आजकल फ़िल्मों पर कैंची चलती है क्योंकि कुछ ऐसे दृश्य या शब्द होते हैं जो सेंसर बोर्ड के मुताबिक जनता के लिए ठीक नहीं हैं. लेकिन आज कुछ धारावाहिक कुछ ऐसा दिखा रहे हैं जो क़ानून की नज़रों में बेशक ग़लत है लेकिन जनता के देखने के लिए नहीं.
एक धारावाहिक जल्द आने वाला है जिसके प्रोमो आजकल टीवी पर आ रहे हैं.
‘पहरेदार पिया की’ नाम के इस धारावाहिक में 10 साल के लड़के को 18 साल की लड़की की मांग में सिंदूर भरते देखा जा सकता है.
इससे पहले बाल विवाह पर आया था सीरियल- ‘बालिका वधू’ जिसमें दो बच्चों की शादी हो जाती है.
टीवी पर अब जो धारावाहिक आते हैं वो अस्सी और नब्बे के दशक के दशक के धारावाहिक से बिलकुल अलग हैं.
टीवी पर आ रहे बदलाव के बारें में अभिनेत्री मंदिरा बेदी कहती हैं, "अब जो कहानियाँ बनती हैं, जो औरतों के किरदार हैं वो हमे वक़्त में पीछे लेकर जा रहे हैं. अब मैं सीरियल ही नहीं करना चाहती. ये सब ‘किचन पॉलिटिक्स’ से भरे शो हैं. इन सीरियल्स में औरतें आपस में ही लड़ती रहती हैं. किरदार घर से बाहर निकलते ही नहीं. "
नज़रिया था औरतों को धारावाहिक से प्रेरणा मिले
मंदिरा बेदी ने छोटे पर्दे पर प्रसारित धारावाहिक ‘शांति’ में मुख्य किरदार निभाया था.
उस धारावाहिक में मंदिरा एक पत्रकार की भूमिका में थी और समाज में कुछ ताक़तवर लोगों से टक्कर लेती दिखाई दीं थी.
मंदिरा बेदी ने कहा, " उस वक्त हमारा नज़रिया होता था कि लोगों को, ख़ासकर औरतों को प्रेरणा मिले. अब तो ऐसा कुछ नही होता. आजकल जो मुख्य किरदार है वो घर में ही रहती है. उसका किरदार कहानी में ज़्यादातर वैम्प का होता है. एक सीरियल जो हाल के सालों मे मुझे पसंद आया वो है – जस्सी जैसी कोई नही .’
एक वक़्त था जब दोपहर को ‘शांति’ और ‘स्वाभिमान’ और रात को ‘हसरतें’, ‘तारा’ और ‘कोरा काग़ज़’ , ‘साँस’ जैसे धारावाहिक आते थे. जहाँ डेली सोप की कहानी शुरू हुई , वहीं से शुरुआत हुई एसी कहानियों की जिसमें सिर्फ़ रसोई राजनीति होती है.
तब औरत टक्कर लेने को तैयार थी
अस्सी और नब्बे के दशक के ‘इम्तिहान’ और ‘कोरा काग़ज़’ में एक मज़बूत औरत का किरदार निभाया रेणुका शाहणे ने.
‘इम्तिहान’ में जहाँ रेणुका का किरदार अपनी पिता के मौत के बाद खानदान की खोई हुई दौलत वापिस लाती है तो ‘कोरा काग़ज़’ में समाज की परवाह ना करते हुए अपने देवर के लिए जो वो महसूस करती है उसे छुपाती नही.
रेणुका शाहणे का कहना है ,"अस्सी और नब्बे के दशक में टी.वी सबके पास नहीं होता था तो कुछ लोगों के लिए ही सीरियल बनते थे. फिर बहुत लोगों के पास टीवी आया और डेली सोप का चलन शुरू हुआ. उसके बाद कहानियाँ भी बदली गईं और फिर शुरू हुआ टी.आर.पी का खेल."
रेणुका शाहणे ने जब करियर की शुरुआत की तब एक या दो चैनल ही आते. फिर दूरदर्शन के बाद केबल टी.वी का ज़माना आया और साल 2000 के आसपास सब बदल गया.
‘औरत ही बनाती है ऐसे धारावाहिक’
रेणुका आगे कहती हैं ,’ नब्बे के दशक के कितने सारे धारावाहिक तो इतिहास पर आधारित होते थे. कहानी में कुछ अलग होता . अब ऐसा नही. मुझे हैरानी इस बात से होती है कि पुराने ख़्यालात वाले सीरियल में पढ़ी लिखी औरतें ही नज़र आती हैं. और इन सीरियल को बनाने वाली औरतें ही है. मैने कुछ से पूछा कि आप कैसे ऐसे पिछड़े सीरियल बनाती हैं तो वो कहती हैं – टी आर पी के चलते."
रेणुका शाहणे कहती हैं, " नब्बे के दशक के जो सीरियल बनते वो हफ़्ते में एक या दो बार आते थे,लेकिन अब वक़्त बदल रहा है और टी.आर.पी के चलते धारावाहिक के एपिसोड रोज़ आते हैं जिसमें चैनल की दखलंदाज़ी होती है. इसलिए किरदार का अपना कोई एक व्यक्तित्व नहीं होता. पहले के किरदार का बोलने और हंसने का अपना तरीका होता था और उन्हें बेहतर रचा जाता था."
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