/रफोटो4एसकेएल1- छऊ पोशाक के साथ कैलाशसरायकेला. सरायकेला शैली छऊ में मुखौटा का जितना महत्व है, उससे कही अधिक पोशाक का महत्व है. बिना पोशाक के छऊ की कल्पना भी संभव नहीं है. कलाकार कैलाश प्रसाद सिंहदेव जो विगत चालीस वर्ष से पोशाक डिजाइन कर रहे हैं परंतु अब तक उन्हें सरकारी स्तर से अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पाया है. बावजुद कला के प्रति अगाध प्रेम के कारण वे छऊ के पोशाक डिजाइन से हट नहीं पा रहे हैं . आर्थिक तंगहाली के बावजुद भी वे सरायकेला के वार्ड संख्या तीन में एक छोटे से कमरे में पोशाक डिजाइन में व्यस्त रहते हैं . उनके बनाये छऊ पोशाक सात समंदर पार डेनमार्क के राष्ट्रीय संग्राहालय मोसागार्ड की शोभा बढ़ा रहे है. वे सिर्फ सरायकेला शैली ही नहीं अपितु खरसावां व मानभूम शैली के छऊ पोशाक भी डिजाइन करते हैं. कैलाश ने बताया की छऊ का इतिहास काफी पुराना है. छऊ इतिहास के पहले पद्मश्री शुधेंद्र नरायण सिंहदेव जब पहली बार विदेश नृत्य करने गये तब मन में पोशाक तैयार करने की इच्छा जागृत हुई तब से आज तक सिर्फ छऊ पोशाक बनाया जाता है. उन्होंने बताया कि तब युरोप में छऊ की प्रस्तुति इतनी बढि़या हुई कि वहां के लोगों में छऊ के प्रति एक अलग आकर्षण हो गया. इनके द्वारा बारीकी से बने पोशाक से प्रभावित होकर कई संस्थाओं ने इन्हें सम्मानित किया है. कैलाश ड्रेस डिजाइन ही नहीं छऊ नृत्य भी करते हैं. इन्होंने पद्मश्री गुरु केदारनाथ साहु के साथ भी नृत्य किया हैं . कैलाश ने कहा कि जब सरकार नृत्य व मुखौटा को संरक्षण प्रदान करती है तो पोशाक डिजाइन को भी संरक्षण प्रदान करें तभी कला का और विकास हो सकता है.
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40 वर्षों से छऊ पोशाक तैयार कर रहे कैलाश सिंहदेव
/रफोटो4एसकेएल1- छऊ पोशाक के साथ कैलाशसरायकेला. सरायकेला शैली छऊ में मुखौटा का जितना महत्व है, उससे कही अधिक पोशाक का महत्व है. बिना पोशाक के छऊ की कल्पना भी संभव नहीं है. कलाकार कैलाश प्रसाद सिंहदेव जो विगत चालीस वर्ष से पोशाक डिजाइन कर रहे हैं परंतु अब तक उन्हें सरकारी स्तर से अपेक्षित सहयोग […]
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