(सुषमा वर्मा, वरिष्ठ पत्रकार)
हम इस आंकड़े पर संतोष कर सकते हैं कि लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या चुनाव दर चुनाव बढ़ी है, लेकिन देश में महिला मतदाताओं की संख्या के लिहाज से यह हिस्सेदारी अब भी काफी कम है. तथ्य यह भी है कि सभी प्रमुख पार्टियां चुनाव से पहले अपने घोषणापत्र में महिलाओं से जुड़े मुद्दों को प्रमुखता से शामिल करती हैं, लेकिन चुनाव के बाद अकसर उन्हें भुला दिया जाता है. इस बार दो प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों के घोषणापत्रों में महिलाओं के लिए किये गये वादे और भारतीय संसद में महिलाओं की भागीदारी पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज.
भाजपा का घोषणापत्र जारी होने के साथ ही अब सभी प्रमुख पार्टियों के चुनावी वायदे जनता के सामने आ गये हैं. सभी दलों ने देश की आधी आबादी यानी महिलाओं के कल्याण के लिए बढ़-चढ़ कर दावे किये हैं. कांग्रेस और भाजपा ने संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने का वचन फिर दोहराया है. लेकिन यह काम कब तक होगा, इसका उल्लेख किसी ने नहीं किया.
कांग्रेस ने सभी स्थानीय निकायों का 30 प्रतिशत धन महिलाओं व बच्चों के कल्याण पर खर्च करने, महिलाओं को जमीन का मालिकाना हक दिलाने, लिंगानुपात को दुरुस्त करने, अस्पतालों में महिलाओं के लिए ‘वन स्टॉप क्राइसेस सेंटर’ बनाने और पुलिस में महिलाओं की अधिक संख्या में नियुक्ति का भरोसा दिया है. उधर, भाजपा भी महिलाओं के लिए चुनावी वायदे करने में पीछे नहीं है. उसने महिलाओं से जुड़े कानूनों पर कड़ाई से अमल करने, बलात्कार व तेजाबी हमले की शिकार औरतों के पुनर्वास के लिए विशेष फंड देने, पुलिस में ज्यादा संख्या में महिलाओं की भरती करने, महिलाओं के लिए अलग से आइटीआइ तथा कामकाजी महिलाओं के लिए हॉस्टल बनाने तथा संपत्ति के अधिकार में मौजूदा भेदभाव समाप्त करने की घोषणा की है.
लेकिन अनुभव बताता है कि चुनावी मौसम में सभी दलों में जनता को सब्जबाग दिखाने की होड़ लगी रहती है, लेकिन चुनाव निपटते ही नेता और दल सब भूल जाते हैं. यदि उनकी नीयत ठीक होती तो शायद देश में महिलाओं के खिलाफ अपराध की वारदातों में इजाफा न होता. दूर क्यों जायें, देश की राजधानी दिल्ली का ही उदाहरण लेते हैं. पीएचडी चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री द्वारा कराये गये एक सर्वेक्षण से यह बात उजागर हुई है कि दिल्ली महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं है. इसीलिए अपने घरों से दूर देश की राजधानी में नौकरी करने आयी महिलाएं घर लौटने को बेताब हैं. उन्हें लगने लगा है कि काम करने के लिहाज से दिल्ली अच्छी जगह नहीं है. आये दिन बलात्कार और अन्य अपराधों के कारण जन्मी असुरक्षा की भावना का असर उनके कामकाज पर भी पड़ने लगा है. हर समय डर के साये में जीने से आजिज आ चुकी महिलाओं ने अपने घर के नजदीकी शहरों में नौकरी ढूंढ़नी शुरू कर दी है. व्यक्तिगत सुरक्षा के मद्देनजर वे दूसरे शहर में कम तनख्वाह पर काम करने को राजी हैं.
