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स्वतंत्रता संग्राम के अमर प्रहरी थे वीर कुंवर सिंह

।। प्रो सुरेश प्र सिंह।। वीर कुंवर सिंह राष्ट्रीय गौरव और पराधीनता को कभी स्वीकार न करने वाली, अपराजेय भारतीय आत्मा के प्रतीक हैं. प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूत एवं जगदीशपुर के शेर बाबू कुंवर सिंह जी का जन्म 1777 ई. में भोजपुर के जगदीशपुर में हुआ था. माता का नाम पंचर-कुंवरी व पिता का […]

।। प्रो सुरेश प्र सिंह।।

वीर कुंवर सिंह राष्ट्रीय गौरव और पराधीनता को कभी स्वीकार न करने वाली, अपराजेय भारतीय आत्मा के प्रतीक हैं. प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूत एवं जगदीशपुर के शेर बाबू कुंवर सिंह जी का जन्म 1777 ई. में भोजपुर के जगदीशपुर में हुआ था. माता का नाम पंचर-कुंवरी व पिता का नाम शाहबजादा सिंह था, जो परमार वंश के राजपूत थे और राजा भोज के 22वें वंशज थे. बाबू कुंवर जी महान योद्धा के साथ पराक्रमी वीर लौह पुरुष थे.

19.12.1856 को एक अंग्रेज अफसर टेलर ने लिखा था: ‘ बाबू कुंवर सिंह स्थानीय एवं मूल निवासियों के साथ-साथ अंग्रेजों में भी लोकप्रिय थे. वे जगदीशपुर के समृद्ध जमींदार थे. उच्च वंश में पैदा हुए थे. वह जनता के प्रिय पात्र थे.’ इतिहास के पन्नों में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता कि 80 वर्ष के एक वृद्ध योद्धा ने तलवार उठाया हो और दुश्मनों को परास्त किया हो.

वीर कुंवर सिंह जी ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में आकस्मिक रूप से भाग नहीं लिया था, बल्कि एक दशक पूर्व ही सोनपुर मेले में समान विचार वाले वीर सपूतों से मंत्रणा कर मुक्ति संग्राम की योजना बना चुके थे. वे गिरफ्तार हो सकते थे, परंतु उनकी लोकप्रियता के कारण सरकार ने इसकी अनुमति नहीं दी थी. 1857 में चिर प्रतीक्षित विद्रोहागिA फूट पड़ी. बिहार के रोहणी (देवघर) में सर्वप्रथम 12 जून 1857 को तीन विद्रोही सैनिकों को फांसी दी गयी. चार जुलाई को पीर अली खां सहित 16 बागियों को फांसी दी गयी. 25 जुलाई को दानापुर छावनी में विद्रोही सैनिकों ने मुक्ति वाहिनी की रचना की और जगदीशपुर पहुंचकर वीर कुंवर सिंह के नेतृत्व में कार्य करने लगे.

फिरंगी सेनापति डनबर से मुक्ति वाहिनी की मुठभेड़ गांगी नाला के पास हुई. डनबर परास्त हुआ और कुंवर सिंह जी शासक घोषित हुए. परंतु कुछ दिनों बाद सेनापति आयर की विशाल सेना ने उन्हें जगदीशपुर छोड़ने पर मजबूर किया. वे अपनी सेना के साथ उत्तर प्रदेश की ओर कूच कर गये. रामगढ़, रीवा और बांदा इत्यादि स्थानों पर मुक्ति वाहिनी का झंडा फहराते हुए वे कालपी होते हुए आजमगढ़ पहुंचे. 22 मार्च 1858 को कुंवर सिंह ने अतरौलिया में अंग्रेजी फौज को पराजित किया. तत्पश्चात बनारस के पास उन्होंने लॉर्ड मार्क को पराजित किया. 17 अप्रैल 1858 को गाजीपुर के पास डगलस और वीर कुंवर सिंह की सेना का मुकाबला हुआ. पराजित डगलस को पीछे हटना पड़ा. विजय पताका फहराते हुए उनकी मुक्ति वाहिनी शिवपुर घार के पास गंगा नदी पार कर 22 अप्रैल को पुन: जगदीशपुर पहुंची. इसी दिन कप्तान लीग्रैंड व उनकी मुक्ति वाहिनी सेनाओं के बीच संग्राम हुआ. लीग्रैंड पराजित हुआ और मारा गया. वीर कुंवर सिंह ने 23 अप्रैल 1858 को स्वतंत्रता की घोषणा की और हरे झंडे को जगदीशपुर किला पर फहराया.

इतिहासकारों ने स्वीकार किया है कि कुंवर सिंह के सलाहकारों में हिंदुओं से अधिक मुसलमान थे एवं प्रमुख सेनानायकों में यादव, भूमिहार एवं अन्य जाती के लोग थे. संत बैसुरिया बाबा से उन्होंने दशभक्ति की प्रेरणा ली थी. उन्होंने अपनी जमीन पर आरा जिला स्कूल का निर्माण किया. कोई भी निर्धन उनके दरबार से खाली हाथ नहीं लौटता था. लोकगीतों में उनकी गाथा तेगवा बहादुर के रूप में रची गयी है. आज भी होली के शुभ अवसर पर लोग गाते हैं- ‘ बाबू कुंवर सिंह तेगवा बहादुर, बंगला में उड़े ला अबीर.’ अंग्रेजों से युद्ध करते समय उनके दाहिने हाथ में गोली लगी थी, उस हाथ को काटकर उन्होंने गंगा की लहरों में सौंप दिया था. गंगा के पानी में आज भी उनके लहू का रंग देखा जा सकता है.

हम 23 अप्रैल 1858 के विजय दिवस का स्मरण करते हैं, जिस दिन बाबू साहब ने अंग्रेजी हुकूमत के फ्लैग को उतारकर अपना झंडा अपनी राजधानी में फहराया था और उस दिन पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा की थी. 26 अप्रैल 1858 को अमर सेनानी ने अमरत्त्व प्राप्त किया. इस संबंध में ब्रिटिश इतिहासकार सर होम्स ने लिखा है: फिरंगी बहुत सौभाग्यशाली थे कि क्रांति के समय कुंवर सिंह की उम्र 40 वर्ष नहीं थी. वह वृद्ध राजपूत अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ आन से लड़ा और शान से मरा. उन्होंने अंग्रेजी सत्ता के कई सेनापतियों को युद्ध में पराजित किया या पीछे हटने के लिए मजबूर किया. उन्होंने कप्तान डनबर और कप्तान ली ग्रांड को जान से मार डाला. कर्नल मिलमैन और कर्नल डेम्स को पराजित किया. कर्नल लॉर्ड मार्क कर, ब्रिगेडियर लुगार्ड, ब्रिग्रेडियर डगलस और कर्नल कैम्ब्रीज को परास्त कर पीछे हटने पर मजबूर किया तथा कमिश्नर टेलर एवं मेजर जनरल लायड के वर्खास्तगी का कारण बने.

(लेखक पूर्व कुलपति, वीर कुंवर सिंह विवि, आरा (बिहार) व सीआइटी,रांची के प्रोफेसर हैं.)

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