।।अवधेश आकोदिया।।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जापान यात्रा भले ही दोनों देशों के बीच हर साल होनेवाली शिखर बैठक की एक कड़ी मात्र हो, लेकिन इसे यहीं तक सीमित नहीं रखा जा सकता. जापान में नयी सरकार की कमान एक बार फिर शिंजो एबे के हाथों में आने बाद यह भारतीय प्रधानमंत्री की पहली यात्रा है. हालांकि यह आशंका जताने की कोई वजह नहीं है कि वे अपने पूर्ववर्तियों की भांति भारत के साथ दोस्ताना संबंध जारी नहीं रखेंगे, लेकिन कई बार व्यक्तिगत वजहों से बात बनती-बिगड़ती है. इस लिहाज से शिंजो एबे का व्यवहार भारत के लिए सुखद है. उन्होंने न केवल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का जोरदार ढंग से स्वागत-सत्कार किया, बल्कि द्विपक्षीय रिश्तों को बेहतर बनाने में भी गर्मजोशी दिखायी है.
जापान के नये प्रधानमंत्री भारत के साथ संबंधों के प्रति कितने संजीदा है, यह तब ही साफ हो गया था जब उन्होंने सत्ता संभालते ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को प्रथम राजकीय अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया था, लेकिन वे जा नहीं पाये. तोक्यो पहुंचते ही प्रधानमंत्री इस आमंत्रण का धन्यवाद देना नहीं भूले. जापान-भारत संघ, जापान-भारत संसदीय मैत्री संघ और अंतरराष्ट्रीय मैत्री आदान-प्रदान परिषद की बैठक में उन्होंने कहा कि ‘इस वर्ष तोक्यो में मुङो पहले मेहमान के रूप में आमंत्रित करके प्रधानमंत्री शिंजो एबे ने मुङो बहुत सम्मानित किया. दुर्भाग्य से अपनी व्यस्तताओं की वजह से मैं उस समय जापान की यात्र नहीं कर पाया था. चेरी ब्लॉसम के फूल खिलने के मौसम के दौरान मैंने जापान आने का अवसर खो दिया था, लेकिन वसंत ऋतु में यहां आकर मुङो बहुत खुशी हो रही है. मुङो विश्वास है कि दोनों देशों के नागरिकों के बीच मित्रता, व्यापार में साङोदारी और रक्षा व सामरिक प्रतिबद्धताओं के बीच हमारे योगदान के फूल प्रधानमंत्री शिंजो एबे के नेतृत्व में खूब फले-फूलेंगे.’
रक्षा सहयोग का नया फंडा
प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह की मौजूदा यात्रा का मकसद आर्थिक तो है ही, इसका सामरिक महत्व भी है. दोनों देशों के बीच रक्षा सौदों की नयी इबारत लिखी जा रही है. जापान के साथ हमारे संबंध हमारी ‘लुक ईस्ट’ नीति पर आधारित हैं. प्रारंभ में इसकी बुनियाद आर्थिक दृष्टिकोण थी, लेकिन अब इसमें सामरिक मुद्दे भी जुड़ गये हैं. आसियान जैसे समूहों के साथ हमारे राजनीतिक संबंध गहन हुए हैं. हमने व्यापार और आर्थिक समझौतों का एक तंत्र विकसित किया है. सहयोग और सुरक्षा संबंधी पूर्व-एशिया शिखर वार्ता तथा आसियान क्षेत्रीय मंच जैसे क्षेत्र के अग्रणी समूहों के साथ हम संपर्कता और सक्रियता पर विशेष ध्यान दे रहे हैं. यह सब भारत के लिए एक प्रकार का बोनस है, क्योंकि आर्थिक मोरचे पर तो सहयोग दिनोंदिन बढ़ ही रहा है.
आर्थिक सहयोग महत्वपूर्ण
भारत के आर्थिक विकास में जापान की भूमिका महत्वपूर्ण है. मारुति-सुजूकी जापानी सहयोग का नमूना है. जापान के सहयोग से तैयार दिल्ली मेट्रो जन-यातायात में क्रांति ला रहा है. वेस्टर्न कॉरिडोर और दिल्ली मुंबई औद्योगिक कॉरिडोर से भी ऐसी ही उम्मीद है.
