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सिलीगुड़ी की कहानी महानंदा की जुबानी – 6 : नक्सलबाड़ी से शुरू आंदोलन से हिल उठा था राज्य व देश

मैं महानंदा हूं. इस शहर के साथ ही उत्तर बंगाल के इतिहास की गवाह. मैंने यहां कितने ही रियासतों का उत्थान और पतन देखा है. सत्ता परिवर्तन और क्रांति की आग को दावानल की तरह फैलते देखा है. दरअसल, आज जो सिलीगुड़ी का रूप दिखायी दे रहा है, उसके पीछे उसके इतिहास में इन उथल-पुथल […]

मैं महानंदा हूं. इस शहर के साथ ही उत्तर बंगाल के इतिहास की गवाह. मैंने यहां कितने ही रियासतों का उत्थान और पतन देखा है. सत्ता परिवर्तन और क्रांति की आग को दावानल की तरह फैलते देखा है. दरअसल, आज जो सिलीगुड़ी का रूप दिखायी दे रहा है, उसके पीछे उसके इतिहास में इन उथल-पुथल भरी घटनाओं का बड़ा योगदान है.

मैं उन्हीं कुछ घटनाओं को बयान करने जा रही हूं. बंगाल सदियों से क्रांति की भूमि रही है. एक से एक बलिदानी पुरुष व महिलाओं के त्याग व संघर्ष की गाथा से इतिहास के पन्ने रंगे हुए हैं. अनुशीलन समिति से लेकर युगांतर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का बुनियाद रखने में अहम भूमिका निभायी है. उसके बाद शुरु हुआ कम्युनिस्ट आंदोलन, जिसने सत्ता के उलटफेर में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. उसी कम्युनिस्ट आंदोलन का विस्तार नक्सलबाड़ी आंदोलन के रूप में 60-70 के दशक में इसी क्षेत्र में हुआ. शहर से करीब 35 किलोमीटर की दूरी पर है नक्सलबाड़ी, जहां किसानों ने पहली बार अन्याय व उत्पीड़न के खिलाफ हथियार उठाये थे. आज भी नक्सलबाड़ी में इस किसान विद्रोह के जनक चारू मजूमदार और सरोज दत्त की मूर्ति बनी हुई है, जिसे देखने के लिए देश-विदेश से लोग आते हैं. यह नक्सलबाड़ी आंदोलन यों ही अचानक पैदा नहीं हुआ, बल्कि इसी पृष्ठभूमि में बंगाल में आम जनता और खास तौर पर गरीब व मध्यम किसानों की दुरवस्था थी, जिसने उन्हें आंदोलन करने और फिर उसके लिए हथियार उठाने के हालात पैदा किये.

मनोरंजन पांडेय
सिलीगुड़ी सन 60-70 के दशक का दौर देश के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण और परिवर्तनकारी रहा है. कांग्रेस के कुशासन से पूरे देश सहित बंगाल की जनता त्रस्त थी. वह एक सार्थक विकल्प की तलाश में थी. इसी विकल्प के रूप में बंगाल में कम्युनिस्ट आंदोलन ने जन्म लिया. कम्युनिस्ट नेताओं ने प्रदेश के किसानों और मजदूरों को संगठित करना शुरू किया. देश में कांग्रेस अध्यक्ष व तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय तो गैरकांग्रेसवाद आंदोलन ही चल पड़ा था. बंगाल में कम्युनिस्ट आंदोलन के जोर पकड़ने से कांग्रेसी खेमा विचलित था. उसके बावजूद जन आंदोलनों के फलस्वरूप 1967 में पहली बार प्रदेश में गैरकांग्रेसी संयुक्त फ्रंट की सरकार अजय मुखर्जी के मुख्यमंत्रित्व में बनी. उस सरकार का नेतृत्व कांग्रेस के नेता अजय मुखर्जी ने किया. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी (सीपीआइएम) के विधायकों ने बाहर से इस सरकार को समर्थन दिया. लेकिन आपसी मतभेदों और दिशाहीनता का शिकार होने से यह सरकार प्रदेश में स्थिर सरकार नहीं दे सकी. प्रदेश में अराजकता का आरोप लगाकर तत्कालीन राज्यपाल धर्मवीर ने 21 नवंबर 1967 को पहली संयुक्त फ्रंट सरकार को बर्खास्त कर दिया.

