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अंतिम फैसला सोलह मई से पहले मत दीजिए

आइआइटी की प्रवेश परीक्षा की तरह कठिन हो गया है बिहार का चुनावी इम्तिहान नेता की असली पहचान मुसीबत के वक्त उसके आचरण से होती है. इस चुनाव में नीतीश के भाषणों में संयम और शिष्टाचार देख कर हैरानी होती है. वे जनता को आकर्षित करने के लिए अपनी बातों में नाटकीय उतार-चढ़ाव नहीं लाते. […]

आइआइटी की प्रवेश परीक्षा की तरह कठिन हो गया है बिहार का चुनावी इम्तिहान

नेता की असली पहचान मुसीबत के वक्त उसके आचरण से होती है. इस चुनाव में नीतीश के भाषणों में संयम और शिष्टाचार देख कर हैरानी होती है. वे जनता को आकर्षित करने के लिए अपनी बातों में नाटकीय उतार-चढ़ाव नहीं लाते. भावुकता पैदा नहीं करते. महाराजगंज की एक सभा में भारी भीड़ के बीच कहते हैं कि डेढ़ सौ सभाएं करने के बाद भी मेरी जुबान नहीं फिसली. शायद इसलिए भी नीतीश के भाषणों की कम चर्चा हुई. विवादों की भूखी मीडिया को मसाला नहीं मिला. इस चुनाव में टीवी की बहसों का भी इम्तिहान है.

जनमत बनाने में टीवी की भूमिका से इनकार नहीं कर सकते. बड़ा सवाल यह भी है कि नीतीश अपने सुशासन को क्यों नहीं बेच पा रहे हैं. कहां हैं वो होर्डिग जिसमें बिहार के विकास के दावे हों. इस चुनाव में नीतीश कुमार कमजोर हुए तो जात-पात की राजनीति विकास का मुखौटा पहनकर लौटेगी. बिहार में जातियों के समीकरण का पुनर्गठन भी होगा. पढ़िए बिहार में चुनाव के परिदृश्य पर वरिष्ठ टीवी पत्रकार रवीश कुमार का विश्‍लेषण

विकास पुरुष बनाम सुशासन बाबू. बिहार की राजनीति में सुशासन बाबू का तमगा हासिल करना कोई साधारण बात नहीं थी. सुशासन बाबू नीतीश कुमार का व्यक्तिगत राजनीतिक उपनाम ही नहीं था, बल्कि बिहार की जनता की आकांक्षाएं भी इसमें शामिल हैं. मोदी देश के स्तर विकास पुरुष की पहचान लेकर निकले तो नीतीश को लगा कि सुशासन बाबू की उनकी पहचान ढाल की तरह खड़ी हो जायेगी. लेकिन बिहार की राजनीति में विकास पुरुष और सुशासन बाबू के बीच लालू प्रसाद सेकुलर साहब उठ कर खड़े हो गये हैं.

अलग-अलग जातियों ने खुद को इन तीनों पहचान के पीछे कर लिया है. कंबीनेशन या समीकरण की जटिलता से गुजरते हुए जो इस गणित को हल कर पायेगा वही लोकसभा में सबसे अधिक सीटें लायेगा. इसीलिए बिहार का चुनावी इम्तिहान आइआइटी की प्रवेश परीक्षा की तरह कठिन हो गया है.इस इम्तिहान में नीतीश कुमार फिर से अकेले हैं. मीडिया और चौराहे के चर्चाकार

इस लोक सभा चुनाव में नीतीश कुमार को तीसरे नंबर पर देख रहे हैं. ये चर्चाकार सूप लेकर जातियों को कंकड़ पत्थर की तरह फटक कर अलग कर रहे हैं.

सवर्ण भाजपा की तरफ हैं. यादव और मुसलमान लालू के साथ है और अति पिछड़ा और महादलित नीतीश के साथ है. मगर इसका कई हिस्सा भाजपा के साथ. इस चुनाव में जातियों का नया पुराना समीकरण तो बन रहा है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि गेहूं में धान मिल गया है. चर्चाकार भंसार की तरह रेत में चावल चना और मकई भुन रहे हैं. ग्रामीण से लेकर शहरी इलाके में भाजपा के पक्ष में सवर्ण मुखर और उग्र नजर आते हैं. ग्रामीण इलाकों में जब मैंने पूछा कि आप नीतीश से क्यों नाराज हैं.

आप लोग तो लालू को हराने के लिए नीतीश को अपना नेता माना था. उनके कई जवाबों में प्रमुख रूप से यह बात झलकती है कि नीतीश कुमार ने सिर्फ अति पिछड़ा और महादलित की राजनीति की है. उन्हीं को हक और सुविधाएं दी हैं. यह बात वे चौक चौराहे पर कहते फिरते हैं. जबकि पिछले चुनाव में यही स्वर्ण इस बात को लेकर नाराज नहीं था. इस बार ऐसा क्या हो गया कि नीतीश का यह मास्टर स्ट्रोक उनके खिलाफ काम करता हुआ बताया जा रहा है.

