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गड़े मुर्दे उखड़वाने हैं, तो चुनाव में उतरिए

।।अनुज सिन्हा।। (वरिष्ठ संपादक प्रभात खबर) किसी ने सच ही कहा है कि अगर आप बगैर कोई मेहनत किये अपना अतीत जानना चाहते हैं तो चुनाव में खड़े हो जाइए. विपक्षी आपके पूरे खानदान का ब्योरा पता कर सार्वजनिक कर देंगे- आपके पूर्वज कौन थे? उन्होंने क्या-क्या गलती की थी? आपने कब क्या कहा था? […]

।।अनुज सिन्हा।।

(वरिष्ठ संपादक प्रभात खबर)

किसी ने सच ही कहा है कि अगर आप बगैर कोई मेहनत किये अपना अतीत जानना चाहते हैं तो चुनाव में खड़े हो जाइए. विपक्षी आपके पूरे खानदान का ब्योरा पता कर सार्वजनिक कर देंगे- आपके पूर्वज कौन थे? उन्होंने क्या-क्या गलती की थी? आपने कब क्या कहा था? यह सब कुछ चुनाव में प्रत्याशी बनते ही सामने आ जायेगा. यानी चुनाव न सिर्फ देश का भविष्य तय करता है, बल्कि नेताओं का असली चरित्र पहचानने का अवसर भी देता है. आप ऐसे पूछते रहिए कि नेताजी के पास कितनी संपत्ति है, कोई नहीं बतायेगा. लेकिन जैसे ही चुनाव में नेताजी खड़े हुए, सत्य तो स्वीकारना होगा. भले ही थोड़ा बहुत छिपा लें, लेकिन बताना तो पड़ेगा ही.

किस नेता का चरित्र क्या है, उसकी भाषा कैसी है, चुनाव में स्वत: दिख जाता है. ताजा उदाहरण लीजिए. कई सालों से यह चर्चा होती थी कि नरेंद्र मोदी की शादी हुई है या नहीं. हालांकि यह बिल्कुल निजी मामला है. खुद मोदी ने कभी भी विधानसभा चुनाव में नामांकन करते वक्त यह सूचना जाहिर नहीं की. लेकिन, इस बार चुनाव आयोग ने कड़े नियम बनाये थे. मोदी ने बता डाला कि वे शादीशुदा हैं. बस हो गया बवाल. कांग्रेस को लगा कि चुनाव में उसे बड़ा हथियार मिल गया है. होने लगे निजी हमले. मामला महिलाओं के सम्मान की बहस तक पहुंच गया. लेकिन, असल सवाल यह है कि नरेंद्र मोदी की शादी हुई हो या नहीं हो, किसी और को इससे क्या मतलब है. सच तो यह भी है कि राहुल गांधी ने अब तक शादी नहीं की है. कल को भाजपा की ओर से यह सवाल न उठने लगे कि राहुल गांधी ने शादी क्यों नहीं की?

चुनाव में असली मुद्दे गौण हो गये और निजी आरोप ज्यादा लगने लगे हैं. सभी दलों व नेताओं को अपने वोट बैंक की चिंता है. लोकलाज की परवाह किसी को नहीं. मुलायम सिंह बड़े नेता हैं और प्रधानमंत्री बनने की उम्मीद लगाये बैठे हैं. उन्होंने बयान दे दिया कि लड़कों से कभी-कभी गलती हो जाती है, इसलिए दुष्कर्म करनेवालों को फांसी नहीं होनी चाहिए. उन्हें चिंता थी अपने वोट बैंक की. रिझाना था. इसलिए बोल दिया. बोल कर फंस गये. चुनाव नहीं होता तो शायद नेताजी ऐसा बयान नहीं देते और उनका यह नया चरित्र सामने नहीं आता.

राजनीति में कोई अपना-पराया नहीं होता. चुनाव में अपने पराये हो जाते हैं और पराये अपने. राजनीति और चुनाव नहीं होते तो शायद माधव राव सिंधिया और उनकी माता विजया राजे सिंधिया के बीच दूरियां नहीं बनी होतीं. देश में जब आपातकाल लगा था तब सिंधिया परिवार में विवाद नहीं था. विजयाराजे मीसा के तहत जेल में बंद थीं और उनके बेटे माधव राव सिंधिया नेपाल में शरण लिये हुए थे. इसी बीच उनके महल में छापामारी हुई. उसके बाद सिंधिया को लगा कि कांग्रेस के साथ मिल जाने से स्थिति सुधर जायेगी. फिर वे चले गये कांग्रेस में. 1980 में राजमाता सिंधिया इंदिरा गांधी के खिलाफ रायबरेली से चुनाव लड़ रही थीं और बेटे थे कांग्रेस में. दोनों के रास्ते अलग हो चुके थे. राजनीति ने मां-बेटे को भी बांट दिया था. जब 1984 का चुनाव आया, वाजपेयी और माधव राव सिंधिया ग्वालियर से आमने-सामने थे. मां भाजपा में, बेटा कांग्रेस में. बेटे के खिलाफ प्रचार के लिए मां को उतरना पड़ा था. यह है राजनीति. अमेठी से राजीव गांधी चुनाव लड़ रहे थे, सामने थीं उनके दिवंगत भाई संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी. परिवार टूट चुका था.

अपवाद भी हैं. कभी-कभी ऐसे मौके आये हैं जब राजनीति या चुनाव ने परिवार को जोड़ा भी है. साथ खड़ा किया है. 1991 का चुनाव था. नयी दिल्ली सीट से लालकृष्ण आडवाणी चुनाव लड़ रहे थे. सामने थे कांग्रेस के राजेश खन्ना. प्रसिद्ध अभिनेता. पत्नी डिंपल कपाड़िया से संबंध बेहतर नहीं थे. लेकिन उस चुनाव में डिंपल अपनी दोनों बेटियों के साथ राजेश खन्ना के चुनाव प्रचार में रहती थीं. यही चुनाव राजेश खन्ना और डिंपल को फिर से करीब लाया था. यानी राजनीति अच्छे और बुरे दोनों अवसर देती है.

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