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हिंदी और राजस्थानी दोनों ही भाषाएं अम्बु शर्मा की ऋणी
प्रो. कृपाशंकर चौबे अम्बु शर्मा के निधन से हिंदी और राजस्थानी दोनों भाषाओं को अपूरणीय क्षति हुई है. उन्होंने दोनों भाषाओं की एक समान सेवा की. दोनों भाषाओं में उनके ऋण को स्वीकार करते हुए अनेक संस्थाओं ने उन्हें बहुशः सम्मानित एवं पुरस्कृत किया. राजस्थानी भाषा में लिखे गये उनके महाकाव्य अम्बु रामायण को सर्वाधिक […]
प्रो. कृपाशंकर चौबे
अम्बु शर्मा के निधन से हिंदी और राजस्थानी दोनों भाषाओं को अपूरणीय क्षति हुई है. उन्होंने दोनों भाषाओं की एक समान सेवा की. दोनों भाषाओं में उनके ऋण को स्वीकार करते हुए अनेक संस्थाओं ने उन्हें बहुशः सम्मानित एवं पुरस्कृत किया. राजस्थानी भाषा में लिखे गये उनके महाकाव्य अम्बु रामायण को सर्वाधिक सराहना मिली थी.
1 नवंबर 1934 को झुंझनू (राजस्थान) में प्रह्लाद राय महमिया और कावेरी देवी के पुत्र के रूप में जन्मे अम्बु शर्मा की आरंभिक पढ़ाई-लिखाई वहीं हुई. वे शुरू से ही मेधावी छात्र थे. जब नौवीं में पढ़ रहे थे तभी बाल कांड और अयोध्या कांड रच लिये. पढ़ाई के समानांतर लेखन अबाध जारी रहा. अम्बु शर्मा ने झुंझनू के मोतीलाल कॉलेज से आई कॉम और राजस्थान विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. किया. साहित्य रत्न किया. डिंगल भाषा में स्वर्ण पदक भी प्राप्त किया. 1954 में राजस्थान में वे राजकीय अध्यापक बने.
1962 में जिला विद्यालय निरीक्षक पद पर उनकी प्रोन्नति हुई किंतु कोलकाता चले गये. 1963 में कलकत्ता के ज्ञान भारती विद्यापीठ में अध्यापक बने. वहां 1999 तक पढ़ाते रहे. रामायण के बाकी कांडों की रचना कर चुके और सातों कांड फुटकर छप चुके तो 1997 में 837 पृष्ठों के ग्रंथ के रूप में प्रकाशित हुआ-अम्बु रामायण.
अम्बु रामायण के सात कांड व्यक्ति की उन्नति के सात सोपान हैं. बाल कांड सबको प्रिय है क्योंकि बालक में छल, कपट नहीं होता. अयोध्या कांड व्यक्ति को निर्विकार बनाता है. अरण्य कांड अरण्य के सान्निध्य व साहचर्य की प्रेरणा देता है. किष्किन्धा कांड बताता है कि जीव सुग्रीव की भांति हनुमान अर्थात् ब्रह्मचर्य का सहारा लेगा तभी उसे ईश्वर (राम) मिलेंगे. सुन्दर कांड बताता है कि जब जीव की मैत्री राम से हो जाती है तो वह सुन्दर हो जाता है. जहाँ पराभक्ति सीता है, वहाँ शोक नहीं रहता, जहाँ सीता है, वहाँ अशोकवन है. लंका कांड बताता है कि जीवन भक्ति से परिपूर्ण होगा तभी दानवों का संहार होता है. काम, क्रोधादि ही दानव हैं.
उत्तर कांड के काकभुसुण्डि एवं गरुड़ संवाद में बहुत कुछ है. जब तक दानव का नाश नहीं होगा, तब तक उत्तर कांड में प्रवेश नहीं मिलेगा. राजस्थानी पाठकों में अम्बु रामायण बेहद समादृत रहा. नौ पंक्तियों के दोहा-चौपाई- कड़वक शैली के कुल 2664 छंदों में रचित इस ग्रंथ को प्रख्यात समीक्षक उदयवीर शर्मा ने 60 पृष्ठों की अपनी मुद्रित समीक्षा में आधुनिक राजस्थानी महाकाव्य कहा. साहित्यकार नथमल केड़िया ने अम्बु रामायण को कालजयी महाकाव्य करार दिया. पीएच.डी के कई शोधार्थियों ने उसे अपने अध्ययन का उपजीव्य बनाया.
अम्बु रामायण की लोकप्रियता का एक कारण उसकी लोक भाषा है. अम्बु शर्मा ने जो कुछ कहा है, वह लोक के लिए कहा है, इसीलिए लोक की भाषा में कहा हैः ‘शंख चक्र अर गदा विराजै. धनुष बाण वीराँ-सा साजै. कँवळ-नैण गळ-माळा सोहै. मुळक-मुळक मायड़-मन मोहै.’ अम्बु शर्मा से एक प्रेरणा तो हम यही ले सकते हैं कि हम मातृभाषा को अपनाएं और मातृभाषा को अपने समाज में पुनर्प्रतिष्ठित करें.