इसके बाद दूसरी संयुक्त फ्रंट सरकार का गठन भी अजय मुखर्जी के नेतृत्व में ही हुआ लेकिन इस बार सीपीआइएम, राज्य सरकार में शामिल हुई. उस समय उपमुख्यमंत्री बने सीपीआइएम के कद्दावर नेता ज्योति बसु. मजे की बात है कि ज्योति बसु के पास गृह विभाग भी था. इसलिये उन्होंने तय किया कि पुलिस किसानों और मजदूरों के शांतिपूर्ण आंदोलनों पर गोलियां नहीं बरसायेगी. राज्य सरकार की ओर से इतना शह पाकर प्रदेश में किसान-श्रमिक आंदोलनों की बाढ़ आ गयी. सत्ता के इस नये तेवर को देखकर केंद्र की कांग्रेसी सरकार घबरा गयी. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इस संयुक्त फ्रंट सरकार को अस्थिर करने में जुट गयीं. नतीजतन अजय मुखर्जी ने 16 मार्च 1970 को अपने पद से इस्तीफा दे दिया. राज्यपाल शांतिस्वरूप धवन की सिफारिश पर केंद्र ने बंगाल में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया. इस तरह से गैरकांग्रेसवाद से उपजी सरकार सत्ता से बाहर हो गई. हालांकि जिस तरह से संयुक्त फ्रंट सरकार को बर्खास्त किया गया उससे कांग्रेस की नीतियां खुलकर सामने आ गईं. आम जनता में और खास तौर से बुद्धिजीवियों में वामपंथी आंदोलन के प्रति रुझान बढ़ने लगा. 19 मार्च 1970 को राज्यपाल ने विधानसभा को निलंबित कर दिया. इस बीच प्रदेश में बढ़ रहे जन आंदोलनों के दमन के लिए प्रिवेंशन ऑफ वायलेंट एक्टिविटिज एंड डिटेंशन एक्ट (पीडीए) लागू कर दिया. इस दौरान आंदोलन कर रहे हजारों की संख्या में छात्र-युवा गिरफ्तार कर लिये गये.
अराजकता का लाभ उठा अपराधियों का तांडव
1970 तक चारु मजूमदार के नेतृत्व में नक्सलबाड़ी का सशस्त्र किसान आंदोलन अपने शबाब पर था. पीडीएक्ट को हथियार बनाकर अनगिनत छात्र छात्राओं को जेल में डाल दिया गया. बहुतों को तो नक्सली बताकर एनकाउंटर कर दिये जाने की भी खबर फैली. हालांकि इस खबर में कितनी सच्चाई थी यह कहना मुश्किल था. चारों ओर मार-काट का माहौल था. अराजकता के इस दौर में सिलीगुड़ी शहर में आपराधिक तत्वों का बोलबाला हो गया था. इस दौर में कौन नक्सली है और कौन पेशेवर हत्यारा, यह फर्क कर पाना मुश्किल था. शाम के 7 बजे के बाद लोग अपने घर से बाहर जब तक कि कोई संकट न हो नहीं निकलते थे. जब तक हत्या और डकैती की घटनाएं सुनने और पढ़ने को मिलती थी. तब रेडियो और समाचारपत्र ही खबरों का जरिया थे. आज की तरह संचार के साधन विकसित और तेज नहीं थे. इसी दौर में पीडी एक्ट में मशहूर नक्सली नेता कानू सान्याल गिरफ्तार कर लिये गये. तब तक नक्सल आंदोलन के जनक चारू मजूमदार भूमिगत रहते हुए किसान आंदोलन को नेतृत्व दे रहे थे. उस समय आंदोलन ने सरकार को हिला कर रख दिया था.
सिद्धार्थ शंकर ने शुरू किया आंदोलन का दमन