भले ही देश की राजधानी दिल्ली में कानून व्यवस्था की स्थिति में सुधार के दावे किये जाते हों, मगर दिल्ली पुलिस द्वारा जारी वर्ष 2013 के अपराध आंकड़े इस दावे की पुष्टि नहीं करते. वर्ष 2013 में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अपराधों में 40 फीसदी से ज्यादा बढ़ोतरी हुई है. महिलाओं के खिलाफ छेड़छाड़ के 412 फीसदी, जबकि बलात्कार के मामलों में 129 फीसदी की वृद्धि हुई है. वर्ष 2013 में बलात्कार जैसे जघन्य अपराध में 1,559 मामले दर्ज हुए, जबकि 2012 में यह संख्या 680 थी. मतलब यह है कि केंद्र सरकार की नाक तले हर दिन बलात्कार की 4.27 घटनाएं होती हैं. यहां हम केवल पुलिस में दर्ज आंकड़ों की बात कर रहे हैं, जबकि कड़वा सच यह है कि न दर्ज होनेवाले मामलों की संख्या दर्ज मामलों से कहीं अधिक है.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की 2012 की रिपोर्ट भी दिल्ली की दुर्दशा बयान करती है. इस रिपोर्ट के अनुसार, अगर मुंबई (232), कोलकाता (68), बेंगलुरु (90) और चेन्नई (94) की बलात्कार घटनाओं को जोड़ दिया जाये (484), तब भी उनका संयुक्त आंकड़ा दिल्ली से कम बैठता है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट में जिन 88 शहरों में महिला संबंधी अपराधों का ब्योरा दिया गया है, उनमें अकेले दिल्ली की हिस्सेदारी 14.88 प्रतिशत है. रोंगटे खड़े कर देनेवाला यह सच जानने के बाद लगता है कि दिल्ली में दिन-रात खूंखार अपराधी महिलाओं के ‘शिकार’ की ताक में रहते हैं. महिलाओं के खिलाफ अपराध में दूसरा नंबर बेंगलुरु का है, लेकिन वहां का आंकड़ा महज 6.18 प्रतिशत है, जो दिल्ली से काफी कम है. 5.66 प्रतिशत के साथ कोलकाता तीसरे और 4.86 प्रतिशत के साथ मुंबई चौथे स्थान पर है.
महिलाओं की दुर्दशा के लिए कानून-व्यवस्था भी परोक्ष रूप से जिम्मेदार है. महिलाओं को दशकों तक अदालतों से न्याय नहीं मिल पाता. तारीख पर तारीख पड़ती रहती हैं, जिस कारण कई बार पीड़िता को लगता है कि उसने कानून का दरवाजा खटखटाकर मानो कोई गलती की है. कानूनी पेचीदगियां भी बलात्कार की शिकार महिला से बार-बार अत्याचार करती हैं, जिससे उन्हें भयानक मानसिक संत्रस से गुजरना पड़ता है. अदालत में बयान देते वक्त उसे निरंतर याद रखना होता है कि उसके साथ बलात्कार कब, कैसे और किन हालातों में हुआ. मेडिकल जांच की प्रक्रिया भी बहुत कष्टप्रद होती है. देश के स्वास्थ्य मंत्रलय की नयी गाइडलाइन के बाद अब आशा जतायी जा रही है कि रेप विक्टिम की जांच अमानवीय तरीके से नहीं होगी, लेकिन जमीनी हकीकत जस की तस है.
राजनीतिक दल जनता को वायदों के सब्जबाग तो दिखा रहे हैं, लेकिन महिलाओं की सुरक्षा के लिए ठोस आश्वासन कोई नहीं दे रहा. मसलन, महिलाओं के प्रति बढ़ रही हिंसा को कैसे रोका जायेगा, अपराधियों को जल्दी से जल्दी दंड दिया जायेगा तथा इस मुद्दे पर कानून के रखवालों को कैसे संवेदनशील बनाया जायेगा, इसका खाका किसी दल के पास नहीं है. जब राष्ट्र के कर्णधार देश की राजधानी को ही सुरक्षित नहीं बना सकते, तो उनसे लंबी-चौड़ी अपेक्षाएं कैसे की जा सकती हैं. अहम सवाल यह है कि क्या देश की महिलाएं मतदान करते वक्त इन तथ्यों को ध्यान में रखेंगी?
महिला आरक्षण पर टालमटोल
एक कहावत है कि सांप के मुंह में छुछूंदर, न निगलते बने न उगलते. महिला आरक्षण विधेयक को लेकर राजनीतिक दलों की कुछ ऐसी ही स्थिति है. बरसों से प्रमुख पार्टियां अपने चुनावी घोषणापत्र में महिला आरक्षण कानून बनाने का वायदा करती हैं, लेकिन राजनीतिक दल इस विधेयक को न तो पास करवाने की हिम्मत जुटा पा रहे हैं और न ही इसे साफ तौर पर नकार पा रहे हैं. यही वजह है कि लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने संबंधी विधेयक की हर बार छीछालेदर होती है. किसी न किसी बहाने इस विधेयक की राह में रोड़े अटका दिये जाते हैं. महिलाओं के वोट हासिल करने के लिए चुनाव के समय इसे पास करने की कसमें खायी जाती हैं और चुनाव होते ही इस कसम को भुला दिया जाता है.