मातृ भाषा के जातीय तत्वों को पुनर्गठित करने और अपनी सांस्कृतिक पहचान की रक्षा के लिए दूसरा कोई पथ नहीं है. अम्बु रामायण से दूसरी प्रेरणा हम यह ले सकते हैं कि इसका उपयोग सामाजिक परिवर्तन के लिए किया जा सकता है. रामायण की लोकप्रियता का उपयोग सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए करने का विचार सबसे पहले राममनोहर लोहिया के मन में आया था.
लोहिया ने इसी उद्देश्य से रामायण मेले का कार्यक्रम भी बनाया था हालांकि वे उसमें शरीक नहीं हो पाए थे किंतु उनके निधन के बाद उनके अनुयायियों ने रामायण मेले का आयोजन किया था. उसी तरह मेलों में, सार्वजनिक उत्सवों में अम्बु रामायण को गाया जा सकता है. उससे उस नई पीढ़ी को भी राजस्थानी भाषा से और राम कथा से जोड़ने में मदद मिलेगी जो मातृभाषा तथा रामायण दोनों से कटी हुई है.
अम्बु शर्मा ने राजस्थानी में रामायण लिखी तो हिंदी में अम्बु कृष्णायण. यद्यपि इस सारे कृष्णकाव्य का आधारग्रंथ श्रीमद् भागवत है, तथापि उसे मात्र भागवत का अनुवाद नहीं कहा जा सकता. कृष्ण की लीलाओं के वर्णन में अम्बु शर्मा ने मौलिकता का परिचय दिया है. अम्बु शर्मा ने 667 पृष्ठों के महाकाव्य में श्रीकृष्ण की 95 लीलाओं की कीर्तिगाथा कहते हुए ब्रह्म के सगुण रूप की प्रतिष्ठा की है. अम्बु शर्मा के इस महाकाव्य में वात्सल्य, सख्य, माधुर्य एवं दास्य भाव की भक्ति की प्रधानता है.
वात्सल्य भाव के अंतर्गत कृष्ण की बाल-लीलाओं, चेष्टाओं एवं मां यशोदा के हृदय की सुंदर झांकी मिलती है. सख्य भाव के अंतर्गत कृष्ण और ग्वालों की जीवन संबंधी सरस लीलाएँ हैं और माधुर्य भाव के अंतर्गत गोपी-लीला प्रमुख है. अम्बु शर्मा ने वात्सल्य रस का अनुपम चित्रण किया है. बालकृष्ण की चेष्टाओं का भी उन्होंने सजीव चित्रण किया है. उन्होंने अधिकतर शांत रस का प्रयोग किया है. कृष्ण की विस्मयकारी अलौकिक लीलाओं के कारण अद्भूत -रस का भी निरूपण हुआ है. मुख्य रस भक्ति ही है जिसमें वत्सल, श्रृंगार और शांत रसों का मणिकांचन योग है. अम्बु कृष्णायण में माधुर्य भाव का चित्रण अद्वितीय रूप से हुआ है और शृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का अत्यंत मनोहारी वर्णन हुआ है.
राधा-कृष्ण के रूप-चित्रण में नख-शिख वर्णन और श्रृंगारिक संबंध -चित्रण में नायक-नायिका भेद के वर्णन का भी विकास हुआ है. अम्बु कृष्णायण महाकाव्य संगीतात्मक है. सभी पद गेय हैं. अम्बु शर्मा ने महाकाव्य, खंड काव्य के अलावा गद्य की सभी विधाओं को भी साधिकार स्पर्श किया. उन्होंने कई कहानियां, एकांकियां, उपन्यास, निबंध भी लिखे. साहित्य के अलावा पत्रकारिता में भी उनका बड़ा अवदान है. अम्बु शर्मा पिछले चार दशकों से ज्यादा समय से ‘नैणसी’ पत्रिका का संपादन कर रहे हैं. ‘नैणसी’ राजस्थानी मासिक पत्रिका रही है. वह हिंदी में भी त्रैमासिक निकलती रही है.
‘नैणसी’ के अलावा कई दूसरी राजस्थानी पत्रों का संपादन भी अम्बु शर्मा ने किया जिनमें प्रमुख हैं-‘पंचध्वनि’, ‘रश्मि’, ‘साहित्यिकी’, ‘राजस्थानी समाज’, ‘राजस्थान स्टैंडर्ड’, ‘लाडेसर’, ‘म्हारो देस’ और ‘सरवर’. अम्बु शर्मा का एक बड़ा योगदान एशियाटिक सोसाइटी के लिए राजस्थानी पांडुलिपियों का अंग्रेजी सूची पत्र बनाना है. देश-विदेश के शोधार्थियों को इससे बहुत सुविधा हुई है.
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