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हिंदी की अस्मिता पर हमले से चटक रहे मूल्य
राजलक्ष्मी सहाय अल्मोड़ा की कोमल सुरम्य वािदयों में सुमित्रानंद पंत ने हिंदी को ही प्रकृति स्वरूप में देखा. फिर तो सावन की जलधारा झूले की रस्सी बनी और इंद्रधनुष सतरंगी झूला- ‘‘इंद्रधनुष के झूले में झूलें मिल सब जन फिर फिर आये जीवन में सावन मन भावन’’ शस्य-श्यामला धरती को देखा तो हिंदी बोल उठी- […]
राजलक्ष्मी सहाय
अल्मोड़ा की कोमल सुरम्य वािदयों में सुमित्रानंद पंत ने हिंदी को ही प्रकृति स्वरूप में देखा. फिर तो सावन की जलधारा झूले की रस्सी बनी और इंद्रधनुष सतरंगी झूला-
‘‘इंद्रधनुष के झूले में झूलें मिल सब जन
फिर फिर आये जीवन में सावन मन भावन’’
शस्य-श्यामला धरती को देखा तो हिंदी बोल उठी-
‘फैली खेतों में दूर तलक
मखमल की कोमल हरियाली’’
भिक्षुक को देख तो निराला की आत्मा में प्रवेश कर गयी हिंदी-
‘‘वह आता दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता
पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक’’
पत्थर तोड़ती मजदूरनी पर दृष्टि गयी तो समाज की विसंगतियों पर से पर्दा उठा-
‘वह तोड़ती पत्थर-सामने अट्टालिका’’
हिंदी ने सहलाया, रुलाया महादेवी वर्मा की कविताओं में-
‘‘मैं नीर भरी दुख की बदरी’’
जब जैसा देखा हिंदी ने वैसा ही लिबास पहना मानो देश की आत्मा का आइना हो.
प्रेमचंद की स्याही में धुलकर हिंदी ने ईदगाह के चिमटे को सर्वश्रेष्ठ खिलौना बना दिया. आधुनिक मॉल बाजारों में कहीं हामिद के चिमटे के लिए जगह नहीं. होरी का बैल-निर्मला की व्यथा-कर्मभूमि की क्रांति, नमक का दारोगा सरीखे कहानियों-उपन्यासों में हिंदी हाथों में दंड लेकर खड़ी हो गयी- बदलना ही होगा समाज को.
जब-जब मथा गया शब्द-सागर, कल्याणमयी हिंदी अवतरित हुई. जयशंकर प्रसाद का महाकाव्य कामायनी हो, नाटक हो या कविताएं- सबने हिंदी के मुकुट में हीरे जड़े. हरिशंकर परसाई की कलम से हिंदी ने व्यंग्यवाण चलाये तो भी मानव उद्धार. जैनेंद्र, मोहन राकेश, कृश्न चंदर, अमरकांत सबने हिंदी-सागर को मथा और भारतमाता के चरणों पर विविध पुष्प अर्पित किये.
कला जगत-सिनेमा जगत को हिंदी की ताकत का अंदाज हुआ. लपक लिया हिंदी को. कवि बन गये गीतकार. लता मंगेशकर और हिंदी मानो एक ही रूप. लाल किले से आवाज आयी-प्रदीप के बोल-
‘‘ ऐ मेरे वतन के लोगों
जरा याद करो कुरबानी’
एक साथ आंसू छलके और रोंगटे भी खड़े. आजादी के बाद गरीबी की स्याह कोठरियों में बुझे चूल्हे के पास बैठे समाज को एक उम्मीद जगायी थी हिंदी के गीत ने ही. साहिर के बोल देखिए-
‘‘ जब दुख के सागर पिघलेंगे
जब सुख का सागर छलकेगा
वो सुबह कभी तो आयेगी’’
विदेशी हमले हुए तो हिंदी ने ही घोषणा की. जानिसार अख्तर की चेतावनी-
‘आवाज दो हम एक हैं’’
होली हो या अन्य पर्व, हिंदी ने ठिठोली भी की- भजन भी गाये.
