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उत्तरप्रदेश चुनाव परिणाम : मुसलिमों का घटता प्रतिनिधित्व लोकतंत्र के लिए चिंताजनक

विजय बहादुर 2017 केउत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में 403 विधानसभा सीटों में सिर्फ 24 सीटों पर मुसलिम विधायक चुन कर आए, जबकि 2012 में यह आंकड़ा 69 था. इस प्रकार यूपी विधानसभा में 20प्रतिशत मुसलिम आबादी की हिस्सेदारी सिर्फछहप्रतिशत होगी. 2014 के लोकसभा चुनाव में यूपीकी 80 लोकसभा सीटों में एकपरभी मुसलिम चुन कर नहीं आया. […]

विजय बहादुर

2017 केउत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में 403 विधानसभा सीटों में सिर्फ 24 सीटों पर मुसलिम विधायक चुन कर आए, जबकि 2012 में यह आंकड़ा 69 था. इस प्रकार यूपी विधानसभा में 20प्रतिशत मुसलिम आबादी की हिस्सेदारी सिर्फछहप्रतिशत होगी. 2014 के लोकसभा चुनाव में यूपीकी 80 लोकसभा सीटों में एकपरभी मुसलिम चुन कर नहीं आया.

2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने दिखाया कि अल्पसंख्यक के बजाय बहुसंख्यक समाज का ध्रुवीकरण ज्यादा कारगर हो सकता है. 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में फिर से यहबात साबित होगयी. भाजपा ने एक भी मुसलिम प्रत्याशी नहीं दिया और मुसलिम समुदाय से जुड़े बहुत सारे संवेदनशील मुद्दों को पुरजोर तरीके से उठाया. यह व्यूह रचनाबहुत कारगर रही और 405 विधानसभा में भाजपा को 325 सीटें मिली. अल्पसंख्यक ध्रुवीकरण का मिथ ध्वस्त हो गया है. मुसलिम वोटों का भारी बिखराव सपा और बसपा के बीच हुआ है और यह भी कहा जा रहा है की तीन तलाक के मुद्दे औरउज्ज्वला योजना का लाभ मिलने के कारण मुसलिम महिलाओं के एक हिस्से का वोट भाजपा को भी मिला है. देवबंद और बहुत सारे मुसलिम बहुल इलाकों में भाजपाकीजीत यहसंकेतदेती है.

मुसलिमसमुदाय का घटता प्रतिनिधित्व भारतीय लोकतंत्र के लिए एक बड़ीचुनौती है और खासकर उन नेताओं और दलों के लिए जो मुसलिमों कीनुमाइंदगी करने का दावा करते हैं. कोई भी अल्पसंख्यक समूह दुनिया के किसी भी कोने में हो सुरक्षा उसकी पहली प्राथमिकता रहती है और उसी को देखते हुए अपना नुमाइंदा तय करता है. आजादी के बाद से चाहे कांग्रेस हो या क्षेत्रीय दल अल्पसंख्यक सुरक्षा के मसले को बहुत तरीके से अपने लिए इस्तेमालकरतेहैं, लेकिन कहीं न कहीं इन दलों ने मुसलिम वोटिंग पैटर्न को विवाद का एक विषय भी बना दिया. सिर्फ मुसलिम सुरक्षा के नाम पर वोट लेने की प्रवृत्ति से सबसे ज्यादा नुकसान मुसलिम समुदाय को ही हुआ है.सच्चर कमेटी हो या रंगनाथ कमेटी सबने ये माना है की मुसलिमों की आर्थिक हालत सबसे निचले पायदान पर है और कुछ हद तक दलितों से भी नीचे. आप किसी भी शहर या कस्बेपरगौर कर लें, सबसे ज्यादा तंगहाल इलाका, गरीबी और अशिक्षा मुसलिम बहुल इलाकों में ही दिखती है. मुसलिमों के ये हालात मुसलिम हितों का दावा करने वालों पर सबसे ज्यादा सवाल खड़ा करता है.

लेकिन, मुसलिमों को बिलकुल अलग रख कर, उनके संवेदनशील मुद्दों कोठंडेबस्ते मेंरख कर चुनावी व्यूह रचना करना भी कम खतरनाक नहीं है. आज पूरी दुनिया मेंमुसलिम धार्मिक कट्टरवाद को लेकर चर्चा हो रहीहै. अमेरिका जैसेलोकतांत्रिक देश में डोनाल्ड ट्रंप का आना इस मुद्देकी प्रतिक्रिया के रूप में भी देखा जाता है. मुसलिम समाज की आकांक्षा, सोच औरजरूरत भी वही है जो कमोबेश बाकी समाज की है, लेकिन मुसलिम समाज के कोर मुद्दों से ज्यादा चर्चा कट्टरपंथी मौलनाओं के फतवों और बयानों को लेकर होती है. तालिबान से लेकर आइएसआइएस जैसे कट्टरपंथी संगठनों ने जिस तरह सारी दुनिया को तबाह किया है, उससे विभिन्न तबके के लोग अपनी सुरक्षा को लेकर सशंकित हैं. मुसलिम समाज का जो उदारवादी तबका है, उसकी आवाज मीडिया में कम ही सुनाई देती है. इससे यह भ्रम उत्पन्न होता है कि पूरा मुसलिम समाज कट्टरता पर विश्वास करता है, जो कतई सही नहीं है.धर्मवकट्टरपंथ में कोई रिश्ता नहीं है. हालांकि इस माहौल ने दूसरे धर्म के लोगों व उदारवादी लोगों को भी कट्टर विचारधारा की तरफ उन्मुख कर दिया है.

दुनिया भर के तमाम कट्टरपंथियों के प्रयास के बावजूद आज भी मुसलिम समाज हिंदुस्तानी लोकतंत्र में बहुत मजबूती से खड़ा है. लेकिन, मुसलिम समाज का गिरताचुनावी प्रतिनिधित्व या उनकी अनदेखी कट्टर विचारधारा के लोगों कोपूरे समाज में यह माहौल बनाने में मदद करेगा की मुसलिमों की इस देश में नुमाइंदिगी करने वाला कोई नहीं है. ऐसे में उहापोहकेमोड़ पर खड़ा मुसलिम समाज अपने धर्म के कट्टर नेताओं की तरफ उन्मुख हो सकता है.यह भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है.

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