उल्लेखनीय है कि केन्द्र सरकार और भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व बिमल गुरूंग के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन के तेवर से खुश नहीं हैं. खास तौर से अभी तक आंदोलन को भाजपा की ओर से कानून और व्यवस्था का मसला माने जाने और मंत्री एवं सांसद एसएस अहलुवालिया के पहाड़ से गायब रहने से कई तरह के कयास लगाये जाने लगे हैं. गौरतलब है कि केन्द्र की भाजपा नीत सरकार की नजर 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव पर है.
यही वजह है कि वह पहाड़ की एक लोकसभा सीट के लिए बंगाल की 41 सीटों को गंवाना नहीं चाहती है. चूंकि बंग-भंग को मसला बनाकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बंगाल की जनता को गोरखालैंड के खिलाफ गोलबंद कर लिया है. इस तरह से टीएमसी की स्थिति अगले लोकसभा चुनाव के लिये पुख्ता हो गई है. यही वजह है कि भाजपा नेतृत्व गोरखालैंड राज्य के समर्थन में खुलकर सामने आना नहीं चाहता. संभवत: इसी से केन्द्र पहाड़ को छठी अनुसूची का दर्जा दिलाने की मांग करने वाले जीएनएलएफ को सामने लाना चाहता है. वैसे भी केन्द्र और भाजपा पहाड़ के आंदोलन के उग्र तेवर और हिंसा से नाराज है. यह भी सच है कि गोजमुमो के नेतृत्व में गोरखालैंड आंदोलन के लिए गठित गोरखालैंड मूवमेंट को-आर्डिनेशन कमेटी (जीएमसीसी) केन्द्र के साथ गोरखालैंड राज्य के अलावा किसी अन्य मुद्दे पर बातचीत के लिए तैयार नहीं है. इसलिए केन्द्र जीएनएलएफ को अपने साथ लेने की रणनीति पर विचार कर रहा है. बता दें कि पहाड़ में गोजमुमो के गठन के पहले सुवास घीसिंग के नेतृत्व में जीएनएलएफ पृथक गोरखालैंड राज्य से इतर संविधान अंतर्गत छठी अनुसूची का दर्जा पार्वत्य क्षेत्र को दिलाने के लिए प्रयास करता रहा है.
इस संबंध में पश्चिम बंगाल विधान सभा में एक प्रस्ताव पारित करवा कर उसे लोकसभा की स्टैंडिंग कमेटी में भी पेश किया गया था. जीएनएलएफ नेतृत्व की मान्यता रही है कि दार्जिलिंग के पार्वत्य क्षेत्र को छठी अनुसूची के अंतर्गत स्वायत्तशासी इकाई के रूप में गठित किया जाता है, तो वह गोरखालैंड राज्य का विकल्प बन सकता है. स्व. सुवास घीसिंग का मानना था कि छठी अनुसूची का दर्जा मिल जाने पर जो स्वायत्तशासन पहाड़ के लोगों को मिलेगा, वह एक राज्य के भीतर राज्य होगा. इसके तहत संपूर्ण गोरखा जाति को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देकर इस क्षेत्र को ट्राइबल एरिया के रूप में घोषित किया जाना था. भले ही वर्तमान गोरखालैंड राज्य के आंदोलन में छठी अनुसूची का मुद्दा दब गया है, लेकिन जीएनएलएफ ने अभी तक आधिकारिक तौर पर अपने पुराने राजनैतिक स्टैंड को खारिज नहीं किया है. यही वह महत्वपूर्ण कड़ी है, जिसका इस्तेमाल केन्द्र सरकार और भाजपा करना चाहती है. गोरखा जनमुक्ति मोरचा को एक अन्य दल से भी लगातार चुनौती मिलती रही है.
जन आंदोलन पार्टी हालांकि गोरखालैंड मूवमेंट को-आर्डिनेशन कमेटी का घटक दल है. इसके बावजूद जाप अध्यक्ष हर्क बहादुर छेत्री ने आंदोलन में हिंसा की कड़ी आलोचना की है. आंदोलन की वर्तमान उहापोह की स्थिति को देखते हुए जाप ने आगामी सोमवार और मंगलवार को संसद मार्च निकालने का फैसला लिया है. यह फैसला गोजमुमो नेतृत्व के लिए दुविधा उत्पन्न करने वाला है.
यदि वह संसद मार्च में शामिल होता है तो उसे जाप के नेतृत्व को परोक्ष रूप से स्वीकार करना होगा. और अगर शामिल नहीं होता है तो उसकी कथित रूप से ढुलमुल नीति पहाड़ की जनता के सामने उजागर हो जायेगी. इसी उधेड़बुन में गोजमुमो नेतृत्व है. अब देखना यह है कि जाप के नेतृत्व में आयोजित होने वाली संसद मार्च कहां तक सफल होती है. वहीं चंद दिनों के भीतर ही जीएनएलएफ का केन्द्र के साथ नजदीकी रिश्ता भी खुलकर सामने आ जायेगा.