‘अल्ला तेरो नाम ईश्वर तेरो नाम’’
साथ में-
‘‘होली आई रे कन्हाई रंग छलके’’
नारी सौंदर्य की अनदेखी हुई तो हिंदी ने उलाहाना दिया-
‘‘संसार से भागे फिरते हो
भगवान को तुम क्या पाओगे’’
प्रेम की उच्चतम अभिव्यक्ति में हिंदी शब्दों की बानगी का क्या कहें. गोपाल दास नीरज के गीत में प्रेयसी के सौंदर्य पर गौर करें-
‘‘सांसों की सरगम, धड़कन की वीणा
सपनों की गीतांजलि तू’’
दर्शन हो या देशप्रेम का उबाल हिंदी के शब्दों ने ही कमाल दिखाया. नेहरू की अर्थी पर फिल्माया गीत क्या भुलाया जा सकता है?
‘‘मेरी आवाज सुनो
मेरी दुनिया में न बूरब है न पश्चिम कोई
सारे इंसान सिमट आये खुली बाहों में’’
नेहरू का विश्वशांति का दर्शन- नौनिहालों पर भरोसा, सब कुछ हिंदी के आंचल से ही निकला. हिंदी ने गंगा में डुबकी लगायी-मजरूह सुल्तानपुरी की स्याही से छम-छम करती गंगा मचल उठी-
‘‘हरियाली सी छा जाती है
छांव में इनके आंचल की
हिमालय ने भी चूमे हैं
इनके कदम’’
प्रकृति की गोद में खड़ी हिंदी ने विहंगम तसवीर उकेरा. दंग रह गये सब. भरत व्यास भी चकित-
‘‘हरी हरी वसुंधरा पे
नीला नीला ये गगन
ये कौन चित्रकार है?’’
फिल्मी गीतों में नीरज ने निराशा के भाव को भी कितनी खूबसूरती और सम्मेलन के साथ हिंदी का प्रयोग किया- जरा शब्दों पर गौर फरमाइये-
‘‘स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लूट गये सिंगार सभी, बाग के बबूल से
और हम खड़े खड़े, बहार देखते रहे
कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे’’
हिंदी का करिश्मा दिखा सिनेमा जगत के पर्दे पर. सिनेमा का रूप धर हिंदी हर भारतीय के दिल में समा गयी. देश के जर्रे-जर्रे में जादू-सा बिखर गया. फणीश्वरनाथ रणु के उपन्यास ‘मारे गये गुल्फाम’ पर फिल्म तीसरी कसम बनी. हिंदी, प्रेमचंद के उपन्यास से निकल कर गोदान फिल्म बन गयी. हिंदी के गीत विदेशी सड़कों और गलियों में भी गूंजने लगे.
मेरा जूता है जापनी या फिर ‘आवारा हूं’. उजियारी हिंदी ने देश समाज के हर कोने को उजियाला कर दिया. सजाया-संवारा और निखारा भी. नमन है देवभाषा संस्कृत की दीक्षा स्वरूपा हिंदी को. प्रेम, संवेदना, त्याग, समर्पण का संदेश लुटाती रही हिंदी. अपनी हर विधा में हिंदी अद्भुत और अलौकिक सी लगी.
अचानक एक दौर आया. शनै: शनै: भारत पर सांस्कृतिक हमले होने लगे. ‘पश्चिम’ की खिड़कियां ‘पूरब’ की ओर खुल गयी. अब इसे काला जादू कहें, स्वार्थपरता की उपासना या भौतिक बाजारवाद का सैलाब. बाजारवाद की ओट में बहुद्देशीय कंपिनयों ने भारत की सरजमीं पर अपना कदम रखा. फिर खुल कर शुरू हो गया तमाशा. मूल्य चटकने लगे. अंगरेजियत और अंगरेजी का पहला हमला हुआ हिंदी की अस्मिता पर. अंगरेजी काबिलियत की प्रतीक है, का मिथक जबरदस्त तरीके से प्रचारित हुआ. बोलचाल में अंगरेजी पूज्य हो गयी- हिंदी तिरस्कृत. राम-राम की जगह हेलो, हाय, गुड मार्निंग ने ले लिया. जलपान ब्रेकफास्ट बना और भोजन डिनर. सारे रिश्ते अंकल-आंटी में आकर सिमट गये. गुडनाइट, स्वीट ड्रीम, ट्रेक केयर, गॉड ब्लेस यू, बाय-बाय सरीखे अंगरेजी जुमले भारतीय होने पर मचलने लगे. ‘भारत’ को ‘इंडिया’ बोलने लगे. भारतीयों को पता ही नहीं चला कि जाने अनजाने में हिंदी स्याह अंधेरे में डूबती जा रही थी. अंगरेजी इठलाती मटकती स्कूलों तक जा पहुंची.
