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विकास के बजाय नौकरी सृजन की बात हो

देश में चल रहे आम चुनाव के बीच पार्टियां अपने चुनावी वादों में युवाओं को नौकरियां देने की बात तो करती हैं, लेकिन उन्हें खुद भी इस बात का अंदाजा नहीं है कि आखिर करोड़ों युवाओं के लिए इतनी नौकरियां कहां से आयेंगी. एक तरफ पूरा देश आर्थिक वृद्धि दर में गिरावट से जूझ रहा […]

देश में चल रहे आम चुनाव के बीच पार्टियां अपने चुनावी वादों में युवाओं को नौकरियां देने की बात तो करती हैं, लेकिन उन्हें खुद भी इस बात का अंदाजा नहीं है कि आखिर करोड़ों युवाओं के लिए इतनी नौकरियां कहां से आयेंगी. एक तरफ पूरा देश आर्थिक वृद्धि दर में गिरावट से जूझ रहा है, तो दूसरी तरफ खेती-किसानी का बुरा हाल है, जिससे लाखों लोग किसानी छोड़ रहे हैं. इन समस्याओं के मद्देनजर जाने-माने कृषि वैज्ञानिक देविंदर शर्मा से विस्तार से बात की वसीम अकरम ने. पेश है उस बातचीत के प्रमुख अंश.

इस आम चुनाव में युवा मतदाताओं (18-23 साल) को लेकर जो आंकड़े आये हैं, उनकी संख्या तकरीबन 15 करोड़ है. अब अहम सवाल यह है कि आगामी 5-7 वर्षो में इनके लिए नौकरियां कहां से आयेंगी? अगर बीते दस साल का अनुभव देखें, तो देश में जॉबलेस ग्रोथ हुई है. पिछले दिनों चंडीगढ़ में 16 पदों के लिए 21 हजार लोगों ने आवेदन किया था. देश में नौकरियों को लेकर भयंकर संकट है. बड़ी बात यह है कि जो पार्टियां नौकरियां देने की बात कर रही हैं, उन्हें खुद भी अंदाजा नहीं है कि वे नौकरियां लायेंगी कहां से!

यूपीए-1 की सरकार में योजना आयोग ने एक आंकड़ा पेश किया कि 2005-09 के बीच देश में 14 करोड़ लोगों ने खेती छोड़ी. यह उस वक्त हुआ, जब आर्थिक वृद्धि दर 8-9 प्रतिशत पर थी. अभी यह 5 के आसपास है. क्रिसिल की रिपोर्ट कहती है कि 2007-12 के बीच 3.7 करोड़ लोग खेती से बाहर हो गये. 2010-12 में जीडीपी नीचे आ गयी, तो लगभग डेढ़ करोड़ लोग वापस चले गये. यह जॉबलेस ग्रोथ देश के सामने है, फिर भी आर्थिक नीतियों को बदलने की कोई बात नहीं हो रही.

1996 में विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में यह कहा गया था कि 2015 तक भारत में 40 करोड़ लोगों को गांव से शहरों की ओर पलायन करना चाहिए. फिर 2008 में विश्व बैंक ने भारत से कहा कि हमने जो कहा था, आपने तो किया नहीं. दूसरी बात, 2008 के वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट में यह कहा गया कि भारत की युवा पीढ़ी के लिए इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग इंस्टीटय़ूट्स बनाये जायें. 2009 में वित्त मंत्री पी चिंदबरम ने एक हजार आइटीआइ की घोषणा कर दी. फिर स्किल डेवलपमेंट प्रोग्राम की बात आयी. मौजूदा वक्त में भारत में ऐसे कई प्रोग्राम चल रहे हैं. कहा जा रहा है कि देश में विकास के लिए 2020 तक करोड़ों लोगों का स्किल डेवलपमेंट प्रोग्राम के तहत ट्रेनिंग करायेंगे. इसमें मुख्यत: क्या काम सिखायेंगे- तो ऑटो ड्राइवर कैसे बनना है, रिटेल में कैसे काम करने हैं वगैरह. कुल मिला कर हम दिहाड़ी मजदूर तैयार कर रहे हैं. वास्तव में जॉब ग्रोथ को लेकर हमारी अप्रोच ही गलत है. ऐसे में यह मुमकिन नहीं है कि अगले आनेवाले कुछ वर्षो में हम करोड़ों नौकरियों का सृजन कर पायेंगे.

हमारे देश में सबसे बड़ा रोजगारदाता है खेती. अगर लोग खेती छोड़ेंगे, तो जाहिर है कि जीडीपी दर में कमी आयेगी. इसलिए दिहाड़ी मजदूर की ट्रेनिंग देने के बजाय क्यों न युवाओं और किसानों को उन्नत खेती की ट्रेनिंग दी जाये. जो पार्टियां नौकरियां देने की बात कर रही हैं, यकीन जानिए, नौकरियों के सृजन में इनकी कोई भूमिका नहीं होगी. यह भूमिका तो अर्थशास्त्री ही निभा सकते हैं, वैसे अर्थशास्त्री जो कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था को समझते हैं. देश की राजनीति विश्व बैंक का कहना मानती है. जिस दिन राजनीति यह जान जायेगी कि विश्व बैंक के बजाय देश की सोच के आधार पर चलना है, उस दिन कृषि आधारित नीतियों में बदलाव आयेगा. हमारी मौजूदा आर्थिक सोच इस बात पर है कि गांव खाली कर दिये जायें और शहर भर दिये जायें. मान लीजिए हमें एक उद्योग लगाना है, तो मैं तो यही चाहूंगा न कि कम से कम लोग में ही काम चल जाये. मुकेश अंबानी इस देश का सबसे अमीर घराना है, लेकिन उसके पूरे समूह में सिर्फ 60 हजार लोग काम करते हैं. इनसे देश में क्या विकास होगा? जबकि वहीं भारतीय रेलवे में 14 लाख से ज्यादा लोग काम करते हैं, इस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा. मतलब यह कि प्राइवेट सेक्टर रोजगार देने में उतना सक्षम नहीं है, जितना कि पब्लिक सेक्टर. आज लगभग सभी सरकारी संस्थाओं में लाखों पद खाली पड़े हैं. हम उन पदों को भरने के बजाय सिर्फ औद्योगिक विकास की बात करते हैं.