शिखर बैठकों को सिलसिला
दोनों देशों के बीच सालाना शिखर बैठकों का सिलसिला 2006 डॉ मनमोहन सिंह की जापान यात्रा से शुरू हुआ था. तभी से दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के आवागमन की परंपरा चली आ रही है. डॉ सिंह 2008 व 2010 में जापान गये, जबकि 2007, 2009 व 2011 में जापानी प्रधानमंत्री भारत आये. वार्षिक शिखर बैठकों का भारत और जापान के द्विपक्षीय संबंधों पर असर साफतौर पर देखा जा सकता है. इसके जरिये दोनों देशों को अलग-अलग क्षेत्रों पर योजनाबद्ध ढंग से फोकस करने की सहूलियत मिली है.
इसी के तहत 2006 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की यात्रा का मकसद दोनों देशों के बीच रणनीतिक और वैश्विक भागीदारी बढ़ाना था, जबकि 2007 में जापानी प्रधानमंत्री की भारत यात्रा का उद्देश्य पर्यावरण एवं ऊर्जा सुरक्षा सहयोग विस्तार था. 2008 में जब डॉ सिंह तोक्यो गये तो सुरक्षा सहयोग पर चर्चा हुई और 2009 में चीनी प्रधानमंत्री के भारत दौरे पर दोनों देशों के बीच रणनीतिक साङोदारी पर बात हुई. 2010 में मनमोहन सिंह ने तोक्यो जाकर अगले दशक में आपसी सहयोग का एजेंडा रखा, वहीं 2011 में जापानी प्रधानमंत्री ने दोनों देशों की वैश्विक साङोदारी पर सवाल-जवाब किये. भारतीय प्रधानमंत्री को 2012 में भी तोक्यो जाना था, लेकिन जापान में चुनाव की वजह से कार्यक्रम नहीं बना. इस साल उनकी यात्रा का मकसद जापान के साथ राजनीतिक सुरक्षा और ऊर्जा के क्षेत्र में संबंधों को मजबूत बनाना है.
द्विपक्षीय व्यापार का बढ़ता आंकड़ा
भारत और जापान ने अपने द्विपक्षीय व्यापार को 2014 तक 25 अरब डॉलर के स्तर तक ले जाने का लक्ष्य रखा है. वित्त वर्ष 2011-12 में यह 18.43 अरब डॉलर, जबकि इससे पहले 2010-11 में 13.72 अरब डॉलर था.
भारत में जापानी उद्यमों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है. वर्तमान में इनकी संख्या 926 हो गयी है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जापान को आश्वस्त किया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था मजबूत है और जल्द ही उच्च विकास दर हासिल कर लेगी.
एशिया-प्रशांत क्षेत्र में भूमिका
जापान भारत का महत्वपूर्ण आर्थिक सहयोगी होने के अलावा क्षेत्रीय साझीदार भी है. दोनों देशों के हितों में समानता एशिया-प्रशांत क्षेत्र की राजनीति में नये समीकरण पैदा करती है. यह क्षेत्र इस समय सामाजिक और आर्थिक बदलावों के दौर से गुजर रहा है. ये बदलाव बहुत तेजी से हो रहे हैं. इसके साथ ही इस क्षेत्र के सामने कई चुनौतियां मौजूद हैं और तमाम अनसुलङो मुद्दे तथा कई अनसुलङो सवाल विद्यमान हैं. एक-दूसरे पर निर्भरता और समृद्धि के वर्षो से चले आ रहे मतभेद अब भी कायम हैं. यहां स्थिरता और सुरक्षा के लिए भी कम खतरे मौजूद नहीं हैं. भारत और जापान इस क्षेत्र में प्रमुख भूमिका निभानेवाले देश हैं. अपनी धाक बढ़ाने के लिए दोनों देशों को कई मोरचों पर एक साथ काम करना होगा.
क्षेत्रीय मंचों पर समन्वय इस दिशा में पहला कदम है. इससे न केवल एक-दूसरे के साथ सलाह और सहयोग करने की आदतें विकसित होंगी, बल्कि मतभेदों को स्वीकृत सिद्धांतों के आधार पर हल करने और साझा चुनौतियों का सामना करने में भी मदद मिलेगी. आर्थिक रूप से एकजुट होना भी समय की मांग है. इससे आर्थिक विकास को संतुलित आधार तो मिलेगा ही, क्षेत्रीय संरचना को संतुलित करने में भी मदद मिलेगी. दोनों देशों के लिए समुद्र का बेहतर और अर्थपूर्ण उपयोग भी जरूरी है. हिंद महासागर और प्रशांत महासागर के बीच मुक्त नौवहन पर भी चर्चा होनी चाहिए.