अगर ऐसा है तो अति पिछड़ा और महादलित उन सवर्णो के साथ इतनी आसानी से जा सकता है. क्या नीतीश का यह वोट बैंक उस तबके के साथ स्वाभाविक रूप से उठ बैठ सकता है, जो इन्हें मिल रहे अधिकारों से ईष्र्या करता है. अतिपिछड़ा भी यही कहते हैं कि नीतीश ने उन्हें राजनीतिक पहचान दी है. इस तबके ने पहली बार राजनीतिक पहचान का स्वाद चखा है. स्वर्ण और अतिपिछड़ों के बीच का टकराव नया नया है. जिसे आप बिहार की बोली में टटका यानी ताजा कहते हैं. क्या ये तबका नीतीश को छोड़ देगा. छोड़ दिया तो बिहार में बीजेपी की बड़ी जीत को कोई नहीं रोक सकता.

शरद यादव नीतीश पर जातिवादी राजनीति का आरोप लगा रहे हैं. अगर नीतीश महादलित या अतिपिछड़ा की राजनीति नहीं करते तो क्या यह कोई गारंटी से कह सकता है कि सवर्ण बीजेपी को छोड़ नीतीश के साथ रहते. क्या भाजपा ने पासवान को मिलाकर अपने पक्ष में जातिवादी समीकरण नहीं बनाया. बिहार में नीतीश नहीं अकेले पड़ रहे हैं बल्किअलग-अलग दलों में बिखर कर पिछड़ी जातियों का राजनीतिक वर्चस्व कमजोर पड़ रहा है. इन जातियों के कई युवाओं के लिए राजनीतिक आकांक्षा का मतलब विकास तो हो गया है मगर अभी भी इस समूह के एक बड़े हिस्से के लिए राजनीतिक पहचान ही आकांक्षा है. क्यों सवर्णों को नीतीश अहंकारी लगते हैं. नीतीश को अहंकारी कहने वाले दस लोगों से जाति पूछिए, तो जवाब मिल जायेगा कि ये नीतीश का अहंकार है या सवर्णो का.

दरअसल यह चुनाव हवा से कहीं ज्यादा संगठन शक्ति का है. भाजपा इस मामले में कहीं आगे हैं. संघ को शामिल कर लें तो उसकी व्यवस्था के मुकाबले जदयू और राजद एक पार्टी सिस्टम की तरह काम नहीं करते. नीतीश को इसी बात की कमी खल रही होगी. सिर्फ अपने काम पर विश्वास ही काफी नहीं होता बल्कि उस काम को नारों में बदलने के लिए संगठन भी चाहिए. किसी भी घटना पर बोलने के लिए बीजेपी के पास अच्छे प्रवक्ताओं की फौज है. सत्ता में होते हुए भी जदयू के पास इसकी घोर कमी है. अगर यह कमी न होती तो नीतीश इतने कमजोर नहीं लगते.

फिर भी नेता की असली पहचान मुसीबत के वक्त उसके आचरण से होती है. इस चुनाव में नीतीश के भाषणों में संयम और शिष्टाचार देख कर हैरानी होती है वे जनता को आकर्षित करने के लिए अपनी बातों में नाटकीय उतार-चढ़ाव नहीं लाते, भावुकता पैदा नहीं करते. महाराजगंज की एक सभा में भारी भीड़ के बीच कहते हैं कि डेढ़ सौ सभाएं करने के बाद भी मेरी जुबान नहीं फिसली शायद इसलिए भी नीतीश के भाषणों की कम चर्चा हुई. विवादों की भूखी मीडिया को मसाला नहीं मिला. इस चुनाव में टीवी की बहसों का भी इम्तिहान है.

जनमत बनाने में टीवी की भूमिका से इनकार नहीं कर सकते. बड़ा सवाल यह भी है कि नीतीश अपने सुशासन को क्यों नहीं बेच पा रहे हैं. कहां हैं वो होर्डिंग, जिसमें बिहार के विकास के दावे हो.

इस चुनाव में नीतीश कुमार कमजोर हुए तो जात-पात की राजनीति विकास का मुखौटा पहनकर लौटेगी. बिहार में जातियों के समीकरण का पुनर्गठन भी होगा. जब भाजपा जदयू के साथ रहते सवर्ण और पिछड़ी जातियों का गंठबंधन टिकाऊ साबित नहीं हुआ तो ये विषमता भाजपा में जाकर कैसे विलीन हो जायेगी. अगर भाजपा ऐसा कर पाती है तो यह उसकी संगठन शक्ति की बड़ी कामयाबी होगी. बिहार की राजनीति इस बार सिर्फ हार जीत तय नहीं करेगी बल्कि यह भी बतायेंगी कि कौन-सी जाति अब किसके साथ नहीं है. नीतीश कुमार के साथ कौन नहीं है इस पर अंतिम फैसला सोलह मई से पहले मत दीजिए.

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