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सिलीगुड़ी : गुम हो गयी मिट्टी की सोंधी सुगंध, मेहनत काफी, फिर भी कद्रदानों की भारी कमी

सिलीगुड़ी : भारत के इतिहास में हजारों वर्षों से मिट्टी के बर्तनों का उपयोग होता आ रहा है. हाल तक गांवों के वैवाहिक कार्यक्रमों में मिट्टी के बर्तनों का उपयोग किया जाता था. अभी भी कुछ-कुछ इलाकों में दही जमाने के लिए मिट्टी के बर्तनों का उपयोग किया जाता है. कोलकाता जैसे मेट्रोपोलिटन शहरों के […]

सिलीगुड़ी : भारत के इतिहास में हजारों वर्षों से मिट्टी के बर्तनों का उपयोग होता आ रहा है. हाल तक गांवों के वैवाहिक कार्यक्रमों में मिट्टी के बर्तनों का उपयोग किया जाता था. अभी भी कुछ-कुछ इलाकों में दही जमाने के लिए मिट्टी के बर्तनों का उपयोग किया जाता है. कोलकाता जैसे मेट्रोपोलिटन शहरों के अधिकतर चाय दुकानों में मिट्टी के ग्लास का उपयोग होता है.
विशेषज्ञों की मानें तो मिट्टी के बर्तन में जो भोजन पकाने से पोषक तत्वों की कमी नहीं होती. इससे लोगों का स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है तथा वातावरण में प्रदूषण भी कम होता है. अब इन मिट्टी के बर्तनों की जगह प्लास्टिक, चीनी मिट्टी तथा आधुनिक स्टील के बर्तनों ने ले ली है.
जिस वजह से अब मिट्टी के बर्तनों के महत्व में कमी आ रही है. इसका सीधा प्रभाव मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कारीगरों पर पड़ रहा है.ये कारीगर अब इस पेशे को छोड़कर दूसरे पेशे की ओर बढ़ रहे हैं.
सिलीगुड़ी नगर निगम के अधीन 37 नंबर वार्ड के चयनपाड़ा में पालपाड़ा है. यहां रहने वाले अधिकांश लोग मिट्टी के बर्तन बनाने का काम करते थे. मिट्टी के बर्तन बनाने वाले एक कारीगर शंकर पाल ने बताया कि उस इलाके में 180 लोगों का परिवार रहता है.
आज से दस पंद्रह वर्ष पहले उस इलाके के अधिकतर लोग मिट्टी के बर्तन बनाते थे. पहले विभिन्न शादियों और अन्य कार्यक्रमों में मिट्टी के गिलास का उपयोग होता था. जिस वजह से उनके पास शादियों के मौसम में काफी काम होता था.
लेकिन जब से प्लास्टिक के कप और गिलास का प्रचलन शुरू हुआ तब से मिट्टी के बर्तनों के कद्रदान कम हो गये हैं. जबकि प्लास्टिक के गिलास तथा कपों के उपयोग से स्वास्थ्य पर बुरा प्रभावपड़ता है. साथ ही वातावरण को भी नुकसान हो रहा है.
उन्होंने नगर निगम पर सवालिया निशान लगाते हुए बताया कि प्लास्टिक के कारगर प्रतिबंध के लिए नगर निगम कोई ठोस पहल नहीं कर रही है. बीच-बीच में दिखावे के लिए प्लास्टिक कैरीबैग के खिलाफ नगर निगम द्वारा अभियान चलाया जाता है. इसके स्थायी समाधान को लेकर कोई फिक्र ही नहीं है.
शंकर पाल ने बताया कि कई वर्ष पहले प्रशासन की ओर से स्थानीय कम्युनिटी हॉल में मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कारीगरों के लिए एक प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया गया था. एक-दो बार प्रशिक्षण देने के बाद उसे भी बंद कर दिया गया.
उन्होंने आगे बताया कि बर्तन को बनाने के लिए चोपड़ा, घोषपुकुर, कालागंज जैसे इलाकों से मिट्टियों को लाना पड़ता है. एक छोटी गाड़ी मिट्टी लाने में लगभग 2 हजार रुपये तक का खर्च आता है. उसके बाद बर्तन बनाने में काफी मेहनत करनी पड़ती है.
उसके बाद जब बर्तन बनाकर उसे बाजार में बेचने पर जाते हैं तो उचित दाम नहीं मिल पाता. जिस कारण से लोग अब इस पेशे को छोड़कर दूसरे काम कर रहे हैं. उन्होंने बताया कि तत्कालीन वाम मोर्चा सरकार ने मिट्टी कारीगरों को विभिन्न सुविधाएं देने की बात कही थी. लेकिन कुछ लाभ नहीं हुआ.
यह बस वादा बनकर ही रह गया. उन्होंने बताया कि सिलीगुड़ी शहर संलग्न माटीगाढ़ा इलाके में मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कारीगरों को कावाखाली स्थित शिल्प हाट में दुकान लगाने का मौका दिया जा रहा है. लेकिन उस इलाके के लोगों को ऐसी कोई सुविधा नहीं मिल रही. उन्होंने इस विषय पर सरकार से उचित ध्यान देने की मांग की है.

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