नरेंद्र मोदी ने कहा है कि हम शहरों का निर्माण करेंगे, जो औद्योगीकरण ही है. मैं इससे असहमत नहीं हूं, पर शहरों में दिहाड़ी मजदूरों की जरूरत पड़ेगी, जो गांवों से आयेंगे. वहीं आम आदमी पार्टी ने कहा है कि वह ग्रामसभा को मजबूत बनायेगी, प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण करेगी. यह बहुत अच्छी बात है. तुलना कीजिए- मोदी शहर बसाने की बात कर रहे हैं, लेकिन केजरीवाल गांवों को स्वावलंबन देने की बात कर रहे हैं, ताकि गांवों के लोगों को रोजगार के लिए कहीं और न जाना पड़े. जहां 60 प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर हों, वहां केजरीवाल का यह मॉडल कारगर साबित होगा.

जहां तक रोजगार के लिए अंतरराष्ट्रीय आर्थिक परिदृश्य का सवाल है, तो याद कीजिए, ओबामा ने कहा था कि जब मैं भारत जाऊंगा, तो 21 हजार नौकरियां लेकर आऊंगा. दूसरे देशों के राष्ट्राध्यक्ष आते हैं, तो अपने देश को यह बता कर आते हैं कि वे इतनी नौकरियां लायेंगे. लेकिन हमारे देश का प्रधानमंत्री कहीं जाने से पहले ऐसा कोई बयान जारी नहीं करते. क्योंकि हमारी मानसिकता में यह है ही नहीं. हमने अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक अनुबंध कर अपने लघु उद्योगों को मार दिया. इसका नुकसान यह हुआ है कि भारत हर छोटी चीज के लिए आयात पर निर्भर है. जब तक हम विदेशों से नौकरियां लाने के बारे में नहीं सोचेंगे, अपने लघु उद्योगों को ताकत नहीं देंगे, तब तक हम नौकरियों का सृजन नहीं कर सकेंगे.

देश में नौकरियों के सृजन के लिए सबसे पहला क्षेत्र है कृषि. इसमें उन युवाओं को जोड़ने की जरूरत है, जो शहर जाकर रिक्शा चलाते हैं या दिहाड़ी पर काम करते हैं. गांवों में उद्योग के लिए जरूरी है कि खेती को इससे जोड़ा जाये. गांवो में ऐसा उद्योग लगे जो खेती को ‘सपोर्ट’ करे, न कि वैसा उद्योग जो खेती को ‘रिप्लेस’ करे. यह नीति गांवों से पलायन कम होगा. इससे शहरों पर बोझ कम होगा, तो वहां की छिपी हुई बेरोजगारी भी कम होगी. स्किल डेवलपमेंट के जरिये 50 करोड़ लोगों को ट्रेंड करने का जो लक्ष्य है, इसमें कम से कम 25 करोड़ ग्रामीण लोगों को गांवों से जुड़े लघु-मझोले उद्योगों की ट्रेनिंग मिले, तो इससे रोजगार पैदा होंगे.

दरअसल, हमारा आर्थिक विकास का जो मॉडल है, वह यह कि आर्थिक वृद्धि की दर बढ़ेगी, तो रोजगार भी बढ़ेंगे. हमें इस गलत नीति के भ्रम से निकलना चाहिए. मेरा मानना है कि अगर हम नौकरियों का सृजन करते हैं, तो हमारी आर्थिक वृद्धि की दर खुद-ब-खुद बढ़ जायेगी. किसी सरकारी संस्था से अगर दो आदमी रिटायर होता है, तो हम उसकी रिक्ति ही नहीं भर पाते. तमाम विश्वविद्यालय प्रोफेसरों की कमी से जूझ रहे हैं. अगर सारे सरकारी विभागों की रिक्तियों को भरने का प्रयास किया जाये, तो लाखों नौकरियों का सृजन खुद हो जायेगा. दरअसल, हमारी आर्थिक नीति है प्राइवेट सेक्टर में पैसा लगाना. लेकिन प्राइवेट सेक्टर में पैसा चाहे जितना लगा लो, इनसे नौकरियां नहीं बढ़नेवाली. इसलिए सभी पार्टियों को चाहिए कि वे औद्योगिक विकास के बजाय सिर्फ नौकरी, नौकरी और नौकरी के सृजन की बात करें. यदि पार्टियां यह सुनिश्चित कर लें कि वे कितनी नौकरियों का सृजन करेंगी, तो आर्थिक विकास तेजी से होगा और गरीबी भी दूर हो जायेगी. लेकिन हां, इन पार्टियों को ईमानदारी से यह काम करना होगा, तभी संभव है कि आगामी 5-7 वर्षो में कम से कम 5-7 करोड़ नौकरियों का सृजन हो सकेगा.

देविंदर शर्मा

कृषि वैज्ञानिक

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