‘‘मछली जल की रानी है जीवन उसका पानी है’’- ‘‘ चुन चुन करती आयी चिड़िया-दाल का दाना लायी चिड़िया’’ को ‘बाबा ब्लैक शीप’ और ‘ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार’ ने ढकेलकर दूर कर दिया.
शहरों-कस्बों से ‘गांधी विद्यालय’ ‘सरस्वती शिशु बाल मंदिर’, ‘विवेकानंद विद्यालय’ ‘लाजपत राय पाठशाला’, ‘दयानंद विद्यालय’ का वजूद मिट गया. इनकी जगह माउंट कार्मेल, सेंट राबर्ट, सेंट जान, सेंट फ्रांसिस और भांति-भांति के कॉन्वेंट खुल गये. अंगरेजी किलकारी लेने लगी- हिंदी सुबकने लगी.
हिंदी को और विद्रूप करने के लिए कॉलेजों की हिंदी परीक्षा में अंगरेजी के प्रश्न शामिल किये जाते हैं. फिर तो हर जगह फिसलन ही फिसलन थी. हिंदी फिसली तो फिसलती चली गयी. दुष्यंत का शेर फिसलती हिंदी पर एकदम सटीक है.
‘‘फिसले जो इस जगह से तो लुढ़कते चले गये
हमको पता नहीं था कि इतना ढलान है’’
सचमुच इस ढलान में फिसलती हिंदी के हाथों से सिनेमा, संगीत, साहित्य सब छूटता-सा चला गया. भारतीय फिल्म जगत ‘बालीवुड’ बन गया- एकदम हालीवुड का दास. हिंदी को दुत्कार कर हालीवुड के नक्शे कदम पर चल पड़ा बालीवुड. फिल्में सिर्फ नाम की रह गयी हिंदी की.
कथा, विषय, गीत, संगीत, नृत्य और डायलॉग भी अंगरेजी की चाशनी में डूबे हुए. हद तो तब हुई, जब हिंदी फिल्मों के नाम भी अंगरेजी के होने लगे. मसलन पिंक, लंदन ड्रीम्स हाइवे, विकी डोनर, नोवन किल्ड जसिका, फुल एंड फाइनल, थ्री इडियट्स, वेलकम वगैरह वगैरह. यहां तक कि विशुद्ध गांव पर बनी फिल्म का नाम भी- ‘वेलकम टु सज्जनपुर. बालीवुड के कलाकार सिर्फ अंग्रेजी में बात करते हैं. कई हीरो-हीरोइन को तो हिंदी जरा भी नहीं आती- फिर भी जुबली स्टार. फिल्मी गीतों ने तो हिंदी देवी का चीरहरण ही कर लिया. अंगरेजी शब्दों के साथ बिल्कुल हालीवुड लहजे में गाये जाते हैं. हिंदी त्याज्य बूढ़ी मां की भांति वृद्धाश्रम के कोने में सरक गयी.
अब हालात इतने बदतर हो गये हैं कि बड़े शहरों में हिंदी बोलना गंवार और देहातीपन का प्रतीक बन गया है. समाज का अभिजात्य वर्ग तो अपने कुत्तों और नौकरों से भी सिर्फ अंगरेजी में ही बात करता है. बड़े ऑल, सिनेमा या हवाई अड्डे पर तो ऐसा आभास होता है, मानो सात समुंदर पार आ गये हों. शर्म आती है कि हम भारत की धरती पर खड़े हैं, जिसकी आत्मा हिंदी में बसती है. लेकिन हर अेार हिंदी की मूक आंखें अंगरेजी से यही कहती नजर आती है-
‘‘तू किसी रेल सी गुजरती है,
मैं किसी पुल सी थरथराती हूं’’
हिंदी कहती है-
‘‘ हर तरफ एतराज होता है
मैं अगर रोशनी में आती हूं’’
हिंदी प्रेम सिमट गया है हिंदी दिवस में. भय लगता है ऐसे दिवसों से. हर मूल्य की कब्र पर खड़ा है एक दिवस. दिवस क्या डे का जमाना है. वृद्धाश्रमों की बाढ़ है- ‘मदर्स डे’, ‘फादर्स डे’, का हंगामा है. छल-प्रपंच की चाल में ‘फ्रेंडशिप डे’- आस्तीन के सांप की तरह. वैसे ही हिंदी दिवस-
‘साल भर दुत्कार
एक दिन पुचकार’.
(समाप्त)
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