इसके बाद देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सलाह पर तत्कालीन राष्ट्रपति वीवी गिरि ने चौथी लोकसभा को भंग कर दिया और लोकसभा और विधानसभाओं का मध्यावधि चुनाव 27 दिसंबर 1970 को एक ही साथ करा दिया. इस चुनाव में इंदिरा कांग्रेस को भारी बहुमत से विजय मिली. चूंकि सीपीआइएम को विधानसभा में केवल 19 सीटें मिलीं थीं, इसलिए उसने चुनाव में धांधली का आरोप लगाकर ज्योति बसु के नेतृत्व में विधानसभा का बहिष्कार कर दिया. एक बार और मुख्यमंत्री बने कांग्रेस के अजय मुखर्जी, जबकि उपमुख्यमंत्री बने विजय सिंह नाहर. लेकिन इस बार भी अजय मुखर्जी 88 रोज से अधिक शासन नहीं चला पाये और उन्होंने दबाव में आकर इस्तीफा राज्यपाल को सौंप दिया. 28 जून 71 को पुन: राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया. इस बार मुख्यमंत्री बने सिद्धार्थ शंकर राय जो सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता भी थे. अजय मुखर्जी ने सख्ती के साथ प्रदेश में किसान और श्रमिक आंदोलनों का दमन शुरू कर दिया. इस दौर को कम्युनिस्ट आंदोलनकारी काला अध्याय के रूप में चर्चा करते हैं.
28 जुलाई 1972 को कोलकाता में चारु की मौत
(शिव चटर्जी के अनुसार) इस बीच नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ किसानों का सशस्त्र आंदोलन देश के कई राज्यों जैसे बिहार, आंध्रप्रदेश और ओड़िशा तक में फैल चुका था. इससे केंद्र सरकार इस आंदोलन का दमन करने के लिये कटिबद्ध थी. 16 जुलाई 1972 को पुलिस ने कोलकाता के एनटाली इलाके के देवलेन स्थित टिन के एक घर में चल रही सीपीआइ (एमएल) की राज्य कमेटी की बैठक के दौरान नौ सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया. उन सभी को उसी रात कोलकाता के लालबाजार पुलिस कंट्रोल रूम ले जाकर उनसे गहन पूछताछ की गई. इसी पूछताछ में एक सदस्य ने चारु मजुमदार के गुप्त ठिकाने का सुराग दे दिया. उसी रात पुलिस ने दबिश देकर कोलकाता के 170ए मिडल रोड के एक तिमंजिले मकान के फ्लैट से देर रात तीन बजे चारु मजुमदार को गिरफ्तार कर लिया. उस समय चारु मजुमदार का स्वास्थ्य गिर गया था. वे दमा के मरीज थे. इसीलिये वे बराबर पैथेड्रिन इंजेक्शन लेते थे. पुलिस उन्हें लालबाजार ले जाकर 12 दिनों तक गहन पूछताछ करती रही. खराब स्वास्थ्य और बिना रुके पूछताछ से उनका शरीर जवाब दे गया. इस वजह से 28 जुलाई 1972 को उनका निधन हो गया. जिस सीपीआइ (एमएल) की स्थापना चारु मजुमदार ने भारत में कम्युनिस्ट क्रांति के लिए करवायी थी, उनके निधन के बाद उसके 36 टुकड़े हो गये. हालांकि सभी कमोबेश चारु मजुमदार को अपना प्रेरणा स्रोत मानते हैं.
महानंदापाड़ा में चारू मजूमदार का मकान
चारु मजूमदार सिलीगुड़ी के ही रहनेवाले थे और सीपीआइएम के नेता थे. बाद में वह पार्टी से असंतुष्ट रहने लगे. वह किसानों-मजदूरों के लिए क्रांतिकारी बदलाव चाहते थे. सीपीआइएम का रास्ता उन्हें संशोधनवादी लगने लगा था. आखिरकार, चारु मजूमदार, कानू सान्याल और जंगल संताल ने जमींदारों के खिलाफ किसानों और आदिवासियों के आक्रोश को बड़े आंदोलन की चिनगारी में बदल दिया, जिसे दुनिया नक्सलबाड़ी आंदोलन के नाम से जानती है. चारु मजूमदार का मकान अब भी मेरी ही किनारे पर स्थित महानंदापाड़ा में है. उनके बेटियां और बेटे अब इसमें रहते हैं. उनके बेट अभिजीत मजूमदार सिलीगुड़ी कॉलेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक हैं और राजनीति में सक्रिय हैं. वह सीपीआइ (एमएल) लिबरेशन के जिला सचिव हैं.

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