराणसी में एक रिक्शावान हुआ करता था. वह दिन भर कड़ी मेहनत के बाद कुल 20-30 रुपये ही कमा पाता था, जिससे किसी प्रकार उसकी पत्नी और बेटा गुजर-बसर कर पाते. उस रिक्शेवान का बेटा गोविंद मेधावी और पढ़ने में बेहद तेज लड़का था. जब वह 8वीं कक्षा में था, तो उसने सोचा कि क्यों नहीं छोटे बच्चों का कोई ट्यूशन ले लूं, ताकि घर की भी थोड़ी मदद हो जाये और थोड़ा पढ़ाई का भी खर्च निकल जाये. उसने छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया, जिससे महीने के 150 से 200 रुपये तक आ जाते. यह सब देख कर आसपास के लोग उसकी खिल्ली उड़ाते और कहते, कितना भी पढ़ लो, बड़े होकर तो रिक्शा ही चलाना है. जब लोगों के प्रहार तेज हो जाते, तो गोविंद अपने कान में रुई डाल लेता और अपने काम में लग जाता. उसका गणित विषय बहुत मजबूत था. उसके शिक्षकों ने उसे 12वीं के बाद इंजीनियरिंग करने का सुझाव दिया.
जब वह इंजीनियरिंग का फॉर्म भरने गया, तो उसे पता चला कि फॉर्म की फीस 500 रुपये है. उसने इस विचार को त्याग दिया और विश्वविद्यालय में बीएससी में दाखिला ले लिया, क्योंकि उसकी फीस 10 रुपये थी. स्नातक के बाद गोविंद ने सिविल सर्विस की तैयारी के लिए दिल्ली जाने की योजना बनायी. दिल्ली पहुंच कर उसने एक कोचिंग में दाखिला लिया ही था, कि उसे पता चला कि उसके पिता के पैर में गहरा घाव हो गया है और वह अब रिक्शा भी नहीं चला सकते. गोविंद ने सोचा कि अब पढ़ाई छोड़ कर बनारस वापस चला जाये और वहीं कुछ किया जाये, ताकि परिवार को सड़क पर लाने से बचाया जा सके. परंतु पिता ने उसे पढ़ाई जारी रखने का आदेश दिया. पिता की एक छोटी-सी जमीन थी, जिसकी कीमत लगभग 30,000 रुपये थी. पिता ने तुरंत उस जमीन का सौदा किया और रुपये गोविंद को भेज दिये, ताकि उसकी पढ़ाई बीच में न छूटे. गोविंद ने अपनी पढ़ाई पूरी की और सिविल सेवा की परीक्षा में बैठा. जब फाइनल रिजल्ट आया तो, गोविंद और उसके परिवार की किस्मत ही बदल गयी. महज 24 वर्ष की आयु में गोविंद जायसवाल ने अपने प्रथम प्रयास में ही सिविल सेवा में देश में 48वां स्थान प्राप्त कर लिया था. गोविंद की यह कहानी वर्षो तक हमें प्रेरित करती रहेगी.
किसी महान विचारक ने कहा था कि सफलता की इमारत उन ईंटों से बनी हुई बुनियाद पर ही बनायी जा सकती है, जिन ईंटों को दूसरों ने हम पर फेंका होता है. यदि हम नकारात्मक और निराशावादी टिप्पणियों का प्रभाव स्वयं पर न होने दें, तो हमारी पूरी ऊर्जा हमारे उद्देश्य के लिए लगेगी और हमें सफलता को बेहद करीब से देखने का अनुभव होने लगेगा.
आशीष आदर्श
कैरियर काउंसेलर