इस्लाम धर्म के पैगंबर हज़रत मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन की शहादत की याद में दुनिया भर के मुसलमान मुहर्रम के दिन मातम मनाते हैं.
भारत के कई हिस्सों में हिंदू परिवार भी मुहरर्म में शामिल होते हैं.
लेकिन बिहार के कुछ गांव ऐसे भी हैं जहां कोई मुस्लिम परिवार नहीं रहता, लेकिन इन गांवों में हर साल मुहर्रम मनाया जाता है.
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चार गांवों में मनता है मुहर्रम
बिहार के नवादा ज़िले के रोह प्रखंड में करीब दस किलोमीटर के दायरे में ऐसे चार गांव हैं जहां एक भी मुस्लिम परिवार नहीं रहने के बावजूद मुहर्रम मनाया जाता है.
घोराही गांव के धर्मेंद्र राजवंशी बताते हैं, "मैंने अपने दादा और पिताजी को मुहर्रम मनाते देखा है और उनकी इस परंपरा को आज मैं भी निभा रहा हूं. एक मन्नत पूरा होने के बाद उन्होंने मुहर्रम मनाना शुरू किया था."
रीति रिवाज़ से मनाया जाता है मुहर्रम
पेशे से ड्राइवर धर्मेंद्र को याद नहीं कि वो मन्नत कौन सी थी. उन्होंने इस साल भी मुहर्रम मनाने की तैयारी पूरी कर ली है.
वे कहते हैं, "हमने ताज़िया भी तैयार कर लिया है. रविवार को गांव वाले मिलकर ताज़िया घुमाएंगे. इस दौरान गांव वाले कागज का ताज़िया और मिठाई चढ़ाते हैं और फिर मौलवी को बुलाकर कर्बला में इसका विसर्जन कर दिया जाता है."
धर्मेंद्र के फुफेरे भाई मनोज राजवंशी मुहर्रम के दौरान पैकार बनते हैं.
पैकार यानी मोर पंख, घंटी और बदन पर रस्सी बांधकर सज-धज के तैयार होने वाले वो लोग जो मुहर्रम के दौरान गांव-गांव घूमते हैं.
एक भी मुस्लिम परिवार नहीं
मनोज ने बताया, "हम भी धर्मेंद्र की सेवा में लगे हुए हैं. आज और कल (शुक्रवार और शनिवार) को मिलाकर हम लोग छह-सात गांव घूम चुके हैं."
घोराही गांव से थोड़ी दूरी पर बसा गांव नजामत-कटहरा है.
गांव वालों के मुताबिक यहां के जमींदार कभी मुसलमान हुआ करते थे, लेकिन आज यहां एक भी मुस्लिम परिवार नहीं रहता.
गांव के दलित पूरी आस्था से मुहर्रम मनाते हैं. वे मुहर्रम की तैयारी चांद रात से ही शुरू कर देते हैं.
12 फ़ीट का ताज़िया
इस गांव के किसान रामविलास राजवंशी ने बताया, "इस बार हमने करीब बारह फ़ीट का ताज़िया बनाया है. हम कुछ अपना पैसा और खुशी से मिले चंदे को मिलाकर ताज़िया बनाते हैं, मुहर्रम मनाते हैं."
रामविलास के मुताबिक रविवार को इस गांव के लोग अपने यहां ताज़िया घुमाने के बाद इसका मिलन घोड़यारी के ताज़िया से कराएंगे.
वहीं पास के ही एक दूसरे गांव कटहरा के कामेश्वर पंडित के मुहर्रम मनाने की कहानी थोड़ी अलग हैं.
…तो आंखों की रोशनी सुधर गई
पेशे से कुम्हार कामेश्वर बताते हैं, "दादा जी मुहर्रम मनाते थे लेकिन पिताजी ने घर पर ये त्योहार मनाना छोड़ दिया. लेकिन जब मुझे देखने में परेशानी होने लगी तो मैंने एक इमाम साहब के कहने पर फिर से अपने यहां पूरे रीति-रिवाज से मुर्हरम मनाना शुरू किया."
कामेश्वर ने करीब दस साल पहले फिर से मुहर्रम मनाना शुरू किया था.
उनके मुताबिक इसे मनाना शुरू करने के बाद उनके आंखों की रोशनी सुधरी है.
कामेश्वर अपने भाई के साथ मिल कर मुहर्रम की पूरी तैयारी करते हैं और ताजिए के दिन पूरा गांव श्रद्धा के साथ जुलूस में शामिल होता है.
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