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भारतीय चित्रकला का व्याकरण : आर्ट-पेंटिंग

भारतीय आधुनिक चित्रकला की अपनी पृथक नींव 20वीं शताब्दी की शुरुआत में ही बंगाल स्कूल की स्थापना से पड़ चुकी थी, जो मुख्यतः अबनींद्रनाथ टैगोर व उनके अन्य साथियों के साथ मिलकर अस्तित्व में आयी थी… आजादी के बाद से क्या हम अब तक अपनी ऐसी अनेकों पीढ़ियों को तैयार नहीं कर चुके हैं, जो […]

भारतीय आधुनिक चित्रकला की अपनी पृथक नींव 20वीं शताब्दी की शुरुआत में ही बंगाल स्कूल की स्थापना से पड़ चुकी थी, जो मुख्यतः अबनींद्रनाथ टैगोर व उनके अन्य साथियों के साथ मिलकर अस्तित्व में आयी थी…

आजादी के बाद से क्या हम अब तक अपनी ऐसी अनेकों पीढ़ियों को तैयार नहीं कर चुके हैं, जो अब भीतर से पूरी तरह से पश्चिमीकृत भारतीय हैं? लेकिन, औपनिवेशिक भारत के अंतिम चरणों में भारतीय कलाओं-परंपराओं के संरक्षण, संवर्धन व प्रचार के संदर्भ में कुछ ऐसे अंग्रेज भी हुए, जिनके योगदान को इन पश्चिमीकृत भारतीयों के बरक्स रखकर देखा जा सकता है.
सन् 1913 में किसी भारतीय के नाम पर पहली बार रबींद्रनाथ टैगोर को नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया था और भारत की छवि बनी थी. वहीं सन् 1923 में औपनिवेशिक भारत के दौर में महान नर्तक उदय शंकर से अन्ना पव्लोवा की मुलाकात ने भविष्य के भारत को दुनिया के सामने अपनी सांस्कृतिक छवि बनाने में बड़ी मदद की. यह घटना तब की है, जब उदय शंकर के पिता पंडित श्याम शंकर चौधरी ने ‘द ग्रेट मुगल चैंबर ऑफ ड्रीम्स’ नाम के एक बैले का अमेरिका में संयोजन किया था. वहां उदय शंकर का नृत्य देखकर अन्ना पव्लोवा कुछ इस प्रकार से चकित थीं कि उन्हें भविष्य के रचनात्मक स्वप्नों की पूर्ति की संभावनाएं सिर्फ उदय शंकर के साथ दिख रही थीं.
बाद में उन्होंने उदय शंकर के साथ ‘राधा-कृष्ण’ और ‘हिंदू-विवाह’ नाम के दो बैले तैयार किये और कनाडा व अमेरिका के कई स्थानों में नौ महीनों तक उनका मंचन भी किया, जिसके परिणाम में उदय शंकर की ख्याति पश्चिम जगत में फैल गयी. बाद में उन्होंने सिमोन बर्बिएर और ऐलिस बोनर के साथ मिलकर भी अपना बैले तैयार किया और दुनियाभर में भारतीय नृत्य का परचम फहराया.
इसी काल खंड में, भारतीय आधुनिक चित्रकला की अपनी पृथक नींव 20वीं शताब्दी की शुरुआत में ही बंगाल स्कूल की स्थापना से पड़ चुकी थी, जो मुख्यतः अबनींद्रनाथ टैगोर व उनके अन्य साथियों के साथ मिलकर अस्तित्व में आयी थी और जिसे उस समय में कलकत्ता चित्रकला महाविद्यालय के प्राचार्य ईबी हावेल का भरपूर समर्थन भी मिला था. इस स्कूल से हमें नंदलाल बोस, चुगताई, हलदर, खास्त्गीर, देबी प्रसाद रायचौधरी जैसे कई महत्वपूर्ण चित्रकार भी मिले, जिनसे भारतीय पारंपरिक कलाओं की स्थगित ऊष्मा वापस अपना स्थान पाती हुई दिखती है.
साल 1933 में एक और महत्वपूर्ण घटना घटी. जब उदय शंकर अमेरिका और यूरोप में अभूतपूर्व ख्याति अर्जित करके कुछ समय के लिए भारत आये, इसी समय उनकी मुलाकात बाबा अलाउद्दीन खान से कलकत्ते में हुई, जहां से बाबा और उदय शंकर की जोड़ी ने भारतीय संगीत के लिए नयी जमीन तैयार की. यहीं से रविशंकर अपने बड़े भाई उदय शंकर की मंडली को छोड़कर बाबा के शिष्य बनते हैं. बाद में रविशंकर जी यहूदी मेनुहिन और जॉर्ज हरीसन के साथ संयुक्त काम करते हुए भारतीय शास्त्रीय वाद्य-संगीत को दुनिया में नयी ऊंचाइयों पर ले जाते हैं. ये उदाहरण तब के हैं, जब धीरे-धीरे भारत उपनिवेशवाद के अंतिम दौर में प्रवेश कर रहा था.
औपनिवेशिक भारत से आजाद भारत के बीच के अंतराल में मुझे साहित्य, नृत्य और संगीत से ये तीनों उदाहरण इस कारण से बेहद महत्वपूर्ण लगते हैं कि हमारी राजनीतिक आजादी के बाद इन विधाओं को नये भारत की सांस्कृतिक छवि के साथ विश्व स्तर पर जोड़ा गया, उसने इन कलाओं को नयी पहचान भी दी और एक नया समाज भी दिया.
बीसवीं शताब्दी में भारतीय पृष्ठभूमि से मूलतः इन्हीं तीन विधाओं ने ही बड़ा भूगोल पाया, परंतु ऐसा विस्तार और अंतरराष्ट्रीय पहचान उस समय की भारतीय चित्रकला को नहीं मिल सकी. दरअसल, सिर्फ चित्रकला ही ऐसी विधा है, जिसमें व्याकरण का स्थान उस तरह से नहीं होता जैसा अन्य शास्त्रीय कलाओं में है. आधुनिक चित्रकला में एक चित्रकार को पहले अपना व्यक्तिगत व्याकरण खोजना होता है, फिर उसके बाद उससे अपनी भाषा बनानी होती है.
इस संदर्भ से हमारी शास्त्रीय कलाएं, जो समय के साथ मंदिरों, राजे-रजवाड़ों और औपनिवेशिक काल की चुनौतियों से गुजर कर भी अपनी व्याकरण वैशिष्ठ्य के कारण अपने नैरंतर्य में ही बनी रहीं. औपनिवेशिक-आधुनिकता का जैसा प्रभाव चित्रकला पर पड़ा, वह अन्य कलाओं पर उस तरह से नहीं था.
क्या हम यह कह सकते हैं कि अतिक्रमण और संक्रमणकाल के उस काल में अन्य कलाएं तो अपनी शुचिता के साथ बची रहीं, लेकिन चित्रकला में व्याकरण का उस रूप में न होने से यह संक्रमण उसके भीतर तक ऐसे व्याप्त हुआ कि परंपरा और आधुनिकता का सूत्र चित्र फलक तक आते-आते पूरी तरह से टूट गया? भूमंडलीकरण के इस दौर में क्या आज का आधुनिक चित्रकार अगर यह सूत्रपात नहीं कर सकता, तो क्या सूत्रधार हो सकता है?
मनीष पुष्कले, पेंटर

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