दशकों पुराना है रिश्ता
भारत और जापान के रिश्ते दशकों पुराने हैं. भारतीयों का व्यवसाय व वाणिज्यिक हितों के लिए जापान में आगमन 1870 में ही योकोहामा और कोबे बंदरगाहों से हो गया था. प्रथम विश्व युद्ध के दौरान और समाप्ति के बाद भी बड़ी संख्या में भारतीय जापान गये. इन लोगों ने वहां कपड़ा, किराना व इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं का व्यापार प्रारंभ किया. 1929 में व्यापार से जुड़े भारतीय समुदाय ने योकोहामा भारतीय व्यापार संघ की स्थापना की. वर्तमान में जापान के लगभग सभी बड़े शहरों में भारतीय मिल जाएंगे. तोक्यो के निशीकासाय क्षेत्र में तो इतने भारतीय हैं कि इसे ‘मिनी इंडिया’ कहा जाता है.
भारत का प्रमुख सहयोगी
जापान से सरकारी विकास सहायता (ओडीए) प्राप्त करनेवाले देशों में भारत शीर्ष पर है. 2011-12 में ओडीए का भुगतान 139.22 बिलियन येन (लगभग 8,497 करोड़ रुपये) के रिकॉर्ड स्तर तक पहुंच गया. वर्तमान में जापानी ऋण सहायता से हमारे यहां 59 परियोजनाएं चल रही हैं. इनके लिए जापान ने 1214.811 बिलयन येन का ऋण भारत को दे रखा है. दिसंबर, 2006 में हुए विशेष आर्थिक सहभागिता प्रयास (एसइपीआइ) समझौता होने के बाद जापान की ओर से मिलनेवाली सहायता में और बढ़ोतरी हुई है.
मनमोहन की यात्रा के तीन मंत्र
1. क्षेत्रीय मंचों को मजबूत करने पर जोर. इससे एक-दूसरे के साथ सलाह और सहयोग करने की आदतें विकसित होंगी, एक-दूसरे के मतभेदों को स्वीकृत सिद्धांतों के आधार पर हल करने, क्षेत्र में एकजुटता लाने और साझा चुनौतियों का सामना करने में मदद मिलेगी.
2. क्षेत्रीय आर्थिक एकता मजबूत करने और क्षेत्रीय संपर्क को बढ़ाने पर जोर. ऐसा करने से न सिर्फ पूरे क्षेत्र में आर्थिक विकास को संतुलित आधार मिलेगा, बल्कि क्षेत्रीय सरंचना और अधिक संतुलित होगी. इसका दोनों देशों की अर्थव्यवस्था को फायदा होगा.
3. हिंद महासागर और प्रशांत महासागर के बीच मौजूद क्षेत्रों में समुद्री सुरक्षा बढ़ाने पर जोर. इसके लिए मुक्त नौवहन के सिद्धांतों को मजबूत करना जरूरी. सामुद्रिक मुद्दों के शांतिपूर्ण तरीके से हल और समुद्र के बेहतर व अर्थपूर्ण उपयोग को सुनिश्चित करना जरूरी.
चीन को पसंद नहीं हमारी दोस्ती
भारत और जापान के बीच प्रगाढ़ होते संबंधों पर चीन का तिलमिलाना नयी बात नहीं है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जापान यात्र पर चीनी मीडिया जहर उलग रहा है. चीन के प्रमुख दैनिक अखबार ने लिखा है कि जापान भारत को चीन के खिलाफ भड़का रहा है. भारत को जापान के बहकावे में आने की बजाय प्राथमिकता के आधार पर चीन के के साथ विवादित मुद्दों को हल करना चाहिए.
इस बार चीन की चिंता इसलिए भी ज्यादा बढ़ी हुई है, क्योंकि भारत और जापान रक्षा क्षेत्र में भी समझौता कर रहे हैं. अच्छी बात यह है कि जापान के नेतृत्व ने कभी भी चीन की बातों को ज्यादा तवज्जो नहीं दिया है. वर्तमान में दोनों देशों का दुनिया को देखने का दृष्टिकोण एक जैसा है और दोनों की समृद्धि एक-दूसरे पर आधारित है. दोनों की अर्थव्यवस्थाओं के बीच समान संबंध है. दोनों विकास के लिए नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यापार प्रणाली को प्रोत्साहन देने के पक्षधर हैं. दोनों देशों के सामुद्रिक सुरक्षा संबंधी सवाल भी एक जैसे हैं, दोनों को एक एक जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.