कहते हैं कि 12 साल में तो घूरे के दिन भी फिर जाते हैं, पर महिला आरक्षण का मुद्दा है कि पिछले 18 वर्षो से बेताल की तरह डाल पर लटक रहा है. 2008 में संयुक्त प्रगतिशील गंठबंधन सरकार ने अवश्य इसे राज्यसभा में पेश कर अपना वादा पूरा करने की दिशा में ठोस पहल की थी. लेकिन उसके बाद भी स्थिति जस की तस बनी रही. लगता है चुनाव में इस मुद्दे को मुख्य मंच पर लाने की जिम्मेदारी महिला संगठनों को ही निभानी पड़ेगी.
इस बार के आम चुनाव में भी महिला आरक्षण का मुद्दा सुनियोजित तरीके से पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया है. बड़े दल भले ही महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने और लोकसभा व विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण देने की वकालत करते हों, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रचार के दौरान कोई भी पार्टी महिला आरक्षण विधेयक का जिक्र तक नहीं कर रही है. महिलाओं को टिकट देने के मामले में भी ज्यादातर दलों का रवैया एक जैसा है. हर दल सिर्फ जीतनेवाले उम्मीदवारों पर ही दावं लगाना चाहता है.
जो दल या गंठबंधन सत्ता के दावेदार हैं, उनसे पूछा जाना चाहिए कि सरकार बनाने के कितने दिन के भीतर वे महिला आरक्षण बिल संसद में पारित करवा देंगे. सर्वानुमति बनाने और विरोधियों को मनाने जैसी बहानेबाजी अब नहीं चलनी चाहिए.
महिला सांसदों की बढ़ती संख्या
16वीं लोकसभा के चुनाव के लिए नामांकन प्रक्रिया अभी जारी है. ऐसे में अभी यह बताना कठिन है कि चुनावी दंगल में किस पार्टी ने कितने महिला प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है, लेकिन एक बात कही जा सकती है कि लोकसभा में पिछले कुछ चुनाव से महिला सांसदों की संख्या में इजाफा हुआ है. वैसे आधी आबादी के लिहाज से उनकी संख्या अब भी बहुत कम है. 15वीं लोकसभा में महिलाओं ने 52 सीटों पर विजय हासिल कर पहली बार 10 फीसदी का आंकड़ा पार किया था. 15वीं लोकसभा में महिला सांसदों की हिस्सेदारी 10.86 प्रतिशत थी. पांच बरस पहले हुए आम चुनाव में खड़ी 556 महिला उम्मीदवारों में से 52 ने जीत हासिल की थी. उसके पहले 2004 के चुनाव में 345 महिलाएं चुनाव मैदान में थीं, जिनमे से 45 जीती थीं.
लोकसभा में महिलाओं की सबसे कम संख्या 1977 में थी, जब मात्र 19 ही चुनाव जीत कर निचले सदन में पहुंच पायी थी. तब उनकी संख्या लोकसभा की कुल सीटों का महज 3.5 प्रतिशत थी. 1952 में 22, 1957 में 27, 1962 में 34, 1967 में 31, 1971 में 22, 1977 में 19, 1980 में 28, 1984 में 44, 1989 में 27, 1991 में 39, 1996 में 39, 1998 में 43, 1999 में 46, 2004 में 45 और 2009 में 52 महिलाएं जीती थीं.
सबसे ज्यादा महिलाओं ने 1996 के आम चुनाव में भाग्य आजमाया था. उस साल 599 महिलाएं चुनावी दंगल में उतरी थीं. इसके बाद 2009 में 556 महिला उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा. 2004 के आम चुनाव में 355 महिलाएं चुनावी दंगल में उतरीं. 1980 की सातवीं लोकसभा के चुनाव के दौरान पहली बार महिला उम्मीदवारों ने 100 के आंकड़े को पार किया. चुनाव लड़ने में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की भागीदारी नौवें आम चुनाव तक 30 गुना कम थी, 10वें आम चुनाव से इसमें सुधार हुआ. हां, एक बात दिलचस्प है, पहले आम चुनाव से लेकर 15वीं लोकसभा के गठन तक महिला उम्मीदवारों की जीत का प्रतिशत पुरुषों की तुलना में हमेशा अधिक रहा है. ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि अगर महिलाएं राजनीति में पुरुषों के मुकाबले ज्यादा जीत रही हैं, तो उन्हें टिकट देने में सियासी दल कंजूसी क्यों करते हैं!