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समस्या का कोई तो समाधान निकले
प्रभात खबर के छह फरवरी के अंक में ‘गरीबी के कारण पुत्र का नहीं करा पा रहा इलाज’ शीर्षक से प्रकाशित खबर पर एक पाठक ने हमें अपनी प्रतिक्रिया भेजी है. हम हूबहू उनकी बातों को प्रकाशित कर रहे हैं. प्रभात खबर पहले भी अपने पाठकों की बातों को प्रमुखता से प्रकाशित करता रहा है. […]
प्रभात खबर के छह फरवरी के अंक में ‘गरीबी के कारण पुत्र का नहीं करा पा रहा इलाज’ शीर्षक से प्रकाशित खबर पर एक पाठक ने हमें अपनी प्रतिक्रिया भेजी है. हम हूबहू उनकी बातों को प्रकाशित कर रहे हैं. प्रभात खबर पहले भी अपने पाठकों की बातों को प्रमुखता से प्रकाशित करता रहा है.
झा रखंड के स्वास्थ्य मंत्री और राज्य के सबसे बड़े अस्पताल रिम्स के लिए इससे बड़े दुःख, शर्म और नाकामी की बात क्या हो सकती है कि कोई पिता गंभीर रूप से बीमार बेटे के इलाज के लिए दर-दर भटकता रहे और इलाज के अभाव में उसकी मौत हो जाये? मैं बात कर रहा हूं सिमडेगा के सलडेगा निवासी राजू मेहर और उसके दस साल के बेटे देव कुमार की. राजू अपने बेटे को बड़े अरमान से अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए गांव छोड़कर सिमडेगा में मेहनत-मजदूरी करता था, वहीं उसका बेटा सरकार स्कूल में पढ़ रहा था.
अचानक बेटे की तबीयत बिगड़ी, तो पिता ने उसे सिमडेगा के सदर अस्पताल में भरती कराया. वहां हाल नहीं सुधरी तो भागते हुए उसे लेकर रिम्स पहुंचा. हैरानी की बात यह है कि यहां उसे कह दिया जाता है कि रिम्स में सांस की बीमारी का इलाज नहीं हो सकेगा. बदहवास पिता अपने बच्चे को गोद में उठाये निजी अस्पताल की ओर भागता है, लेकिन वहां भी उसका इलाज शुरू करने के पहले पंद्रह हजार रुपये की मांग की जाती है. बेबस पिता बच्चे को लेकर सिमडेगा लौट जाता है, जहां सदर अस्पताल में वह अपने बेटे को मरता हुआ देखता है.
यह पहली घटना नहीं
दो साल पहले भी इसी तरह की घटना घटी थी. तब ‘प्रभात खबर’ ने इसे प्रमुखता से प्रकाशित किया था. खबर के साथ छपी तसवीर बेहद मार्मिक थी, जिसमें एक बेबस युवक गोद में अपने दस वर्षीय बच्चे का शव लिए अस्पताल की चौखट पर बैठा था. मैंने उस खबर की कटिंग के साथ एक निवेदन माननीय सांसद परिमल नाथवानी जी के कार्यालय को भेजा था. केवल यही निवेदन किया था कि गाहे-बगाहे ऐसी घटनाएं घटती हैं, जब दस-पांच हजार रुपये के लिए एक हंसती-खेलती जिंदगी समाप्त हो जाती है और हमलोग बस अफसोस करते रह जाते हैं.
अस्पताल और डाॅक्टर (कुछ) भले ही संवेदनहीन हों, लेकिन समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो ऐसे कार्यों में योगदान नहीं करें. आवश्यकता केवल उन्हें उचित प्लेटफाॅर्म देने की है. वही दे दिया जाये. उसके बाद मैं दर्जनों बार माननीय सांसद के कार्यालय गया, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. कार्यालय में मुझसे कहा गया कि मैं ही क्यों नहीं प्रारंभ करता हूं? मैंने बेबसी बता दी थी. कहा : एक तो मैं 70 वर्ष का हो रहा हूं. दूसरे कई बीमारियों से घिरा हुआ हूं. उसी में से अपना कुछ अंशदान देने की पेशकश भी की थी.
…और अंत में
मुझे सबसे ज्यादा शिकायत अपने प्रिय ‘प्रभात खबर’ से है. राजू मेहर और उसके बेटे की बीमारी से संबंधित खबर लगातार दो दिनों तक प्रकाशित की गयी. इसमें अगर पहले ही दिन राजू मेहर का बैंक खाते का विवरण प्रकाशित कर दिया जाता, तो रांची के लोग मिलजुल कर उसके बेटे की जिंदगी बचा ही लेते. समाचार पत्र का काम दुखद घटना प्रकाशित करना नहीं, बल्कि उसका समाधान ढूंढ़ना भी होना चाहिए. मैं जानता हूं कि कोई समाचार पत्र मेरी इस व्यथा को प्रकाशित नहीं करेगा. अतः समाचार पत्र के अलावा इस व्यथा को मैं अपने फेसबुक अकाउंट और ब्लॉग पर डालूंगा, ताकि कोई तो समाधान निकले. भले मेरी जिंदगी के बाद ही सही.
पारस नाथ सिन्हा, हरमू हाउसिंग कॉलोनी, रांची
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